मैं चाहती हूँ किसी डूबते हुए को
बचाने की कोशिश में मेरी देह मरे,
आत्मा जीवित रहे और
किसी मदद के प्रत्युत्तर में,
अनंत की सीमा पर मेरी आवाज
क्षितिज से जा टकराए।
अंधेरे में गुम, प्रसव पीड़ा में कराहती हुई
किसी आवाज़ की टोह में
मेरी आँखों की रोशनी दूर तलक जाए।
बिन माँ के किसी बच्चे को लोरी सुनाने,
मेरी आत्मा का संगीत
ब्रह्मांड में निनाद करते हुए बहने लगे।
दुर्गम पहाड़ों की किसी ऊँची चोटी पर
जब कोई चरवाहा अपनी गाय चराने जाए,
मैं काटकर पहाड़ों को
पाट दूँ तमाम खाइयाँ,
ताकि शाम होने से पहले
वो अपने घर को पहुँच जाए।
किसी पुराने घाव से
बहती मवाद को
पोंछ सकूँ अपनी पलकों से,
हो जाऊँ मिट्टी
और किसी फूल को उगाऊँ।
तोड़ दूँ अनंत काल से,
गर्दन में कसी बेड़ियाँ
जहाँ से रेज़ा रेज़ा साँस
बड़ी मुश्किल से बहती है,
बन कर आँधी
उखाड़ फेंकू तमाम रूढ़ियाँ, बेड़ियाँ, कुप्रथाएँ।
किसी ऊँचे प्रपात से गिरते हुए
जल सी पवित्र, वलक्ष हो जाऊँ।
नदी की तेज धार से कट जाएँ
घृणा, द्वेष, अहंकार,
फट जाए खोखले हिजाब सा पाखंड।
उंगलियाँ उठें तो थामे
किताब, गुलाब, सितार।
चाहती हूँ,
शाक में नमक सा जीवन हो जाए।