समकालीन हिंदी कविताओं में मदन कश्यप काफी चर्चित और पठित कवि हैं ।आम आदमी के हक-हकूक के लिए वे पूर्ण निष्ठा और शिद्दत के साथ आवाज उठाते रहे हैं । आज सुखासीन वर्ग अपने ऐशो-आराम के लिए हर प्रकार के साधन जुटाने के लिए तत्पर है । बाजारवाद पूरी तरह हावी है आशा,आकांक्षा,चाहत,संघर्ष और करुणा का भी कोई मूल्य नहीं रह गया है । आज मनुष्य के विचार और व्यवहार में अवमूल्यन दिखाई पड़ने लगा है । औद्योगीकरण तथा उपभोक्तातावादी संस्कृति का प्रभाव केवल श्रमशील जनता पर ही नहीं बल्कि उस तथाकथित सुखासीन वर्ग पर भी पड़ा है जो सत्ता पोषित भी है । स्वार्थपरता,अर्थ लोलुपता और अनैतिक कार्यव्यापारों की ओर आकर्षण से मनुष्य अपने उद्देश्य से च्युत होता गया । तेजी से बदलते इस समाज में बाजारवादी शक्तियां अपने आक्रामक दौर में हैं । राजनीति भी भाई-भतीजावाद, क्षेत्रवाद,जातिवाद, संप्रदायगत तथा धनबल और जन बल से नियंत्रित और संचालित होती है । ऐसे गलीज़ वातावरण में जीने के लिए आम आदमी अभिशप्त है । एक गरीब और लाचार व्यक्ति जीवन जीने के लिए कम से कम और अनिवार्य साधन जुटाने में भी लाचार है । पूँजी के दलालों ने शोषण के नए-नए तरीके इजाद कर लिए हैं । मदन कश्यप अपने संग्रह “अपना ही देश” में शोषण तंत्र के इन्हीं चमचों से मुठभेड़ करते हैं । इस लोकतंत्र में आए दिन बाहुबल का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है । राजनीति की गरिमा गिरी है ।नेताओं में संयम नहीं रह गया है । वे व्यक्तिगत स्तर पर आकर बहुत ओछी, घृणित और सतही बयानबाजी करने लगे हैं जिससे पूरा लोकतंत्र शर्मसार हो गया है । अब राजनीति में सेठ – साहूकारों, दबंगों और गुंडों का वर्चस्व बढ़ गया है । सामान्य और ईमानदार व्यक्ति की राजनीतिक भूमिका बिल्कुल नगण्य है । वह बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया है । जनता भी भोली-भाली नहीं रह गई है । वह भी अपने काइयांपन से अपने स्वार्थ सिद्धि में स्वार्थी धूर्त और दबंग नेताओं के इर्द-गिर्द पूँछ डुलाती रहती है । मदन कश्यप इसी परिदृश्य को रेखांकित करते हुए नेताओं के बहरूपिया चरित्र को उजागर करते हैं –
” इस बहुरूपिया लोकतंत्र में
किसी साधारण तमाशगार के लिए
बहुत कठिन है बहुरूपिया बनना और बने रहना
जबकि निगमित हो रही है सांप्रदायिकता प्रगतिशील कहला रहा है जातिवाद समृद्धि का सूचकांक बन गई है किसानों की आत्महत्याएं
और आदिवासियों के खून से सजाई जा रही हैं
भूमंडलीकरण की अल्पना
बस केवल बहरूपिया है जो बहुरूपिया नहीं है ।
(मदन कश्यप:अपना ही देश,पृष्ठ संख्या 26)
