हिंदी के सांस्कृतिक समाजेतिहासिक आलोचक श्रीभगवान सिंह की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘साहित्य की भारतीय परंपरा’ लगभग सप्ताह दिन पहले सामयिक बुक्स, दिल्ली से प्रकाशित होकर मुझे प्राप्त हुई। आज जबकि साहित्य एवं साहित्यालोचन विभिन्न प्रतिबद्ध शिविरों में आबद्ध नारेबाजी के दायरे में सिमटता जा रहा है, वहां विराट् मानवीय एवं मानवेतर संदर्भों की पड़ताल में दत्तचित श्रीभगवान सिंह निरंतर भारतीय परंपरा को साहित्य की केंद्रीय भूमि में पुनर्स्थापित करने में कटिबद्ध दिखाई दे रहे हैं। साहित्यिक परंपरा की बात वही आलोचक एवं लेखक कर सकता है जिसके पास ऐतिहासिक अवबोध की गहन विवेचन-क्षमता एवं हृदय पक्ष की श्रेष्ठ संवेदनशीलता प्राप्त हो।
सामान्यतः ‘परंपरा’ का अर्थ रूढ़ हो चली उन रीति रिवाजों से लगाया जाता रहा है जो समाज की प्रगति में बाधक बन रहे हों, पर ध्यान रखना होगा कि यहां साहित्य की ‘भारतीय परंपरा’ की बात हो रही है। साहित्य की भारतीय परंपरा इतिहास-बोध के साथ आधुनिकता-बोध की सदैव मार्गदर्शिका रही है। इतिहास-बोध के भावकत्व और परंपरा के सम्यक अवबोध के अभाव में आलोचना कर्म के साथ न्याय हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि श्रीभगवान सिंह घोर शिविरबद्ध प्रतिबद्धता के इस युग में हमें उन परंपराओं की याद दिलाते हैं जिनके अभाव में हमारी ज्ञान-संवेदनाएं मरती चली जा रही हैं। एक समय टीएस इलियट ने ठीक ऐसा ही महसूस किया था और मरती हुई साहित्यिक संवेदनाओं को पुनः जाग्रत करने के लिए उसने ‘परंपरा’ की भावी उपयोगिता पर अपने विचार प्रस्तुत किए। सन १९१९ में अपने लिखे लेख ‘Tradition and Individual Talent’ में आलोचकों का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि होमर से लेकर अबतक का यूरोपीय साहित्य लगातार एक नई ‘साहित्यिक परंपरा’ का निर्माण करते रहे हैं। ये केवल हमें अतीत ज्ञान से ही समृद्ध नहीं करते बल्कि वर्तमान को भी सकारात्मक निर्माण में सहयोग करते हैं।
यह संयोग की बात है कि साहित्यिक परंपरा की बात करते हुए जहां श्रीभगवान सिंह सर्वप्रथम महर्षि वाल्मीकि का नाम लेते हैं, वहीं टीएस इलियट होमर का नाम लेते हैं। दोनों अतीत में डुबकी लगाते हैं और अतीत से जो रस खींचकर वर्तमान पीढ़ी को जिस प्रकार उसका आस्वादन कराते हैं उससे दो शाश्वत सत्य विनिर्मित होते हैं – पहला, अतीत की गुणवत्ता का ज्ञान और; दूसरा, वर्तमान परिस्थितियों के साथ उस गुणवत्ता का रूपांतरण।
श्री भगवान सिंह जी लिखते हैं- “रामायण का आदि श्लोक पक्षी की पक्षधरता से शुरू होता है, तो महाभारत की कथा का अंत धर्मराज युधिष्ठिर के मनुष्येतर प्राणी श्वान के साथ स्वर्गारोहण के साथ होता है। मनुष्येतर प्राणियों के साथ पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, आदि के साथ भी मनुष्य के रागात्मक संबंधों का निर्वाह रामायण, महाभारत की परवर्ती काव्य-कृतियों में होता रहा।” सोचने की बात है, आज हम मनुष्येतर प्राणियों के प्रति जिस प्रकार संवेदनहीन होते जा रहे हैं उस संवेदना को पुनः लौटाने के लिए क्या हमें हमारी साहित्यिक परंपरा की ओर मुखातिब होने की आवश्यकता नहीं है? अवश्य है।
आलोचक हमारी संवेदनाओं को जगाता ही नहीं बल्कि उसे संपुष्ट कर अपने उदाहरणों द्वारा हमारे संस्कार में ढाल देता है। यह हमारी ही परंपरा का संस्कार है कि यहां राजा शिवि पैदा होते हैं जिन्होंने ‘कबूतर को बाज से बचाने के लिए कबूतर के वजन के बराबर अपने शरीर का मांस देना स्वीकार कर लिया।’ इस प्रकार हमारी साहित्यिक परंपरा मानवीय एवं मानवेतर करुणा भरी हुई है। उन सारे संदर्भों को प्रस्तुत करने का एक मात्र उद्देश्य यही है कि पश्चिम की तरफ बेतहाशा दौड़ते हुए हमारे लेखक अपनी ज़मीन से अपने को ओझल न करें।
लेखक हमारा ध्यान मार्क्सवादी वागछल की ओर आकृष्ट करता है जहां शोषित और शोषक के अतिरिक्त समाज की अन्य परिघटनाओं से कोई मतलब ही नहीं है। लेखक के शब्दों में- “हमारे यहां के मार्क्सवाद में दीक्षित लेखक भी पूरी भारतीय परंपरा को अनदेखा करते हुए साहित्यिक कृतियों में केवल आर्थिक पक्ष की प्रधानता का निरूपण चाहने लगे।” परिणाम यह हुआ कि छायावाद के बाद का हमारा साहित्य कोरे नारेबाजी का इतना जबरदस्त शिकार हुआ कि और तो और पंतजी जैसा प्रकृति प्रेमी और करुणा का महा गायक मार्क्सवादी नारेबाजी का शिकार हो गया।
स्त्रीवाद, दलितवाद, आदिवासी, अवर्ण-सवर्ण आदि लेखकीय विमर्शों के लुभावने वाग्जाल की पगडंडियों पर चलते हुए हम इतने दूर तक भटक गए हैं कि वहां पहुंचकर हमारे इरादे कहीं पीछे छूट चुके हैं और हम किसी षड्यंत्रकारी के हाथों बिकने को मजबूर हो गए हैं। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है-
हरित भूमि तृण संकुल समुझी परही नहि पंथ।
जिमि पाखंड विवाद ते लुप्त होहि सद ग्रंथ ।।
आलोच्य पुस्तक में लेखक विभिन्न ज्वलंत मुद्दों को उठाया है जिस पर चिंतन मनन करना आज की महती आवश्यकता है। इन मुद्दों पर हमें मौन नहीं बल्कि मुखर होने की आवश्यकता है।
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आलोचक श्रीभगवान सिंह की पुस्तकों का लगातार अध्ययन करने के पश्चात मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वे एक युगधर्मी आलोचक हैं। वे निश्चित रूप से एक सांस्कृतिक समाजेतिहासिक आलोचक हैं, पर उनकी आलोचना की अंतर्धारा ‘युगधर्मी’ है। किसी युग अथवा काल-विशेष में लगी वैचारिक चिंगारी जब आग की लपटों में तब्दील हो पूरे समाज को लीलने के लिए तैयार हो, और जब अन्य आलोचक आग की लपटों को देख देखकर मजा ले रहे हों तो ऐसी परिस्थिति में श्रीभगवान सिंह सबको झाड़ते-फटकारते आगे आते हैं, उनकी लेखनी कबीरी अंदाज में सबको समझाने के लिए आगे बढ़ती है। इस प्रकार ‘युगधर्म’ के निर्वाह में वे विवेकसम्मत तर्क से विभिन्न विवादों पर अपना विचार प्रस्तुत करते हैं।
जिस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर तरह-तरह के निराधार आरोप लगाए जाते रहे हैं उसी प्रकार साहित्य में कबीर-तुलसी पर विवाद खड़े कर साहित्य में गुट निर्माण की प्रक्रिया खूब आगे बढ़ी। ‘युगधर्मी’ स्तर पर दोनों कवियों का मूल्यांकन करते हुए श्रीभगवान सिंह ‘कबीर और तुलसी : पूरक या विरोधी?’ आलेख लिखते हैं। वे लिखते हैं-“कबीर को विद्रोही, क्रांतिकारी एवं तुलसी को गतानुगतिक, प्रतिक्रियावादी सिद्ध करने की जो मुहिम प्रगतिवादी समीक्षकों ने शुरू की और जिसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’ ने नया जीवन दिया वह डॉ. धर्मवीर जैसे कथित दलितवादियों के हाथों अपनी विकृति एवं फूहड़पन की चरम सीमा पर पहुंच रही है, जिसका प्रमाण है धर्मवीर का ऐसा कथन ‘श्रमिक समाज और नारी दृष्टि से तुलसी विश्व के साहित्यिक इतिहास में सबसे ज्यादा असभ्य, बर्बर और दुश्मन कवि हैं।”
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस एक छोटे से अनुच्छेद में प्रगतिवादियों एवं दलितवादियों दोनों से एक साथ श्रीभगवान सिंहजी जूझते हैं। ‘दूसरी परंपरा की खोज’ किताब लिखकर नामवरजी ने आचार्य शुक्ल एवं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बीच जो विवाद पैदा की वह आज तक मिट न सका। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि हम इन दोनों विद्वानों का सर्वांगीण विश्लेषण अब तक भी नहीं कर पाए हैं। डॉ. धर्मवीर ने तो साहित्य का मूल्यांकन करने की जगह अपनी कुंठा को ही परोस दिया है।
ऐसे विवाद शुक्लजी एवं द्विवेदीजी तथा कबीर एवं तुलसी को ठीक से समझ न पाने के कारण ही उठे हैं।
यह पूरा आलेख २० पृष्ठों का है जिसमें विभिन्न दृष्टिकोणों से तुलसी एवं कबीर का मूल्यांकन किया गया है एवं दोनों को एक दूसरे का पूरक बताया गया है। दोनों कवि निगमागम की बातें करते हैं, दोनों निर्गुण-सगुण में परस्पर विश्वास रखते हैं, दोनों ही ज्ञान की बातें करते हैं, दोनों ईश्वर के नाम-जप एवं गुरु के महत्व को स्वीकार करते हैं, दोनों निवृतिमार्गी हैं, स्त्री दोनों के लिए माया का प्रतिरूप है, दोनों कहीं द्वैतवादी तो कहीं अद्वैतवादी हो जाते हैं, तो फिर दोनों में अंतर कहां है?
