भारत में सभ्यता और संस्कृति शब्द जनसामान्य में प्रायः एक ही उद्देश्य से प्रयुक्त किए जाते हैं परन्तु इन दोनों शब्दों का गहनता से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि ये दोनों ही शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर भिन्नता लिए हुए हैं। सभ्यता शब्द पर विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि यह समाज के बाह्य आवरण को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करने वाला शब्द है। सभ्यता मूल रूप से सभाओं में उठने बैठने की साधुता, पात्रता तथा योग्यता से सम्बन्धित है और कहा भी गया है ‘सभायां साधवः सभ्या।‘ सभ्यता शब्द सभ्य के आगे ता प्रत्यय लगाकर निष्पन्न होता है। सभ्यता अंग्रेजी शब्द ‘सिविलाइजेशन’ का अनुवाद है। इस शब्द का विकास वहाँ खेती, पूजा तथा सम्वर्धन जैसे शब्दों के मूल अर्थ में हुआ है। सिविलाइजेशन शब्द के मूल में सिविल शब्द निहित है जिसका अर्थ नागरिक होता है। इस प्रकार नागरिकों के वाह्य क्रियाकलापों से सम्बन्धित आचरण को सभ्यता के अंदर समाहित किया जाता है। अतः सभाओं में व्यवहार की मधुरता, वचनों की शिश्टता तथा व्यक्ति देह की शोभिता की सूचक, सभ्यता है। इस तरह सभ्यता मानव की बाह्य परिष्कृति है। सभ्यता की स्थिरता की पृश्ठभूमि में अपमान अथवा सामाजिक दण्ड का भय निहित रहता है। इसका निकट संबंध वैज्ञानिक विकास से, भौतिक उन्नति से तथा जीवन के अभ्युदय से है। इसके उपकरण स्थूल एवं भौतिक होते हैं। विधि निशेधों में बंधी यह अपने क्षणिक सुख के साथ वर्तमान को जीती है। निजी स्वार्थपरता ही मुख्य तथा इसकी नियामक होती है।
पाश्चात्य साहित्य में कल्चर शब्द का प्रथम प्रयोग बेकन ने किया था। बाद में जर्मन विद्वान हर्डर ने कल्चर शब्द का प्रयोग किया। वस्तुतः कल्चर शब्द हमारे संस्कृति शब्द के अधिक निकट है लेकिन सिविलाइजेशन और कल्चर, ये दोनों समानार्थी नहीं हैं, दोनों की प्रकृति सर्वथा भिन्न है। पश्चिम में सिविलीजेशन शब्द का प्रयोग सामाजिक आचरण अथवा नागरिकता के संदर्भ में किया जाता है। जर्मन विद्वान कांट के अनुसार सभ्यता बाह्य व्यवहार की वस्तु है। इस तरह कल्चर एवं सिविलीजेशन दोनों ही शब्द संस्कृति के मूलार्थ के निकट नहीं हैं। अतः सभ्यता और संस्कृति में पर्याप्त अंतर पाया जाता है, क्योंकि सभ्यता शब्द भौतिकता का प्रतीक है और संस्कृति शब्द आध्यात्मिकता को प्रदर्शित करता है। आध्यात्मिकता ही देश के वास्तविक परिवेश को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। इसी कारण देश की संस्कृति ही देश के प्रतिनिधित्व रूप में हमारे समक्ष दिखाई देती है। इसलिए हमें संस्कृति के मूलार्थ और इसके तात्पर्य को समझना होगा ।
संस्कृति का अभिप्राय
संस्कृति शब्द की निश्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक कृ धातु में सुट आगम सहित ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से हुई है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार सम् उपसर्ग के होते कृति कारादि की अवस्था में सुट का स्वतः आगम हो जाता है। कोश ग्रंथों के अनुसार संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति ‘संस्कृ’ धातु तथा ‘क्तिन’ प्रत्यय से हुई है। यहाँ संस्कृति शब्द का अर्थ होता है, सजाई या संवारी हुई कृति। सम् उपसर्ग जहाँ कृति को संस्कारित अथवा सुन्दरीकृत अर्थ देता है। वैसे विद्वानों ने