पूरा समाज 15% पूंजी के दलालों से नियंत्रित है । सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में काफी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं । लोक जीवन के प्रति व्यक्तियों का जुड़ाव कम हुआ है । बढ़ते वैज्ञानिक संसाधनों से आपसी लगावों में कमी आई है । नित नए बदलाव की चकाचौंध में आम आदमी दिशा भ्रम हो गया है । तरह-तरह के दबाव के कारण व्यक्ति मन में कुंठा का भाव जागृत हो गया है । चेतना के अभाव में आम जन जीवन नैतिक एवं शारीरिक शक्ति संपन्नता के बावजूद भी हीनता बोध की कटु स्थिति का आभास उसकी अभिशप्त नियति सी बन गई है । वर्तमान यांत्रिक सभ्यता की भागदौड़ में तमाम विसंगतियों और विश्रृंखलताओं से ऊब-डूब करते मानव मन के समक्ष उसके अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । कला और संस्कृति भी अब अनियमितताओं से अछूते नहीं रह गए हैं । अब तो कला,साहित्य,संस्कृति तो मठों की चीजें हैं और इन पर प्रवंचकों का कब्जा या समझिए एकाधिकार ही है । इन सब स्थितियों से वाकिफ मदन कश्यप का कवि मन क्षुब्ध हो जाता है और वे कहते भी हैं –
” प्रवंचक का कोई धर्म नहीं होता
वह किसी को भी गरिया सकता है
और किसी भी मठ में माथा झुका सकता है ।
( वही -पृष्ठ संख्या 30)
ऐसा प्रवंचक सहज जीवन में जटिलता की सृष्टि करता है, और यह जटिलता सार्वभौमिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक भी है जिसके संदर्भ हमें पश्चिमी साहित्य में भी मिलते हैं ।विवेकशील व्यक्ति मन भी ऐसे माहौल में आत्मिक पीड़ा का दंश सहते हुए उसका भोक्ता बन गया है । लेकिन कवि ऐसे अनेक संघर्षों को झेलता, उसके बीच पिसता हार नहीं मानता है । जीवन के प्रति उसमें गहरा भावबोध है, लेकिन फिर भी प्रभुत्व संपन्न वर्ग बस सम्वेदनाओं का मखौल उड़ाते हैं ।’ वह गुलदस्ते वाले फूलों के प्रेमी नहीं, फूलों के प्राण हंता होते हैं ।’ यह उपभोक्तावादी संस्कृति सच्चे संघर्षशील जन मन को दिग्भ्रमित करके उनके जनजीवन के प्रांगण में अवतरित हो रही है किसी शुभेच्छा से नहीं बल्कि घुसपैठ करके । लोकतंत्र के नाम पर हिंसा,पृथकतावाद,आतंकवाद,जातिवाद, भाषावाद,प्रांतीयता,सांप्रदायिकता, रंगभेद आदि का नंगा नाच हो रहा है । जो लोकतंत्र, समाजवाद और वैज्ञानिक चिंतन का दम भर रहे हैं वे कम स्वेच्छाचारी नहीं है बल्कि उनसे कहीं चार हाथ बढ़कर ही । राजनीतिक दल अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं । विचारधारा का भी अब कोई मतलब नहीं रह गया । प्रवंचक के लिए विचारधारा का अर्थ है ‘ कुर्सी ‘ और जनतंत्र का मतलब है ‘कबीला’ । “आजकल की दुनिया में चारों तरफ लड़ाई, दंगा, फसाद हो रहा है । हिंदुस्तान में भी काफी फसाद है और तरह-तरह की बातें पेश होती हैं ऐसे मौके पर यह और भी आवश्यक होता है कि हम अपनी नई संस्कृति की ऐसी बुनियाद रखें जिसमें आज तक की दुनिया के विचार जम सकें और जब हमारे सामने पेचीदे मसले आए तो हम बहके-बहके न फिरें ।”
(सम्मेलन पत्रिका : लोक संस्कृति अंक 19 73 जवाहरलाल नेहरू) लेकिन आज जब हमारे सामने पेचीदे मुद्दे आते हैं तो बगले झांकने लगते हैं ।विवेकशील व्यक्ति मन स्थिति-परिस्थिति, घात-प्रतिघात, झूठ और सही के द्वंद में उलझकर रह गया है । असहनीय वेदना से त्रस्त कवि उस प्रवंचक के लिए कहता है –
“अहिंसा
लोकतंत्र
समाजवाद
सामाजिक न्याय
वह किसी के भी पक्ष में है
और किसी के भी पक्ष में नहीं है
