‘धर्मयुग’ ने साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में जो कीर्तिमान रचा, वह आज भी स्पृहणीय है। ‘कल्पना’, ‘ज्ञानोदय’, ‘दिनमान’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ उस युग की श्रेष्ठ पत्रिकाएँ थीं। ‘कादम्बिनी’ में छपना भी एक उपलब्धि हुआ करती थी और राजेन्द्र अवस्थी का संपादकीय ‘काल-चिन्तन’ दार्शनिक काव्य का एक प्रतिमान था। समाचार-पत्रिकाओं में ‘सहारा समय’ और ‘इंडिया टुडे’ में भी साहित्य के लिए पर्याप्त स्पेस हुआ करता था और जन-भाषा और सुजन-भाषा की विभाजक रेखा वहाँ मिटती हुई सी प्रतीत होती थी। भाषा को डायल्यूट करके उसकी पोटेन्सी कैसे बढ़ाई जाए, इसका प्रतिमान था ‘सहारा समय’ और उसके संपादकीय। कभी ‘हिन्दुस्तान’ भी उस मानबिन्दु को छूता था। शुरू-शुरू में ‘पायनियर’ का हिन्दी संस्करण आया तो उसने भी हिन्दी में अंग्रेजी के स्तर को बरकरार रखा। गीतों को पुरस्कृत करने का श्रेय ‘दैनिक जागरण’ और ‘कादम्बिनी’ को जाता है। आजकल ने भी गीतों को काफी सम्मान दिया और सुभाष सेतिया के संपादन में अपना स्वर्णयुग देखा। प्रो. विद्यानिवास मिश्र जब ‘नवभारत टाइम्स’ के प्रधान संपादक थे तो मैं इस अखबार को गाजीपुर मंगाता था लेकिन यह दिल्ली से एक दिन लेट आता था। उन्होंने ‘साहित्य अमृत’ में मेरे लम्बे आलेख और सबसे बड़ी कविता छापी थी- ‘सिर्फ पिकनिक मनाने आते हैं।‘ यह कालिदास को सम्बोधित संस्कृतनिष्ठ कविता है। ‘जनसत्ता’ और ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने भी साहित्य को सम्मानजनक स्थान दिया है। कभी विकेन्द्रित हिन्दी साहित्य की सांस्कृतिक राजधानी हुआ करती थी वाराणसी। बाद में प्रयागराज से होते हुए यह दिल्ली पहुँच गई। इन्दु और हंस दोनों ही स्कूल बनारस में ही थे। जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद दोनों शिखर यहीं मौजूद थे। भोपाल और कलकत्ता भी बड़े साहित्यिक केन्द्र थे। अब सब दिल्ली से केन्द्र शासित प्रदेश हैं।
धर्मवीर भारती के ‘धर्मयुग’ के बाद ‘युगधर्म’ के सबसे बड़े संपादक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय हुए। ‘अक्षरा’ के बाद ‘वागर्थ’ को उन्होंने साहित्यिक पत्रिका का प्रतिमान बना दिया। वहाँ से फिर वे भारतीय ज्ञानपीठ चले गए और नया ज्ञानोदय का संपादन शुरू किया। अब यह हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका थी और इसमें श्रोत्रियजी ने मुझे दो बार छापा। इसमें ज्ञानेन्द्रपति के संशयात्मा पर मैंने बड़े मनोयोग से लिखा था और उसके तीन-चार महीने बाद ज्ञानेन्द्रपति को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था तो मुझे लगा कि मेरी दिशा सही थी। अभी तक मेरे लिए डॉ. नामवर सिंह की ‘आलोचना’ में छपने की चुनौती थी तो यह आकांक्षा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी विशेषांक में पूरी हो गई। उधर रवीन्द्र कालिया श्रोत्रियजी का पीछा करते रहे और वे ‘वागर्थ’ के संपादक हो गए। श्रोत्रियजी के ज्ञानपीठ छोड़ने