सम् उपसर्ग के दो ही अर्थ मुख्यता ग्रहण किये हैं। एक तो संस्कारित सम्यक् कृति तथा दूसरा अर्थ है संभूय कृति। संघशः कृति संभूय कृति कहलाती है। डा. बल्देव मिश्र ने संस्कृति के विशय में यह कहा है कि संस्कृति शब्द प्राचीन भारतीय साहित्य में नहीं मिलता, वह बाद में कल्चर शब्द की अर्थ संगति से गढ़ा गया है। इस कथन से हम सहमत नहीं हैं, क्योंकि संस्कृति शब्द भारत के लिए नया नहीं है। भारतीय वेदों में संस्कृति शब्द का प्रथम बार प्रयोग किया गया है। यजुर्वेद में ही हमें ‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा, जैसा उल्लेख मिलता है। जिसका अर्थ है, विश्व के द्वारा गृहीत वह प्रथम संस्कृति है। शतपथ ब्राह्मण में भी संस्कृति के विशय में कहा गया है कि जो सम है मंत्र है वही संस्कृति है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि संस्कृति ही प्रजापति अग्नि तथा यजमान है। जैसे कथन संस्कृति को व्याख्यायित करते हैं। छांदोग्य उपनिशद में भी संस्कृति के विषय कहा गया है कि मानवता की दृष्टि से सामाजिक संबंधों में प्रेरणा प्रदान करने वाले आदर्शो की समश्टि को संस्कृति कहते हैं। महर्षि अरविंद ने इस विशय में कहा है कि मानव अभिव्यक्ति या क्रिया का सबसे सूक्ष्मतर तथा मधुरतम भाव ही संस्कृति है।
अतः यह प्रमाणित होता है कि भारत के लिए संस्कृति शब्द नवीन नहीं है बल्कि यह सदियों से ही भारत में प्रचलित रहा है। संस्कृति धर्माचरण में ही अभिव्यक्त होती है। धर्म और संस्कृति दोनों का उद्देश्य व्यष्टि, समष्टि तथा सृष्टि की धारणा है। संस्कृति इतिहास नहीं है बल्कि संस्कृति का इतिहास संस्कृति की प्रेरणा बनता है। संस्कृति निरन्तर विकासशील तत्व है जो सदैव गतिशीलता को प्राप्त किए हुए रहता है। संस्कृति आचरण की शुद्धता और औदात्य पर विशेश बल देती है। संस्कृति जहाँ समाज रूपी शरीर की आत्मा है, वहीं धर्म संस्कृति का आचरण पक्ष है। भारतीय संस्कृति का दूसरा उपादान तत्व अध्यात्म को माना जाता है। इसी कारण भारतीय संस्कृति का इतिहास में अपना विशेष महत्व रहा है।
साहित्य में संस्कृति का महत्व
प्रत्येक देश का साहित्य वहां की संस्कृति से प्रभावित होता है। इस संदर्भ में भारतीय संस्कृति अवतारवाद को अत्यधिक महत्व प्रदान करती है। इसी कारण जब पृथ्वी पर दुष्टों के अत्याचार बढ़ जाते हैं तब ईश्वर ही इनका संहार करने के लिए इस पृथ्वी पर अवतरित होता है। तुलसीदास ने कहा भी है कि इस संसार में जब-जब धर्म की हानि अर्थात् कमी होने लगती है, दानवों और अभिमानियों का साम्राज्य बढ़ने लगता है तब ईश्वर स्वयं मानव का शरीर धारण करके इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं और इन दानवों और दर्पयुक्त व्यक्तियों का संहार करते हैं।
संस्कृति का सामान्य अर्थ सुसंस्कारिता, सज्जनता, शालीनता, मानवीय गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं का पालन आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है। इनकों ग्रहण करके मानव, मानवता से युक्त बना रहे। शिक्षा के आधार पर मनुश्य सुयोग्य बनता है। उसकी जानकारियों की परिधि बड़ी हो जाती है। इस आधार पर उसके लौकिक क्रियाकलाप ऐसे बन जाते हैं, जिसके सहारे केवल साधन और सुविधाओं का संग्रह हो सके। यदि सुसंस्कारिता की कमी इनमें रही तो ये केवल चतुरता के पुतले ही कहलाएंगे इससे अधिक कुछ नहीं। यदि वर्तमान परिपेक्ष्य में विश्व की