(अपना ही देश,पृष्ठ संख्या-30)
समाज की यथास्थितिवादी सोच से कवि को हठ है । वह ‘बंधी हुई नाव’ की स्थिरता को लेकर चिंतित है । वह स्वयं जोखिम उठा कर अपना रास्ता बनाने का आकांक्षी है । उसे किसी की दी हुई दुनिया और विचार से परहेज है ।औरंग-ओटांग और वनमानुष की तरह हरकत करते हुए धूर्त लोग अपनी लुंज-पुंज मानसिकता की खोल से कभी-कभी बाहर आ जाते हैं । कवि ऐसी ही क्षुद्र सोच के लोगों को धिक्कारते हुए जन के बेहतर भविष्य की ओर संकेत करता है –
” दुनिया में जो कुछ बदल गया है
हम उसे बदल देंगे
अपने पथरीले हठ से
थाम लेंगे समय का रथ
और घोड़े को उड़ा देंगे उलटी दिशा में (वही पृष्ठ संख्या 35)
कवि पूरी दुनिया में एक वर्ग को ‘सबसे अलग’ देखता है,जो केवल शोषण और अत्याचार के बल पर अपनी दुकान चलाता है । धोखाधड़ी,बेईमानी,भ्रष्टाचार, घूसखोरी के इस युग में जीवन के प्रति आस्था का इजहार मात्र बेईमानी है । जिसके हाथ में शक्ति है वह अपनी झोली भरने में लगा है । संस्कृति के सभी मानवीय तत्व धर्म,नीति, मर्यादा आज के स्वार्थ प्रेरित युग में भोथरे हो चले हैं और बौद्धिक वर्ग बिल्कुल अय्याश । परिवेशगत परिस्थितियों से अद्भुत उद्दाम आवेश सच को छुपाने की कोशिश करता है । लेकिन लोग चित्त की गहरी और मार्मिक छुवन से कवि का मन संभावनाओं की ओर अर्थपूर्ण संकेत करता है —
” विजेता इस तरह नहीं
ठन-ठन आता है अपना दर्प
पराजित इस तरह नहीं
भरता है हुंकार,
हम दुनिया के सबसे अलग लोग हैं
बार-बार पीटे गए
इतनी लानतें लगी कि कई बार धूल में धँस गए
फिर दर्द झाड़ते हुए उठे
और घोषणा कि अपने आर्यपुत्र होने की । खुद को गौरवशाली इतिहास का वारिस बताया
एक खूंखार झूठ की घुरमुस से
सच को थूर-थूर कर धरती के नीचे छुपाने की कोशिश की
ताकतवर के आगे सिर झुकाया
और कमजोर को चुन-चुन कर मारा
इस तरह दिखे हम सबसे अलग
दुनिया में शायद ही कहीं हो हम जैसी कौम ।
(वही पृष्ठ संख्या 36)
मदन कश्यप अपनी कविताओं के माध्यम से मानव मन में गहरे तक उतरते हैं । ऐसी त्रासदीपूर्ण अवसाद की पीड़ा के बीच मानवीय सच को पाने के लिए उनका तन मन छटपटाता है । अपनी कविता ‘तानाशाह और जूते’ में कवि ने तानाशाह के क्रूरतम तरीकों को लेकर अपना रोष प्रकट किया है । विभिन्न प्रकार के संकटों से ग्रस्त मानव यातनामय स्थितियों में जीने के लिए बाध्य है । उसके सामने अमानवीय दृश्य उपस्थित सा हो गया है। मानवीयता की समूची सत्ता का हकदार वह तानाशाह ही स्वयं को घोषित करता है जो छल-बल से आम आदमी के हक को मारता रहता है । ऐसी दुर्दमनीय स्थिति को देख कर कवि का सहज संवेदित मन दुखी हो जाता है । जीवन के संघर्ष अंतर्द्वंद और मनोपीड़ाएं कवि को सालती हैं जिससे उसकी अभिव्यक्ति आक्रोशपूर्ण हो गई है —
” उसके जूते की चमक इतनी तेज थी
कि सूरज उसमें अपनी झाइयां देख सकता था
वह दो कदम में नाप लेता था दुनिया
और मानता था कि पूरी पृथ्वी उसके जूते के नीचे है
चलते वक्त वह चलता नहीं था
जूते से रौंदता था धरती को !
