मॉरीशस यानी हिन्द महासागर का मोती। 720 वर्ग मील में फैला एक द्वीप, जो वर्तमान समय में लघु भारत कहा जाता है। उत्तर भारत के लोगों द्वारा, खासकर भोजपुरी समाज के लोगों द्वारा बंधुआ मजदूर से शासक बनने की संघर्ष गाथा है। भाषा,संस्कृति और समाज का जो चित्र भारत में दिखता है, मॉरीशस में भी वह दिखता है।
मॉरीशस में हिंदी भाषा संवाद एवं व्यवसाय का हेतु नहीं अपितु धर्म और संस्कृति हिंदी के संवाहक है। मॉरीशस के लोगों के लिए हिंदी गंगाजल की तरह पवित्र है, संग्रहणीय है, पूजनीय है, अस्मिता की पहचान है।
भारत के बाहर मॉरीशस एक ऐसा देश है, जहाँ पर हिन्दी में सबसे अधिक प्रकाशन यानी हिन्दी साहित्य की समस्त विधाओं में बहुत कार्य हुआ। सन् 1834 ई.में गिरमिटिया मजदूरों का प्रथम दल पहुँचा और इसी के साथ हिन्दी भी इस देश में पहुँच गयी। सन् 1834 से लेकर 1920 तक जो भी गिरमिटिया मजदूर यहाँ आये, वे चाबुक की मार खाते रहे लेकिन तुलसी की रामायण, हनुमानचालीसा और महाभारत को अपने सीने लगाये रखे। शाम को अपनी बैठकों में भजन, कीर्तन और सत्संग के माध्यम से और बाद में इन्हीं बैठकों को हिन्दी पाठशालाओं में बदलकर अपने बच्चों को ककहरे का ज्ञान देना प्रारम्भ किया। गिरमिटिया मजदूरों द्वारा लगाया गया हिन्दी का यह पौधा आज विशाल वटवृक्ष बन गया है,और इसी हिन्दी के बल पर गिरमिटिया मजदूरों के वंशज मॉरीशस के शासक बन गये। कुल मिलाकर भाषा और संस्कृति के आधार पर मॉरीशस को लघु भारत कहा जा सकता है।
भोजपुरी और अवधी भाषा के साथ इस द्वीप पर क़दम रखने वाले भारतवंशी आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे, लेकिन लोकगीतों तथा लोक संस्कृति को अपने खून में बसाए मिट्टी से सोना बनाने आए परिश्रमी थे। संस्कारी थी, सहृदय थे। आए तो थे सब यह सोचकर कि एक दिन अपने देस लौटेंगें, पर धीरे-धीरे यह विदेश ही अपना देश बन गया।
मॉरीशसीय हिन्दी साहित्य का भारतीय हिन्दी साहित्य के क्रमिक और उत्तरोत्तर विकास से सम्पूर्ण सान्निध्य रहा है। समय के साथ ही मॉरीशस हिन्दी साहित्य सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि विषय वैविध्य से युक्त हो गया। यहीं प्रवृत्ति मॉरीशसीय हिन्दी साहित्य को नई पहचान देती है।
मॉरीशस में हिन्दी लेखन का प्रारंभिक बीज संस्कृति निष्ठा से ओत-प्रोत रहा। भारत से जो गिरमिटिया मजदूर आए वे अपनी भारतीयता में कायम रहे,यही उनकी संतानों को आज भी भारतीयता से जोड़े रखता है। भारतीय संस्कृति और परम्परा आज भी मॉरीशस में हैं। भारत को आजादी 1947 ई.में मिला और मॉरीशस को 1968 ई.में, दोनों देशों की आजादी में 21 वर्षों का फासला रहा।
जिस तरह से भारत में आजादी के लिए देश में आंदोलन, स्वतंत्रता-संग्राम की भूमि तैयार हो रही थी, उसी तरह मॉरीशस में भी। मॉरीशस के गिरमिटिया मजदूरों का संघर्ष दो मोर्चों पर था। पहला जीवन-यापन के लिए तत्कालीन प्रशासन के विरूद्ध संघर्ष तथा दूसरा मोर्चा था अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए तत्कालीन पाश्चात्य सोच के विरुद्ध संघर्ष। बंधुआ मजूर होकर, परतंत्र होते हुए, आजीविका, अपने धर्म,अपनी संस्कृति और भाषा की रक्षा करना, अपने खान—पान, पहनावा, रहन-सहन को कायम रखने के लिए जिस संस्कार और सांस्कृतिक मनोबल की जरूरत होती है। वह इनमें था, कारण यह भारतीय संस्कृति में हैं।
राम भारतीय संनातन संस्कृति में इस कदर रचे हुए हैं कि मॉरीशस भी इस संस्कृति से अछूता न रह सका। कारण तो पहले ही उल्लेख किया जा चुका। 160 वर्ष पूर्व रामकथा का प्रादुर्भाव मॉरीशस में हुआ। पंडित राजेन्द्र अरुण रामायण गुरू के नाम से जाने जाते हैं। उन्हीं के अथक प्रयास से सन् 2001 में मॉरीशस की संसद में सर्वसम्मति से एक अधिनियम पारित करके रामायण सेंटर की स्थापना की। यह सेंटर विश्व की पहली संस्था है, जिसे रामायण के आदर्शों के प्रचार के लिए किसी देश की संसद ने स्थापित किया है।