स्थिति पर नजर डालें तो वर्तमान विश्व जिस विनाश और पतन के मार्ग पर खड़ा है, इन समस्याओं व पतन के पीछे मूलरूप से अंधभौतिकता, भोगवाद, आधुनिकता आदि का मूलरूप से हाथ रहा है। अतः इन समस्याओं से बचने के लिए विश्व को एक सार्वभौमिक, सर्वजनीन संस्कृति की आवश्यकता है। मानवीय विकास अब एकता की आवश्यकता अनुभव करता है। एक विश्व भाषा, एक विश्व धर्म, एक विश्व संस्कृति, एक विश्व राष्ट्र बनाये बिना काम नहीं चलेगा। बिखराव, विभाजन व बिलगाव से जो हानियां हो रही हैं उसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।
प्राचीनकाल में भारत विश्व गुरु था और आज भी भारतीय संस्कृति में एक विश्व संस्कृति बनने की संभावनाएँ हैं। इस भारतीय संस्कृति को पुनः श्रेष्ठता व चरम शिखर पर पहुँचाने व इस संस्कृति की व्यापकता के लिए भारत में स्थापित धार्मिक संस्थाएँ जैसे रामकृष्ण मिशन, अरविन्दो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व राधाकृष्ण आदि संस्थाएँ अपना भरसक प्रयास कर रहीं हैं। अतः एक इस संस्कृति की इन संभावनाओं, महानता व विश्व की अन्य संस्कृतियों में श्रेष्ठ होने के कारण इसकी जो विशेषताएँ हैं उनमें धर्मपरायणता, आस्तिकता, अवतारवाद, संस्कार वर्णाश्रम व्यवस्था, पुरूषार्थ चतुष्ट्य, यम नियमों का पालन, कर्मफल व पुनर्जन्म का सिद्धांत, विश्वबंधुत्व, सहिष्णुता, असाम्प्रदायिकता की भावना। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में ये जो विशेषताएँ पाई जाती हैं वे विश्व की किसी अन्य संस्कृति में नहीं पाई जाती। अतः भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित हो सकती है। धर्मान्तरण से युक्त मानव जाति व अध्यात्म प्रवण संस्कृति विश्व संस्कृति की ओर बढ़ सकती है। वर्ग विद्वेष द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित आधुनिक मतवाद भी इस कार्य को नहीं कर सकते। इसके विपरीत उपनिषदों से लेकर तंत्रशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में विकसित अध्यात्म प्रणव व भारतीय सहिष्णुता व वसुधैव कुटुम्बकम् को अपनाकर ही संघर्ष, विभीषिका, परस्पर अविश्वास, कटुता का वातावरण तीव्र भौतिकता की ओर बढ़ रहा विश्व, एक विश्व संस्कृति को अपनाकर ही शान्ति व त्राणमुक्त स्थिति को पा सकता है। अतः भारत फिर से आध्यात्मिक जगतगुरू के रूप में प्रतिष्ठित होगा ऐसा मुझे विश्वास है।
संस्कृति प्रत्येक देश के साहित्य में आत्मा के समान निवास करती है। विश्व में विद्यमान समस्त देशों में जो साहित्य लिखा गया है, वह साहित्य अपनी संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में अवतरित हुआ है। सम्पूर्ण विश्व के साहित्य पर दृष्टि डालने पर यह स्पष्ट होता है कि साहित्य प्रत्येक देश की संस्कृति का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने वाले अनेक साहित्यकार हुए हैं। इन साहित्यकारों के अंतर्गत मुंशी प्रेमचंद, रांगेय राघव, अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, हिमांशु जोशी आदि प्रमुख रहे हैं, जिन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति की दिव्य चमक को प्रस्तुत किया है। आधुनिक युग के साहित्यकारों में हिमांशु जोशी ने भारतीय संस्कृति की जो दिव्य चमक प्रस्तुत की है, वह अद्वितीय है। इनका जन्म उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले में स्थित जोस्यूडा गाँव में 4 मई 1935 को हुआ था। इनके पिता का नाम पूर्णानंद जोशी तथा माता का नाम तुलसी देवी था। इनका बचपन आर्थिक दृष्टि से संपन्न परिवार में व्यतीत हुआ। हिमांशु जोशी संयुक्त परिवार में रहते थे इसलिए इनका भरण-पोषण संतोषजनक तरीके से होता था। विभिन्न विषम परिस्थितियों का सामना करने के पश्चात् ये दिल्ली आकर रहने लग गये और पत्रकारिता को ही अपनी आजीविका का एकमात्र साधन बना लिया। पत्रकार के रूप में कार्य करते हुए इन्होंने भारतीय संस्कृति को बहुत ही नजदीक से देखा और अध्ययन किया तत्पश्चात् इनके साहित्य में भारतीय संस्कृति अपनी पूर्ण पराकाष्ठा के साथ प्रकट हुई है। हिमांशु जोशी ने अपने साहित्य में भारतीय संस्कृति की जिन विशेषताओं को प्रकट किया है, उसे यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है।
हिमांशु जोशी के साहित्य में सांस्कृतिक चित्रण
हिमांशु जोशी हिंदी के प्रसिद्धतम साहित्यकारों में अपना स्थान रखते हैं। इनके साहित्य में भारतीय संस्कृति के लक्षण दिखाई देते हैं। भारतीय संस्कृति में पर्व, त्योहार, उत्सव, मेले आदि अपना विशेष महत्व रखते हैं। हिंदुओं में ही सबसे अधिक त्योहार मनाए जाते हैं। इसका कारण यह है कि हिंदू ऋषि मुनियों ने त्योंहारों के रूप में जीवन को सरस और सुंदर बनाने की योजनाएँ बनाई थी। प्रत्येक त्योहार, व्रत, उत्सव मेले आदि का एक गुप्त महत्व है। प्रत्येक भारतीय के साथ भारतीय संस्कृति जुड़ी हुई है। ये विशेष विचार अथवा उद्देश्य को सामने रखकर निश्चित किए गए हैं। हिमांशु जोशी ने अपने उपन्यासों में इन त्योहारों के माध्यम से देश की अखंडता और एकता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। जनजीवन की एकरसता को उल्लास, उत्साह और उमंग में बदल दिया गया है। वर्ष भर ऋतुओं के परिवर्तन के अनुसार जीवनचक्र को भी सरस बना दिया है। भारत में प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति द्वारा इन मनाए जाने वाले पर्व और त्योहारों का मिला जुला वर्णन इनके उपन्यासों में प्राप्त होता है। प्रादेशिक विभिन्नता के अनुसार कुछ पूजा कर्मकांड में अंतर हो सकता है, पर भावना एक ही रहती है। हिमांशु जोशी ने अपने उपन्यासों में भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व आध्यात्मिकता की ओर संकेत किया है कि भारतीय संस्कृति में अध्यात्म एक विशेष तत्व रहा है इस तत्व के कारण ही भारतीय संस्कृति विश्व संस्कृति में अद्वितीय मानी जाती है। इसे जोशी जी ने एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि भारतीय साधु अध्यात्म पुरुष माने जाते हैं तथा इनका प्रभाव समाज में अत्यधिक होता है। ये पवित्र एवं पुण्यात्मा माने जाते हैं। इन व्यक्तियों का अधिकांश समय ईश्वर उपासना एवं मानव कल्याण में व्यतीत होता है। ये सामान्य मानव के समान नहीं होते बल्कि इनमें ईश्वर का दिव्यांश विद्यमान रहता है। इनके कर्म और वाणी सदैव मानव कल्याण हेतु होते हैं। इसी बात को अपने उपन्यास ‘सुराज’ में अध्यात्म पुरुष की पवित्रता एवं सांसारिक व्यक्ति की स्वार्थतायुक्त अपवित्रता को व्यंग्य के माध्यम से स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि – ‘’अध्यात्म पुरुष हैं न आप ! इसलिए यह आपके ही योग्य है। मेरे छूने मात्र से अपवित्र हो जायेगी…।‘’ सतयुग में ही ऐसा हुआ होगा, किसी ऋषि ने अपना पुराना कोट धोया होगा, जिससे बेचारी जमुना नदी का रंग ही बदलकर काला पड़ गया होगा।‘