(वही पृष्ठ संख्या 40)
अनवरत संघर्ष से जूझते जन जीवन त्रस्त हो चुका है । हर घटना-दुर्घटना के पीछे जांच कमीशन, दलाली और लूट खसोट आम बात हो गई है । अब ‘सुशासन में आपदा’ आने लगी है । आपदाओं को लेकर जो प्रबंधन है वह भी तात्कालिक समस्याओं को निपटाने की अपेक्षा उसके द्वारा पहले बैठकें तय की जाती हैं, निर्णय लिए जाते हैं, उन निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए रणनीति बनाई जाती है । अधिकारियों के कार्य दल गठित किए जाते हैं । शासन के अधिकारी,कर्मचारी सुशासन में नियमानुसार होने का दावा करते हुए कहते हैं कि हम कानून तोड़कर इमदाद नहीं दे सकते हैं । आपदा प्रबंधन द्वारा प्रभावित लोगों की सरकारी स्रोतों से संपुष्ट का हवाला देकर और समस्त अधिकारियों के अनुमोदनोपरांत कार्य करने की बात करने वाले सरकारी तंत्र के कर्मचारी निकम्मेपन की हद तक गिर गए हैं । मदन कश्यप इस पूरे तंत्र को यहां इस तरह बेनकाब करते हैं —
” हमने निजी स्वैच्छिक संस्थाओं को राहत शिविर चलाने से इसलिए मना किया
क्योंकि वह जिला प्रशासन के शिविरों से अच्छा खाना दे रहे थे, अच्छी व्यवस्था कर रहे थे
इससे हमारी सरकार की छवि खराब हो रही थी
आपको समझना चाहिए ।
( वही पृष्ठ संख्या 46)
विभिन्न प्रकार की घात-प्रतिघातों से मानव मन आज टूट सा गया है । समाज में व्याप्त तनाव और विषमताओं से जन जीवन अछूता नहीं है । कवि ‘हलफनामा’ में संत्रास की भीषण दारूण स्थिति का मुकम्मल और जीवंत चित्र खींचता है । दुर्भिक्ष और दीन-हीन जन रोटी की खातिर जी तोड़ परिश्रम करता है तब भी उसे दो जून की भरपेट रोटी नसीब नहीं होती । सुखासीन वर्ग अपनी अय्याशी के लिए हर तरह के कार्य करता है क्योंकि सियासत भी उन्हीं की है और रियासत भी । जो व्यक्ति इनकी इस चतुराई या खराबियों के खिलाफ आवाज उठाता है उस पर तमाम जुल्म ढाए जाते हैं । कवि मदन कश्यप ने जागीरदाराना और जमीनदाराना हुकुमत के जोर और जुल्म जो मजदूरों और मेहनतकशों के ऊपर की गई हैं उनकी तबाहियों देखा है । उनकी कविताएं इसकी चश्मपोश गवाह हैं । सितमगारों के प्रति मदन कश्यप के दिल में दर्द मुसलसल बना हुआ है । वे हिंदी के तरक्कीपसंद कवि हैं इसलिए उनके मानस में मानव कल्याण की तस्वीर हमेशा तैरती रहती है । वे जीवन निर्वाह के मध्य आने वाली त्रासद अनुभूतियों और विकट परिस्थितियों से निपटने की बात सोचते हैं । एहतियातन मदन कश्यप मानव कल्याण हेतु हर तरह के मुआमलात में दखल देते हैं । स्त्री पुरुष के आपसी । मनःस्थितियों की भी व् गहरी तस्दीक करते हैं ,और एक बहुत महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहते हैं —
” मुझसे ज्यादा पढ़ी थी तुमने समय की किताब
फिर भी तुम्हारे कोमल मन पर
खरोंचे लगा लगा कर मैं बनता रहा ज्ञानी।
( वही पृष्ठ संख्या 47 )