इस पुस्तक में निर्मल वर्मा पर आलेख है, ‘निर्मल वर्मा का कथेतर गद्य : अहिंसक हिंसा का प्रत्याख्यान’। निर्मल वर्मा के केंद्रीय विचार भूमि को समझने के लिए यह आलेख पढ़ना जरूरी है। अपने निबंध ‘ढलान से उतरते हुए’ में निर्मल वर्मा ने कहा है- “यदि औद्योगीकरण के नशे में……वायुमंडल में जो भयंकर प्रदूषण फैलता है, उसे रोकने के लिए हमारी शासन सत्ता और अधिकारी कितने सचेत और क्रियाशील हैं इसकी जानकारी किसी को नहीं मालूम।” (साहित्य की भारतीय परंपरा) इस आलेख में निर्मल वर्मा की चिंता को दर्शाते हुए लेखक ने यह बताने का प्रयास किया है कि एक लेखक का दायित्व केवल मानव ही नहीं वल्कि मानवेतर प्राणियों की चिंता करना भी है। प्रदूषण पूरे विश्व के लिए एक बड़ी समस्या है।
श्रीभगवान सिंह आलोचना के क्षेत्र में वही काम कर रहे हैं जो काम एक माली/किसान अपने उपवन/बागीचे के पौधों की सुरक्षा के लिए करता है। मुझे याद है, आम के पेड़ों पर प्रायः बांझी लग जाया करती है। बांझी परजीवी है वह आम के पेड़ का रस चूस कर पूरे आम के पेड़ को बांझ बना देती है। आम फूलता फलता नहीं है या फलता भी है तो बहुत कम। अतः किसान समय-समय पर बांझियों को छांटता रहता है ताकि आम का पेड़ अच्छा फल दे सके। श्रीभगवान सिंह का आलोचना कर्म ठीक उस किसान/माली के समान है। आलोचना रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखने के लिए उस पर उग आए अनावश्यक बांझ रूपी विचारों को छांटना आवश्यक है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में श्रीभगवान सिंह यही काम करते हैं। और मैं समझता हूं एक आलोचक का इससे बड़ा दूसरा कोई काम हो ही नहीं सकता। आलोचना की जितनी भी पद्धतियां हैं सबको यदि अलग-अलग पेड़ मान लिया जाए तभी भी बांझी को छांटे बिना क्या कोई शांति से फल चख सकता है?
चाहे कोई भी साहित्य आन्दोलन हो, चाहे वह घूंघट काढ़कर आए या बुर्का पहनकर श्रीभगवान सिंह उसके घूंघट या बुर्के को उठाएंगे ही, उसका दीदार करेंगे और बिना लाग लपेट उसकी सुंदरता/कुरूपता का बखान/वर्णन करेंगे। उनके लिए आदमी बड़ा नहीं है, आदमी की पात्रता बड़ी है।
इस पुस्तक में साहित्य और राजसत्ता, साहित्य बनाम लोक साहित्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकधर्मी साहित्य दृष्टि, भारतीय साहित्य में स्त्री सशक्तिकरण की छवियां, कामायनी और गांधी दर्शन, कुबेरनाथ राय का गांधी भाष्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी कुछ और भी कबीर के सिवा, आदि महत्वपूर्ण निबंध हैं।
पुस्तक : साहित्य की भारतीय परंपरा
लेखक : श्रीभगवान सिंह
प्रकाशक : सामयिक बुक्स
3320-21 , जटवाड़ , दरियागंज
एन एस मार्ग, नई दिल्ली-110002