उपर्युक्त उदाहरण के माध्यम से उपन्यासकार आध्यात्मिक पुरूष के सद्आचरण की ओर संकेत करता हुआ कह रहा है कि सात्विक प्रवृत्ति के लोग छल-कपट से सदैव दूर रहते हैं परन्तु जो कपटी होते हैं वे सात्विकता का आवरण धारण करके अपना छलयुक्त व्यवहार प्रकट करते हैं। वर्तमान समय में ऐसे लोगों की संख्या अधिक हो गयी है और उनका यह कपटपूर्ण व्यवहार सात्विक प्रवृत्ति के लोगों को दुखी कर रहा है।
भारतीय संस्कृति में ग्रामीण जीवन का परिवेश जीवन को एक नयी चेतना प्रदान करता है। यह जीवन ही भारतीय संस्कृति की आत्मा माना जाता है। यह संस्कृति पशुप्रेमी अधिक है, इस संस्कृति में पशुओं का अपना विशेष महत्व रहा है। गाय और बैल भारतीय संस्कृति के महान पशु हैं। बैल खेतों में अनाज बोने के लिए हल चलाते थे और गाय को माता का स्थान दिया गया था। गाय आज भी भारतीय संस्कृति की आधार मानी जाती है। यह माना जाता है इसमें लगभग समस्त देवता निवास करते हैं। जोशी जी ने गांव के रहन-सहन तथा वहाँ की स्थिति का चित्र ‘कगार की आग’ उपन्यास के माध्यम से स्पष्ट किया है, जिसमें भारतीय किसान की दुर्दशा का चित्रण हुआ हैं। गांव के लोगों को एक जून की रोटी भी बहुत मुश्किल से प्राप्त होती है इसका चित्र पधानी के यहाँ काम करने जाने वाली ‘गोमती’ स्त्री के माध्यम से किया गया है कि- ‘’पधानी ने अपने खेत में काम करने के लिए उसे बुलाया। शाम को मुंडवे की दो रोटियां मिल जाएंगी-यह सोचकर वह चली गई।‘’
उपर्युक्त कथन भारतीय समाज के अन्नदाता का चित्र प्रस्तुत कर रहा है, जो समाज को अन्न प्रदान करके स्वयं दो जून की रोटी के लिए दर-दर मेहनत करता फिरता है। यही भारतीय संस्कृति का अनुभव पहलू है। इसी कारण भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से भिन्न है।
हिमांशु जोशी के उपन्यासों में भारतीय संस्कृति में वर्णित अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों का वर्णन किया गया है। सवर्ण ओर सजातीय विवाहों को ही प्रशस्त माने जाने के बावजूद अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों को क्रमशः निचले स्तर पर रखते हुए सहमति देनी पड़ी। अनुलोम का अर्थ है – ऊपरी वर्ण का अपने से निचले वर्ण की स्त्री से विवाह, जबकि प्रतिलोम का अर्थ है निचले वर्ण का अपने से ऊपरी वर्ण से विवाह। अनुलोम विवाह में चूँकि पुरुष ऊपरी वर्ण का होता है, इसलिए कम गर्हित माना जाता है। जबकि प्रतिलोम विवाह में स्त्री ऊपरी वर्ण की होती है, अतः वह अधिक निन्दित था। फिर भी दोनों प्रकार यत्र-तत्र कतिपय दृष्टान्तों में विद्यमान रहे जैसे च्यवन-सुकन्या, अगस्त्य लोपमुद्रा आदि। प्रतिलोम विवाहों में देवयानी –ययाति, कृत्वी जैसे जो दृष्टान्त हैं, वे भी वैदिक काल के ही हैं। भारत में जातिभेद का मुख्य कारण अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के बाहुल्य को माना जाता है और शास्त्रकारों ने जिस रूप में जाति विशेष के उद्भव को प्रस्तुत किया है, उससे यह पुष्ट भी होता है। इसमें जटिलतम होते समाज में वृत्ति या आजीविका के नए स्रोतों का खुलते जाना अधिक कारण रहा होगा, क्योंकि अधिकतर जातियाँ अलग-अलग पेशों से जुड़ी हैं। ये विवाह समाज में यथार्थ तो थे पर आदर्श नहीं थे। बहुपत्नी प्रथा भी समाज में प्रचलित थी समाज की जो राजतांत्रिक व्यवस्था थी वह कामलिप्सा, पुत्राकांक्षा आदि प्रतिष्ठा प्रदर्शन का साधन मानी जाती थी। हिमांशु