विज्ञान की जड़ें
उग आई है मेरे मस्तिष्क में,
हर बात क्रमबद्ध, सुव्यवस्थित
तलाशता हूँ।
चाहे फिर वो मोहब्ब्त ही क्यों न हो।
जब बातें होती हैं,
चाँद तारों को तोड़ लाने की,
या फिर बादलों में घर बनाने की।
तो टोकता है विज्ञान मुझे,
इन बिना तर्क वाली बातों पर।
जब सोचता हूँ,
आधे चाँद की गोद में बैठकर,
सो जाने की,
तो मुझ पर हँसने लगता है
मेरे अंदर का विज्ञान।
जब सोचता हूँ,
कि मैं और मेरी मोहब्ब्त घूमें,
तारों भरे आसमान में।
तो गुरुत्वाकर्षण घूरने लगता है मुझे।
जब सोचता हूँ
कि चलूँ पानी के ऊपर,
हाथों में उसका हाथ पकड़कर,
तो आर्कमिडीज का
गुस्से से भरा चेहरा याद आने लगता है।
जब उससे दूर होकर भी,
उसके करीब खुद को महसूस करूँ,
तो लगता है जैसे
न्यूटन रुठ गया हो मुझसे।
मेरे प्रेम की ऊर्जा,
जब निर्भर नहीं करती मेरे द्रव्यमान पर।
तो आइंस्टीन को होती होगी
शिकायत यकीनन।
विज्ञान ने जीवन को जितने तर्क दिए,
मोहब्बत ने उस हर तर्क को स्वीकारने से इनकार कर दिया।
की मेरी साँसें चलती हैं तुम्हारे होने से,
मैं मन ही मन कहता हूँ,
पागल ऑक्सीजन का तो ख्याल कर।
विज्ञान की जड़ें,
घेरे हुए हैं मेरे मस्तिष्क को,
लेकिन मैं जानता हूँ
इनका भरण पोषण होता है
मोहब्बत की मिट्टी से।
बस इसलिए कभी कभी बन जाता हूँ वो,
जो मैं हूँ नहीं।
और मान लेता हूँ ये बात।
की उसका दिल मेरे होने से
और मेरा दिल उसके होने से
धड़कता है।
विज्ञान और मोहब्ब्त
भले अलग हों,
लेकिन विज्ञान को मोहब्ब्त से
और मोहब्ब्त को विज्ञान से ही
समझा जा सकता है।
2.
इक मुसकराती शाम हो,
थोड़ा फुरसत, थोड़ा आराम हो,
हम भी गालिब बन जाएँगे
गर चाय का जरा इंतजाम हो।
दीमकों और गिरगिटों से
बनी नहीं कभी हमारी,
दिल साफ लेकर मिलना,
अगर कुछ भी काम हो।
अच्छे लोग, अच्छे हैं,
आज अपने अच्छे के लिए,
हम बुरे ही सही
फिर भले बदनाम हों।
किसी गरीब का घर,
सजाना हो तो याद करना।
वरना दूर से ही फिर तो
राम राम हो।
आएँगे हम भी तुम्हारी
महफिलों में यकीनन,
बस जाम का नहीं
बस चाय का इंतजाम हो।
इक मुसकराती शाम हो,
थोड़ा फुरसत, थोड़ा आराम हो।
3.
