१)
रंग सारे उड़ गये शायद हवा में
जिंदगी फिर श्वेत श्यामल हो गई है
राह अब कैसे मिले घनघोर तम में
जो निवारण था वही कारण बना है
बोल सब अभिशाप जैसे हो गये हैं
मंदिरों में मंत्र उच्चारण मना है
अब दुआ में भी मिलावट हो रही है
औ दवा लगता हलाहल हो गई है
अश्रु वर्षा से छँटी है धुंध जबसे
अजनबी सा स्वयं को ही पा रही हूँ
है समय ने खींच दी जो भाग्य रेखा
मैं उसी पर रबड़ घिसते जा रही हूँ
आश के तारे बुझे अब टिमटिमाकर
जिंदगी बस आज या कल हो गई है
फेंक दी पतवार कोने में अचानक
नाव जैसे ही लगी आकर किनारे
अमरबेलों की तरह जकड़े हुए हैं
थीं खड़ी लत जो कभी मेरे सहारे
जो सदा सबके लिये संबल रही है
आज खुद को हार, निर्बल हो गई है
२)
हर तरफ दिखता रुदन पर
काग़ज़ों में सब सही है
ग्राफ में सब ग्रीनलाइन
निम्न पिसता औसतों में
दौर है विज्ञापनों का
है सियासत राहतों में
खो रहा बैलेंस लेकिन
शीट में बैलेंस है सब
चल रहा खाता बही है
कब रजिस्टर में हुईं अंकित
व्यथाओं की कथायें
कौन आखिर झेलता जो
ये निरंकुश आपदायें
एकतरफा बैठकों में चल
रहीं चर्चा बहुत सी
व्यर्थ की जो बतकही है
काग़ज़ों औ फाइलों ने
मूँद ली हैं आँख अपनी
क़लम गूँगी, प्रश्न गूँगे,
उत्तरों की मौन कथनी
जो दिखाता है निदेशक
देख लो वैसा सनीमा
देश में चलता यही है
3)
ट्रैफिक सिग्नल पर रुक कर
जो फूल खरीदे मैंने
देर रात तक मेरे घर में
मंद मंद मुसकाये
सिग्नल के रुकते ही झट
वो फूल बेचने आयी
सौ के पाँच फूल लो दीदी
बोली कुछ सकुचाई
ज्यों ही मैंने फूल खरीदे
उछल पड़ी वो मन में
चंचलता ऐसी जैसी हो
वन के किसी हिरन में
वैसी सुंदरता फूलों की
मैंने कभी न देखी
मानो फूल सही अर्थों में
अभी-अभी खिल पाये
उन फूलों में छिपी हुई थी
जीवटता उस मन की
दो रोटी की नन्ही आशा
उस नन्हे जीवन की
गंध पसीने की जैसे
लगती थी इत्र सरीखी
फूलों की उन पंखुड़ियों में
हँसती नन्ही दीखी
रोज़ खरीदूंगी फूलों को
मैंने उस पल सोचा
जिससे हर संध्या में उस
घर का चूल्हा हर्षाये
४)
नदी बह रही तेज़ समय की
अंजुलि भर हम पी पाते हैं
अंदर से हम रीत रहे हैं
प्यास हो गई मरुथल जैसी
जीत रहे या बीत रहे हैं
सोच हुई है दलदल जैसी
हुए लैमिनेटेड मन अपने
ख़ुद में खोकर रह जाते हैं
कसी लगाम घड़ी ने ऐसी
दौड़ रहे पर रुके हुए हम
जितनी खुशी कमाने जाते
बोनस में मिल ही जाते गम
जितनी देर खींचते सेल्फी
बस उतना ही मुस्काते हैं
इंद्रधनुष से ज्यादा अब तो
मोबाइल के खेल रिझाते
कहाँ भीगते बारिश में अब
नहीं काग़जी नाव बहाते
देख बदलते ढंग सदी के
मन ही मन हम पछताते हैं