जोशी के ‘अरण्य’ उपन्यास में भी इस प्रथा का प्रदर्शन किया गया है जिसमें कावेरी को अपने से अधेड़ व्यक्ति के साथ विवाह करने हेतु विवश किया जाता है तथा धन एवं ऐश्वर्य का जाल ड़ालकर उसकी उम्र से दुगने व्यक्ति के साथ उसका विवाह करवा दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में सदैव यह प्रथा दिखाई देती है कि धनवान व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य कर लेता है। जैसे – ‘’ब्याह का दुतरफा खरचा उस तरफ वाले देने को राजी हैं। लोग कहते थे कि उल्टा और भी देने को तैयार हैं। वह कुछ दिन पहले सुना गांव से होकर गया था और पनघट से लौटती तुम्हें देख गया था। सुना ठेकेदार है। घर के मकान हैं। खेत हैं। लकडी के जंगल को ठेका लेता है। उमर बहुत अधिक नहीं है। सन्तान की कमी के कारण फिर से ब्याह करने को विवश है। सौतें भी बुरी नहीं। जब तक मामा लौटकर नहीं आ जाते, तब तक कुछ धेले टके की मदद को भी कहता है। खाता-पीता ऐसा घर कहां मिलता है।‘’
उपर्युक्त अतवरण से यह स्पष्ट है कि कावेरी, जो अरण्य उपन्यास की नायिका है, वह परिस्थितियों से विवश हो जाती है और अपने से लगभग दोगुनी उम्र के व्यक्ति के साथ विवाह करती है। क्योंकि भारतीय समाज में धनवान व्यक्ति का अधिकार सर्वोच्च माना जाता है। वह अपने धन के आधार पर समस्त कार्यों का संपादन कर लेता है। इस तथ्य को जोशी जी ने यहाँ प्रकट करने का प्रयास किया है।
हिमांशु जोशी हिंदी के प्रमुख कहानिकार के रूप में जाने जाते हैं। इन्होंने अपनी कहानियों में भारत की संस्कृति का सजीव एवं प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया है। हिमांशु जोशी जी के साहित्य में स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता के पश्चात् की स्थितियों का यथार्थ चित्रण किया गया है। जब अंग्रेज भारत में आए तो भारतीय संस्कृति अपनी विशेशताओं के लिए विश्व में पहचानी जाती थी। इसके पश्चात् पश्चिमी संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव पड़ने लगा। जब भारतीय संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति के संपर्क में आयी। तब उसमें परिवर्तन होने लगे। पाश्चात्य प्रभाव से धर्म में जाति प्रथा, विवाह, परिवार, रहन-सहन तथा वर्तनी में परिवर्तन आने लगे। लोगों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक तथा आधुनिक बनने लगा। आधुनिकता की होड़ में संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित होने लगे। भारत की संस्कृति में संयुक्त परिवार की प्रथा रही है। इस प्रथा में परिवार का मुखिया उस घर का पिता होता है। गांव में परिवार की स्त्रियां घर को साफ करने के लिए गाय का गोबर प्रयुक्त करती हैं तथा तुलसी का पौधा लगाती हैं। तुलसी के पौधे को भारतीय संस्कृति में पवित्र स्थान प्रदान किया गया है इन सब बातों को हिमांशु जोशी ने स्पष्ट करते हुए अपनी कहानी ‘मनुष्य चिह्न’ में कहा है कि-
‘’बिना भाई, बहिन और मां के, इस अकेले घर में उसने इतने वर्ष बिताए हैं, किंतु किसी को कभी अंगुली उठाने का अवसर नहीं दिया। गत दस वर्षों में ऐसा कौन सा दिन है, जब उसने देहरी नहीं लीपी। गाय को ‘गोग्रास’ नहीं दिया और तुलसी पर जल नहीं चढाया!…. उसने भूलकर भी किसी की तरफ आंख उठाकर नहीं देखा।‘’