तुम जो लोगों को सताया करते हो न,
उन्हें छोटा, गरीब, अनपढ़ बताया करते हो न
अपने रुतबे के आगे अक्सर ही
उन्हें भूल जाया करते हो न
डरोगे एक दिन, उनसे डरोगे एक दिन।
जब वो उठकर कुछ ख्वाब माँगेंगे,
अपने बदले का हिसाब माँगेंगे,
तुमने जो अकसर दफन करके रखे
तुमसे उन सवालों का जवाब माँगेंगे,
तुम डरोगे एक दिन, उनसे डरोगे एक दिन।
ज्ञान को जो व्यापार कर दिया है,
लोकतंत्र को बीमार कर दिया है,
वो जो काबिल है अब सड़कों में घूमते हैं
तुमने उन्हें बेरोजगार कर दिया है।
तुम डरोगे एक दिन, उनसे डरोगे एक दिन।
जिनके हाथों में तसला है,
जीवन से लड़ने का मसला है।
वो जिस दिन आवाज उठाएँगे,
तुम्हारे महल सारे ढह जाएँगे।
तुम डरोगे एक दिन, उनसे डरोगे एक दिन।
वो सब एक दिन,
तुम्हे डराने आएँगे,
छोड़कर जख्मों का दामन
ज्ञान का साथ निभाएँगे।
तुम बाहर भले ज़िंदा रहो,
लेकिन अंदर मरोगे एक दिन।
लोगों को सताने वालो
तुम डरोगे एक दिन, उनसे डरोगे एक दिन।
4.
जब मखमली धूप भी,
चुभने लगे तुम्हें,
जब रास्ते पर चलना
बोझ लगने लगे।
जब आसमान की ओर देखकर
शिकायतें करने लगो तुम,
जब चाय की चुस्कियों का मजा
फीका पड़ने लगे।
जब किताबों के पन्नों से
अपनापन न रहे,
और जब मिट्टी को राख
समझने लगो तुम।
तो उस वक़्त जरा ठहरना
सोचना,
विचार करना,
और किसी एक पहाड़ी की चोटी में जाकर
चिल्लाना।
और कहना
जिंदा हूँ मैं।
मैं देखूँगा नए ख्वाब,
बनाऊँगा नई दुनिया।
उसमे रंग भरूँगा
अपने हिसाब से।
लिखूँगा खुद से
अपनी कहानी।
ठंडी हवा को महसूस करूँगा।
नदियों के पानी के साथ खेलूँगा।
किताबों से बातें करूँगा।
और खुद को कहूँगा
कि मैं उससे बढ़कर हूँ
जितना मैं अपने बारे सोचता हूँ।
5.
जो खो दिया अब उसको क्या टटोलते हो
तुम शायर भी न बहुत झूठ बोलते हो,
हमने रखा है यादों की गठरी को बांधकर
तुम जा कर महफिलों में इसको खोलते हो।
मैं लिख नहीं पाती, अपने दर्द को
तुम अपने दर्द को मेरे दर्द से तोलते हो
तुम शायर भी न बहुत तेज हो
महफिलों में जाकर बहुत झूठ बोलते हो।
कहते हो कि हमने तन्हा कर दिया तुम्हें,
और तुम जो हमारे इश्क़ को अकसर मोलते हो?
हम नाज़ुक हुए तुमने भी हाथ छुड़ा दिया
ये बात क्यों नहीं जाकर बोलते हो?
तुम्हारे आँसुओं से तुमने महफिलों को रुलाया,
खूब वाह वाही बटोरी खूब कमाया,
कुछ दर्द मेरे भी तो है, उन्हें क्यों नहीं खोलते हो
तुम शायर भी न बहुत झूठ बोलते हो।
खुद आँसुओं से अपना आसमान बना लेते हो,
अपनी बातों से अपना जहान बना लेते हो,
सिर्फ मुझ में बुराइयां दिखी तुम्हें?
कभी खुद को क्यों नहीं टटोलते हो?
तुम शायर भी न बहुत झूठ बोलते हो।
6.
हरचंद मुश्किलें हों,
खुदा की इल्तिफ़ात जरूरी है,
इंसान रहना है अगर
तो जज़्बात जरूरी है।
तुम सोचते हो ज़िन्दगी
खुशनुमां गुजरे,
अच्छे वक़्त के लिए
बुरे हालात जरूरी है।
गर ख्वाहिशें रखते हो तुम
अलमास बनने की,
उसके लिए भी कुछ
आफ़ात जरूरी है।
उगता हुआ सूरज
देखने की ख्वाहिश रखते हो,
पागल उसके लिए भी तो
रात जरूरी है।
हरचन्द- चाहे कितनी भी, इल्तिफ़ात- कृपा, अलमास- हीरा, आफ़ात- कठिनाइयां।