पर वे ‘ज्ञानोदय’ के संपादक बन गए। उनके पास धर्मवीर भारती के साथ पत्रकारिता का विशद अनुभव था। नन्दकिशोर नवल ने भी कई पत्रिकाओं का सफल संपादन किया। उधर राजेन्द्र यादव का ‘हंस’ भी प्रेमचंद का मानसरोवर छोड़कर ऊँची उड़ान भरता रहा किन्तु बाद में जब वे विमर्शकार बन गए और ‘हंस’ मोती की जगह विष्टा खाने लगा तो लगा कि गंदे डबरे में क्रान्ति के तूफान नहीं उठाए जा सकते। फिर भी मैं ‘हंस’ के संपादकीय का कायल था। उसकी राकेट-भाषा बहुत सशक्त थी। और असहमतियों के प्रति अब उतनी सहिष्णुता किसी में नहीं है। बीच बहस में हंस को खड़ा कर देना राजेन्द्र यादव की एक बड़ी उपलब्धि थी। उनसे मेरा विसंवाद भी खूब हुआ। विसंवाद तो ‘वागर्थ’ के संपादक विजय बहादुर सिंह से भी हुआ, जब उन्होंने फोन पर गीत को मरी हुई विधा बताया। एकान्त श्रीवास्तव ने जरूर मुझे ‘वागर्थ’ में दो बार छापा। विनोद दास, हिमांशु जोशी और शंभुनाथ वागर्थ के यशस्वी संपादक रहे हैं।
आज ‘ज्ञानोदय’ और ‘पहल’ जैसी पत्रिकाएँ बन्द हो गईं। कादम्बिनी के कदम पहले ही ठिठक गए थे। ‘वागर्थ’ और ‘हंस’ भी सिकुड़ गईं हैं और ‘अकार’ का आकार छोटा हो गया है। ‘तद्भव’ जरूर तत्सम स्वरूप में छप रहा है। अखबारों ने साहित्य को अलविदा कह दिया। प्रिंट मीडिया से भी अधिक इलेक्ट्रानिक मीडिया बाजार के जगमग से आच्छादित है। वहाँ साहित्य का अपना चैनल होना चाहिए। इधर कुछ नई पत्रिकाएँ शुरू हुई हैं और ‘पाखी’ एवं ‘वीणा’ ने लम्बे तरंगदैर्ध्य की रोशनी का साक्षात्कार किया है। ‘वीणा’ तो ‘सरस्वती’ के जमाने की सबसे उम्रदराज पत्रिका है जो अपने सौ साल पूरे करने जा रही है। ‘सरस्वती’ भी नए धज में फिर से शुरू हुई है। साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ अपने समान चाल से चली जा रही है। इधर सोशल मीडिया ने पत्रिकाओं के वर्चस्व को खासा चुनौती दी है और उनके एकाधिकार को तोड़ा है लेकिन यह समय बहुत खा जाता है और स्वाध्याय का शत्रु है। गम्भीर लेखन के लिए यहाँ अवकाश नहीं। और पुस्तकों से पढ़ने की सुविधा निर्विकल्प है। फिर भी शिविरबन्दी के खिलाफ यह एक घोषणापत्र है। अक्षर-परंपरा को जीवंत बनाए रखने के लिए मैं ‘अक्षरा’ का सम्मान करता हूँ। और क्षयिष्णु साहित्यिक पत्रकारिता के इस दौर में कामना करता हूँ कि नई प्रतिभाएँ आगे आएँ और युद्धों का प्रतिपक्ष रचने के लिए प्रेम का सृजन करें और पत्रकारिता की साधना मिशन बने, प्रोफेशन नहीं।
मैंने प्रो. विद्यानिवास मिश्र से एक साक्षात्कार में पूछा था कि आजकल पत्रिकाओं में रचना के कद के अनुसार नहीं, रचनाकार के कद के हिसाब से रचना का प्रकाशन होता है तो उन्होंने कहा कि बड़े लेखकों के कारण पत्रिकाएँ बाजार में अस्तित्वमान रहती हैं लेकिन उनका मूल उद्देश्य नयी प्रतिभाओं को प्रकाश में लाना होता है। मुझे लगता है कि अपने समय की रचनाशीलता और बौद्धिक हलचलों का तापमान जानने का संवेद्य माध्यम या गवाक्ष हैं पत्रिकाएँ। पत्रिकाएँ हमारे जीवंत होने का प्रमाण हैं। ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘कादम्बिनी’ केवल शुद्ध साहित्यिक सामग्री परोसने के बजाय समग्र समय को परावर्तित करती थीं। दिनमान और कल्पना भी एक नया कीर्तिमान रच रहे थे। उधर कहानी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका कमलेश्वर की ‘सारिका’ थी जिसने नयी कहानी आन्दोलन को धार दिया। जैसे अज्ञेय ‘नया प्रतीक’ के माध्यम से ज्ञानात्मक संवेदन के नए प्रतीकों का सृजन कर रहे थे। निराला जिस मतवाला का संपादन करते थे उसके मुखपृष्ठ पर लिखा होता था-
अमिय गरल शशि शीकर रविकर,
राग-विराग भरा प्याला।
पीते हैं जो साधक उनका
प्यारा है यह मतवाला।।
आज कितनी पत्रिकाएँ हैं जो सामासिक संस्कृति के द्वंद्वात्मक सम्बन्धों का निर्वाह करती हैं? पारम्परिक मनीषा का पोषण करने वाली ‘अक्षरा’, ‘वीणा’, ‘साहित्य भारती’, ‘साहित्य अमृत’ और ‘साक्षात्कार’ दक्षिणपंथी लेखन का मंच हैं तो ‘तद्भव’, ‘वसुधा’, ‘बया’, ‘अन्यथा’, ‘आलोचना’, ‘हंस’, ‘पहल’, ‘दोआबा’ धुर वामपंथी पत्रिकाएँ हैं, जहाँ इतनी असहिष्णुता है कि भिन्न को उद्भिन्न बनाने की संकल्पना तो बहुत दूर की बात है, उसे अस्पृश्य की तरह चिमटे से छूना भी पसंद नहीं करतीं। विरोधी विचारों से अन्तःक्रिया करके एक नया रसायन पाना या रचनात्मक सामंजस्य तो उनके शब्द कोष से निर्वासित है। जब एक लेखक का बयना ही दूसरे के घर नहीं जाता तो हम किस साहित्य की बात करते हैं? सहित का भाव रहा कहाँ? विखंडनवाद हावी है। जब लेखक ही आपस में नहीं जुड़ पाते तो पाठक-समाज को क्या जोड़ेंगे? जनवादी कविताओं को कितने जन पढ़ते हैं? आम आदमी की चर्चा भी खास बनने के लिए की जाती है। अब अभिव्यक्ति के खतरे नहीं उठाए जाते, बल्कि जनवाद के प्रगतिशील पैटर्न को स्थापित होने के लिए सुविधाजनक समझा जाता है। अनुभव और विचारधारा में फाँक है। सत्य को उसके मूल अक्ष पर बेधना आज भी चुनौती है। अपने परवर्ती काल में नया ज्ञानोदय और वागर्थ भी वामपंथी हो गए। जबकि डा. प्रभाकर श्रोत्रिय मध्यमा प्रतिपदा के पथिक होने के कारण एक सांस्कृतिक सेतुबंध थे। गद्यब्राण्ड सिंथेटिक कविताहीन कविताओं का पाँचवा पाठक कौन है? कविता मरेगी तो पत्रिकाओं का भी अवसान होगा। कहानी से भी कहानीपन गायब है। ‘कथादेश’, ‘कथाक्रम’ और ‘परिकथा’ थोड़ा संतुलन बनाए हुए हैं और इनमें एकाधिक बार मैं छपा भी हूँ। ‘अक्षरा’ के एक अंक में नरेश मेहता के ‘महाप्रस्थान’ पर पहला लेख मेरा ही था। ‘लहक’ जैसी पत्रिकाओं में बड़ी आग है और इस में समय के ताप और संबन्धों की ऊष्मा को लक्ष्य किया जा सकता है। ‘आधुनिक साहित्य’ भी एक शानदार पत्रिका है और ‘दोआबा’ ने भी शब्दों की फसल पैदा की है। दूर देश अरब से प्रकाशित होने वाली ‘निकट’ पत्रिका भी अब मेरे निकट कानपुर आ गई है। साहित्यिक मूल्यों के निकटतम मानबिन्दु को सुरक्षित रखने वाली यह अक्खड़ पत्रिका है। अखबारों में ‘जनसंदेश टाइम्स’ व्यापक और श्रेष्ठ साहित्य के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील और प्रतिबद्ध है। अच्छी बात यह रही कि मैं परिचय के कारण कहीं प्रकाशित नहीं हुआ, बल्कि रचना के प्रकाशन के बाद संपादक से परिचय हुआ। याद आता है दिनकर का रश्मिरथी-
पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो मेरे भुजबल से
रवि समान दीपित ललाट से और कवच-कुंडल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाश,
मेरे रोम रोम में अंकित है मेरा इतिहास।।
एक आलोचना को पढ़कर प्रभाकर श्रोत्रियजी ने मुझे पत्र लिखा था- “बड़ी तेजस्वी समीक्षा है।” मुझे लगा कि मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल गया। तब वे भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक थे। इस आत्मकथा में आत्मश्लाघा अंतर्निहित है लेकिन भविष्य की सृजनशीलता के लिए बीजसूत्र भी छिपे हैं। पाथेय तलाशते हुए सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदीजी याद आ रहे हैं जो किसी भी प्रलोभन के आगे झुकने से इनकार कर देते हैं- “सरस्वती को लक्ष्मी का साधन नहीं बनाया जा सकता।” बाजार के सम्मोहन और समझौतावादी रुझान को निरस्त करते हुए रचनाओं को फिल्टर करके ही स्वीकारना कितना काम्य है! आज तो लोग दूसरी परंपरा की खोज से भी विरत और विरक्त हो चुके हैं और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पीछे पड़े हैं लेकिन यह तो उनकी शक्तिमत्ता का ही प्रमाण है। कविता रस से वंचित होगी तो पाठकों से भी वंचित होगी। आज पाठक ठगा सा महसूस कर रहा है-
बड़े शौक से सुन रहा था जमाना,
हमीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते।
भाषा की कला-चेतना और सांस्कृतिक अस्मिता को पुरस्कृत करने वाले अशोक वाजपेयी का ‘पूर्वग्रह’ एक स्तरीय मंच था जिसे डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने कभी और भास्वर स्वरूप प्रदान किया था। उस कलेवर में संवेद, शब्दिता, बया और अन्यथा जैसी पत्रिकाओं का नाम लिया जा सकता है। आलोचना चिन्तन की क्लासिकी का एक वैश्विक मंच रहा है लेकिन वह हंस की तरह पूर्ण विराम के बाद पुनर्नवा होकर उभरा। शिवदान सिंह चौहान से लेकर नामवर सिंह तक उसे योग्य संपादक मिले। इस दृष्टि से वीणा की निरन्तरता आश्वस्त और विस्मित करती है। वैसे भी भाषा का संगीत प्राणायामी साधना की अपेक्षा रखता है। ओम निश्चल, जयप्रकाश, विजय कुमार, पंकज चतुर्वेदी और अशोक वाजपेयी की आलोचना-भाषा में भी एक अपूर्व संगीत संलक्ष्य है। विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्ध सबसे अधिक संवेद्य हैं। भारतीय ज्ञानपीठ का ‘वाणी’ में विलयन हो गया। साहित्य अकादमी से प्रकाशित ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ और ‘पाखी’ परम्परा और प्रगति के द्वंद्व को आत्मसात् कर समग्र जीवन-बोध की संरचना के लिए प्रतिश्रुत हैं। ‘पाखी’ के संपादक अपूर्व जोशी ने तो यू ट्यूब चैनल से लेकर एक वृहद नेटवर्क खड़ा कर लिया है। वे बहुत उत्साही और रचनात्मक जिजीविषा सम्पन्न व्यक्ति हैं। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा संपादित ‘दस्तावेज’ और डॉ. गोपाल राय द्वारा संपादित समीक्षा भी द्वितीय श्रेणी की पत्रिकाओं में उल्लेखनीय हैं। समीक्षा तो केवल पुस्तक-समीक्षाओं को समर्पित अपने ढंग की इकलौती पत्रिका थी। समकालीन सोच मुख्यतः एक बौद्धिक पत्रिका है। महीप सिंह की ‘संचेतना’ की ‘सन्ध्या छाया’ वरिष्ठ रचनाकारों को सम्मानित करने का एक उपक्रम थी। ‘समावर्तन’ का नाम फोन पर बातचीत में राजी सेठ ने बड़े सम्मान से लिया था। सुधीश पचौरी का ‘वाक्’, अनुज की ‘कथा’ और अरुण शीतांश के ‘देशज’ को भूलना सम्भव नहीं है। ‘गगनांचल’, ‘आजकल’ और ‘उत्तर प्रदेश’ जैसी सरकारी पत्रिकाओं ने भी हिन्दी की श्रीवृद्धि की है। ‘संप्रेषण’, ‘अलाव’, ‘आधारशिला’, ‘समयांतर’, ‘साखी’, ‘परिचय’, ‘मधुमती’, ‘पाटल’, ‘अवन्तिका’, ‘कविताश्री’, ‘नया साहित्य निबन्ध’, ‘नवनीत’, ‘विपाशा’, ‘अक्षर पर्व’, ‘आकंठ’, ‘अभिनव इमरोज’ जैसी सैकड़ों पत्रिकाओं ने भाषा का एक सृजनात्मक संसार रचा। भारतीय हिन्दी परिषद, प्रयाग से प्रकाशित हिन्दी अनुशीलन और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित ‘सम्मेलन पत्रिका’ और ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ स्तरीय अकादमिक शोध पत्रिकाएँ रही हैं। हिन्दी अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’, ‘समकालीन अभिव्यक्ति’, ‘भाषा’, ‘सृजन सरोकार’, ‘परिन्दे’, ‘प्रयाग पथ’, ‘संभव’, ‘साहित्य भारती’, ‘समय सुरभि अनन्त’, ‘नूतन कहानियाँ’, ‘अहा जिन्दगी’, ‘नव निकष’, ‘अभिनव इमरोज’, ‘अभिनव प्रसंगवश’, ‘संकल्य’, ‘सोच-विचार’, ‘गाँव के लोग’, ‘कविकुंभ’, ‘कथासराय’, ‘नवोदित प्रवाह’, ‘पतहर’, ‘बहुवचन’, ‘कृति बहुमत’, ‘देश और समाज’, ‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘मरु नव किरण’, ‘अभिनव कदम’, ‘बिम्ब-प्रतिबिंब’, ‘कृति ओर’, ‘ककसाड़’, ‘गाथांतर’, ‘नई धारा’ आदि अनेक भाव-धाराओं में हिन्दी प्रवहमान रही है। भोजपुरी पत्रिकाओं में सबसे भास्वर दिल्ली से प्रकाशित ‘पाती’, राजेश्वरी शांडिल्य के ‘भोजपुरी लोक’ और पटना से प्रकाशित ‘भोजपुरी पत्रिका’ ने भी मुझे मातृभाषा का प्यार दिया है। ‘सँझवत’ भी कलकत्ता से निकलने वाली एक अच्छी पत्रिका है। ‘भोजपुरी माटी’ के भोजपुरी मिजाज को नहीं भुलाया जा सकता। ‘पाती’ के संपादक डॉ. अशोक द्विवेदी और ‘सँझवत’ के श्री रामरक्षा मिश्रजी मुझे भोजपुरी में लिखने के लिए प्रेरित करते रहते हैं लेकिन मैं तो ठहरा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी लिखने वाला। यद्यपि समहुत, दूध अँवटा गइल, कुटकुर जमीन अँवासल गगरी, मनसायन आदि अनेक भोजपुरी शब्द ऐसे हैं जिनकी अर्थ-संवेदना का सटीक अनुवाद किसी भी भाषा में सम्भव नहीं है और भोजपुरी में बउधायन महाकाव्य से लेकर छह सौ पुस्तकों का एक विपुल संसार है। हिन्दी में तीन सौ से अधिक पत्रिकाएँ हैं लेकिन अब छपने का मेरा ही कीर्तिमान मेरे लिए चुनौती बन गया है। हमारी स्वीकृति सीमित है-
हैं कुछ खराबियाँ मेरी तामीर में जरूर,
सौ मर्तबा मिटाके बनाया गया हूँ मैं।