इस उद्धरण में हिमांशु जोशी ने भारत की सांस्कृतिक धरोहर का एक आधार स्तम्भ प्रस्तुत किया है। जिसमें इन्होंने बताया है कि भारत की संस्कृति सदैव विभिन्न प्रकार के आचार व्यवहारों से सम्पृक्त रही है। इसमें सदैव संयुक्त परिवार को ही प्राथमिकता प्रदान की गई है और बताया गया है कि संयुक्त परिवार ही भारत की सांस्कृतिक विरासत को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। गाय भारतीय संस्कृति का प्राण रही है जिसके कारण हिंदू संस्कृति में गाय को एक पवित्र पशु के रूप में पूजा जाता है। प्राचीन समय में घर को पवित्र एवं रोगमुक्त रखने के लिए गाय के गोबर से आंगन को लीपा जाता था जिससे घर में पवित्रता और स्वच्छ वातावरण बना रहता था। इसी कारण हिमांशु जोशी ने भारत की इस अनमोल धरोहर को यहाँ प्रस्तुत किया है। तुलसी का पौधा भी भारतीय संस्कृति में पवित्र माना जाता है और वैज्ञानिक दृश्टि से भी यह प्रत्येक घर में होना आवश्यक माना गया है। इन सब स्थितियों की समझ हिमांशु जोशी को थी जिसके आधार पर इन्होंने इन सूक्ष्म मान्यताओं को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।
हिमांशु जोशी जी ने अपने कहानी एवं उपन्यास सहित के अतिरिक्त जो अन्य साहित्य जैसे संस्मरण, रेखाचित्र, कविता आदि का सृजन किया है उसमें भी भारतीय संस्कृति की सोंधी महक की अनुभूति होती है। इनके संस्मरण में साधारण वेशभूषा और विचारों की महानता को महत्व दिया गया है। जिसका साक्षात् प्रमाण इनका संस्मरण राहुल जी है। इसमें संस्मरण में भारतीय संस्कृति का प्रमुख आधार सादा जीवन और उच्च विचार की भावना विद्यमान रही है। जोशी जी अपने संस्मरण ‘राहुल जी: कुछ पुण्य स्मरण’ में राहुल सांस्कृत्यायन की सादगी का वर्णन करते हैं कि वे भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले महान व्यक्तित्व थे। राहुल सांस्कृत्यायन का जीवन सम्पूर्ण संसार हेतु एक आदर्श के रूप में जाना जाता है। राहुल जी ने अपना जीवन भारतीय संस्कृति के आदर्श वाक्य सादा जीवन और उच्च विचार की भावना के अनुकूल व्यतीत किया। इनका जीवन क्या था मानों सादगी की एक जागती हुई मिशाल हो, जिसने अपनी लौ से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया। राहुल जी से जब जोशी जी मिले तो इनके सादगीयुक्त व्यक्तित्व ने जोशी जी को अत्यधिक प्रभावित किया था जिसे अपने शब्दों में जोशी जी व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- ‘’राहुल जी का व्यक्तित्व बहुत सरल, सहज लगा मुझे। बहुत आत्मीय! जैसे अपने ही परिवार के किन्ही वयोवृद्ध जन का होता है। कुर्ते-पाजामें में काला जूता पहने थे, जो बड़ा बेमेल लग रहा था। भारतीय संस्कृति का एक जागता हुआ व्यक्तित्व।‘’
हिमांशु जोशी अपने एक अन्य संस्मरण ‘ऐसे थे जैनेन्द्र जी’ में जैनेन्द्र जी को एक महान भारतीय कहा है, जो भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला एवं भारतीय संस्कृति में व्याप्त गुणों का प्रस्तोता कहलाने के योग्य है। जैनेंद्र जी के माध्यम से भारतीय संस्कृति कि विशेषताओं का वर्णन करते हुए जोशी जी अपने संस्मरण में कहते हैं कि- ‘’एकला चलो रे’ के सिद्धान्त पर आस्था रखने वाले जैनेन्द्र, साहित्य में भी अकेले ही रहे। दल-बल की साहित्यिक राजनीति से दूर। ये संभवतः अपने ढंग के अकेले लेखक थे, जिनका कभी कोई अपना ‘ग्रुप’ नहीं रहा। जितना विरोध इन तीस-चालीस सालों में अकेले उन्होंने सहा, उतना शायद ही किसी और ने सहा हो। परंतु उनका सदैव सबके प्रति स्नेह, सबके प्रति ममत्व रहा- शायद यहीं उनके व्यक्तित्व की सबसे बडी विशेषता थी।‘’
