एक सीप, पा समंदर को
मचल उठी; इतरा उठी
पा गई वह शांति
सागर की उत्तुंग लहरों में
खुद को भुलाकर;
मिटा दिया अपना वजूद
उसकी अतल गइराइयों में डूबकर;
परंतु
गर्वोन्मत समंदर!!!
क्या समझता सीप का समर्पण?
क्यूं जानता समर्पण की अहमियत?
पटक दिया एक दिन
किनारे पे लाकर
उफ़!!!
अब कौन समझाए
उस गर्वीले को,
कि वो बेशकीमती ‘मोती’
जिसकी लालसा ये दुनिया
सदियों से सदियों तक करती है
तुच्छ सीप की कोख में ही पलती है