भारत से दूर मॉरीशस में राजेन्द्र अरुण ने रामचरितमानस के प्रमुख तथ्यों को आधार बनाकर अपने साहित्य की सर्जना लोकमंगल के हित में किया। जाति व्यवस्था के बारे में लेखक बड़े ही तीक्ष्ण रूप में लिखा है, “पाँव मनुष्य के पात्र के प्रतीक है। बिन पाँव के मनुष्य लक्ष्य तक जय यात्रा नहीं कर सकता। अतः पाँवों की बड़ी महिमा है।”
भारतीय वर्णव्यवस्था में शूद्रों को ईश के चरणों से जायमान माना जाता है। समाज में निम्नवर्ग सदैव से तिरस्कृत और उपेक्षित रहा है। अरुणजी ने इनके सम्मान में लिखा है, “जिस तरह बिना पग के दो कदम चलना भी संभव नहीं है उसी प्रकार यदि निम्न वर्ग को उचित सम्मान और स्नेह से वंचित रखा जाए तो स्वस्थ समाज की परिकल्पना संभव नहीं है, क्योंकि मानवता का आकलन जाति के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर करना चाहिए। जो पुरुषार्थी होते हैं, वे कल्पनाओं तथा सपनों को यथार्थ में बदल देते हैं, और जो आलसी तथा प्रमादी होते हैं वे यथार्थ को सपनों तथा कल्पनाओं में पाकर संतोष कर लेते हैं। विवेकशील प्राणी का लक्ष्य उच्चकोटि का होता है। वे अपने पुरुषार्थ द्वारा ही भाग्यवाद का खंडन और कर्मवाद का मंडन करते हैं। इस तरह से पं. राजेन्द्र अरुण भारतीय संस्कृति का चित्रण करते हैं।
सन् 1935 से मॉरीशस में हिन्दी विकास का आधुनिक काल प्रारम्भ होता है। इस समय के कविताओं में देश को स्वतंत्र कराने का संकल्प, मानवीयता के नये आयाम तलाशना, अन्याय और अत्याचार का विरोध, जनता को जागृत करना, अप्रवासियों की व्यथा कथा का चित्रण करना, समाज सुधार और सांस्कृतिक प्रेम—भाव का चित्रण करना आदि प्रमुखता से हैं।
मॉरीशस में हिन्दी साहित्य को प्रो.वासुदेव विष्णुदयाल, मुनीश्वर लाल, चिंतामणि, अभिमन्यु अनत, प्रह्लाद रामशरण, सोमदत्त बखौरी, अजामिल, माताबदल, रामदेव धुरंधर आदि का नाम विशेष रुप से भाषाविद् एवं साहित्यकारों में आता है।
कवि मधुकर की एक कविता जो मॉरीशस की आजादी के समय प्रचलन में थी। मॉरीशस के लोगों के जुबान पर थी—
“ए पथिक बढ़ चल सीना तान,
चाहे आँधी हो या तूफान,
चाहे घनघोर घटा छाये,
चट्टान से पानी टकराये।”
भारत की तरह प्रगतिशील कविता की छाप मॉरीशस के कवियों की कविताओं में भी नज़र आता है। आधुनिक बोध, पीड़ा, भूख, अन्याय, अत्याचार का विरोध, अंग्रेजी दास्ता का विरोध, इनके काव्य में भी है। हेमराज सुंदर की कविता में प्रगतिशीलता देखें—
“रोगग्रस्त सूरज,
अपनी बीमार रोशनी फैलाता है,
गाँव दर गाँव
शहर दर शहर
नदियों, जंगलों, पहाड़ों को,
पार करता हुआ,
हर शाम को,
उससे पहले,
कि अंधेरा उसे डस ले,
कायर बन कहीं छिप जाता है,
किसी डरपोक,
सेनापति की तरह।”
दर्द का एक दाँस्ता—’गुलमोहर खोल उठा ‘कविता में देखें—
“जिसने चट्टानों के बीच हरियाली उगाई थी,
नगीं पीठों पर सहकर, बासों की बौछार,
बहा-बहाकर लाल-पसीना,
वह पहला गिरमिटिया,इस घाटी का बेटा,
जो मेरा भी अपना था, तेरी भी अपना।”
राज हीरामन विद्रोह के कवि है। विद्रोह मॉरीशस के हिन्दी काव्य की एक शक्ति रही है। देश के भ्रष्ट नेताओं पर कवि का आक्रोश कुछ इस तरह है—
“स्वतंत्रता के पहले भी हम गुलाम थे
स्वतंत्रता के बाद भी हम गुलाम हैं
दोनों गुलामियों में फर्क सिर्फ इतना है कि—
पहले हम गोरों के गुलाम थे,
आज हम अपनों के गुलाम हैं।”
इस तरह बदलते समय में जो बदलाव भारत के साहित्य और समाज में परिलक्षित हो रहा है, वह मॉरीशस में भी। हाँ, वहाँ पर जात-पात और नाम को लेकर पांखड नहीं है, जो आज भारत में प्रबल रूप से हैं।