इस उदाहरण के माध्यम से हिमांशु जोशी ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय संस्कृति में व्याप्त प्रेम और ममत्व का सच्चा स्वरूप जैनेन्द्र में देखा जा सकता था। इन तत्वों को जो प्राप्त कर लेता है, वह समाज में अपना विशेष स्थान भी निर्धारित कर लेता है। इन विशिश्ट संस्कारों से युक्त भारतीय विश्व में अपनी अद्वितीय छवि के लिए जाने जाते रहे हैं।
भारतीय संस्कृति का आधार संयुक्त परिवार है। इन परिवारों का मुखिया पिता होता है। पिता वह व्यक्तित्व है जिससे समस्त कार्य प्रारम्भ होते हैं अर्थात् पिता ही सामाजिक रूप से समस्त क्रियाकलापों का स्रोत है। हिमांशु जोशी ने अपनी कविता में भारतीय संस्कृति के आधार पुरुष पिता की स्मृति में अपने भाव व्यक्त करते हुए कहा है कि वह पिता जिसने मुझे इस संसार में चलना सिखाया वह अब नहीं हैं, जिसके कारण मैं स्वयं को अकेला और असहाय अनुभव करता हूँ। भारतीय समाज में रिश्तों की जो पवित्रता प्राप्त होती है, वह सहज ही मानव को अपनी तरफ आकर्षित कर लेती है। हिमांशु जोशी जी के शब्दों में अपने पिता के प्रति भाव द्रष्टव्य हैं-
‘’पिता नहीं अब, वह हाथ भी नहीं, जिसे थाम कर चल सकूँ।
अपनी ही अंगुली पकड़ कर चलता हूँ अब अपने घर से अपने घर तक।।‘’
उपर्युक्त पंक्तियों में जोशी जी भारतीय समाज में पिता के महत्व पर दृष्टिपात करते हुए कहते हैं कि पिता ईश्वर कि एक अनमोल कृति है, जो समाज के संस्कारों को बालक में ड़ालता है। प्रत्येक परिस्थिति में वह पिता रक्षाकवच के रूप में अपने परिवार की रक्षा करता है। इसलिए यहाँ पिता कविता के माध्यम से भारतीय संस्कृति में पिता के आदर्श रूप की ओर संकेत किया गया है। जिसमें भावों की सरिता प्रवाहित होकर अंतर्मन तक प्रभावित करती है।
अतः हम सकते हैं कि हिमांशु जोशी के साहित्य में जो संस्कृति चित्रण किया गया है उसमें व्यष्टि के स्थान पर समष्टि की व्याख्या की गयी है इसीलिए वसुधैव कुटुम्बकम् और विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत धर्म प्रचारकों ने विशुद्ध मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए घर, परिवार, समाज और प्रदेश ही नहीं अपितु देशों की सीमाएं लांघते हुए अपने धर्म का प्रचार/प्रसार भारत के बाहर भी किया। विश्व पर भारतीय संस्कृति एवं धर्मों का अद्वितीय प्रभाव पड़ा। कई विदेशी राज्यों के राजाओं ने भी भारतीय धर्मों को अपना लिया और इन्हें अधिकाधिक प्रोत्साहन दिया। भारतीय धर्मों में हिंदू व बौद्व धर्मां का विदेशों में बहुत प्रसार हुआ। इन धर्मो ने उन देशों की संस्कृति, कला, ज्ञान-विज्ञान आदि को बहुत प्रभावित किया है। आज भी चीन, जापान, थाईलैंड, श्रीलंका, तिब्बत आदि देशों में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार है। इसी कारण हिमांशु जोशी के समस्त साहित्य में भारतीय संस्कृति के आदर्श रूप का ही उल्लेख किया है, जिससे इनका साहित्य जनसाधारण की भावनाओं को प्रभावित करता हुआ सफल साहित्य माना जाता है। और जोशीजी एक महान संस्कृति के वाहक प्रतीत होते हैं। अतः इस प्रकार स्पष्ट है कि हिमांशु जोशी ने अपने साहित्य में सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में भी सफलता प्राप्त की है।
संदर्भ पुस्तकें-
भारतीय संस्कृति के मूल्य
अरण्य उपन्यास
सुराज उपन्यास
कगार की आग उपन्यास
हिमांशु जोशी रचना-संचयन