अति व्यस्तता का ढोंग रचते इस हिप्पोक्रेट समय में बस समाज सेवा के नाम पर ढकोसला दिखाता है । मनुष्य के भीतर लपकते तरह-तरह की क्रिया व्यापार उसे जीवन से असंतुष्ट बना देते हैं । भूखा रोटी की तरफ लपकता है तो अघाया हुआ काम और रोमांस की ओर । समय के इन्हीं अनगिनत रूपों रंगों को लेकर जाहिर तौर पर कवि कहता है —
” पहाड़ी नदी सा उछलता-कूदता मेरा पुरुष भी
कहां कर पाता था पार
पृथ्वी से शांति स्थिर तुम्हें स्त्रीत्व को
हर बार दिला जाता था अतृप्त की रेत में बस केवल ताकत के खेल में मैं तुम पर भारी था
और ताकत भी क्या
एक होता थी जो ताकतवर दिखती थी
(वही पृष्ठ संख्या 47)
वहीं ‘उदासी सहज मानवीय संबंधों की ओर दृष्ट डाली गई है तो ‘छोटी लड़कि’ कविता में एक बच्ची की सम्वेदनाओं को मार्मिकता के साथ वर्णित किया गया है । ‘वज्र किवाड़’ नामक काव्यात्मक संवाद में जिज्ञासु मन यह जानना चाहता है कि आखिर स्त्री के लिए समाज में इतनी पाबंदियां क्यों ? कविता के अंतिम अंश में कविआशावादी ढंग से सोचता है उसे पूर्ण विश्वास है कि एक न एक दिन वह असमानता को दूर करने में जरूर सफल होगा । अंत में कवि यहां यातनामय संसार से ऊब गया है और उसका मन अकुलाने लगता है —
” बन्नी दाई बन्नी दाई
मुझे बचाओ मुझे बचाओ
मेरी आंखों पर बंधी पट्टी खोलो
मेरे अंतस पर जड़ा ताला तोड़ो
मेरा पूरा वजूद दब रहा है वज्र किवाड़ से मुझे बचाओ बन्नी दाई ?
(वही पृष्ठ संख्या 56)
‘अट्ठारह सौ सत्तावन’ में ऐतिहासिकता को उजागर करते हुए नए संदर्भों को रेखांकित किया गया है । बर्बर और आताताई लोग स्त्रियों और निर्दोषों का कत्ल करके स्वयं को गौरान्वित महसूस करते थे । पूर्वग्रह को कवि नहीं मानता वह इसी कविता में लिखता भी है–
” इतिहास का कोई अर्थ नहीं
राष्ट्र का कोई मायने नहीं
समाज की कोई अवधारणा नहीं
इस समुदायों की यादों में दुबके
अपने अपने विश्वासों को जी रहे थे
हम कुछ ऐसे जीवित थे
कि केवल मुर्दा ही हमें जिंदा मान सकते थे हमारी आंखे थी
लेकिन वह तयशुदा दृश्य ही देख सकती थीं
हमारे कान पूर्व निर्धारित बातें ही सुन सकते थे ।
( वही पृष्ठ संख्या 67)
उदासी का कोरस, चुप्पी, समय की जड़ता, बदलाव की कुरूपता, प्रतिवादियों की अभद्रता, आक्रोश, संशय,छटपटाहट को दर्ज करती कविता है तो दिल्ली में गैंडा,एक चूटीले व्यंग्य का सृजन करती है । ‘लोकतंत्र में जयकुमार’ वर्तमान राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की पोल पट्टी खोलती है तो वहीं अन्य समस्याओं पर भी गहरी पड़ताल करती हैं । निठारी एक अधूरी कविता, माफीनामा ,सलवा जुडूम, नए युग के सौदागर, निंदा से पहले आदि कविताएं संग्रह को विशिष्ट बनाती हैं । वहीं ‘अपना ही देश’ कविता में कवि जबरदस्त तंज कसता है–
” हमारे पास नहीं है कोई पटकथा
हम खाली हाथ ही नहीं
लगभग खाली दिमाग आए हैं मंच पर ।
( वही पृष्ठ संख्या 96 )
इस प्रकार हम यह देखते हैं कि संग्रह की सभी कविताएं अपने उद्देश्य में सफल हैं ।गरीबी, भुखमरी, असहमति, आत्मनिर्वासन ,सामाजिक पलायन, विफलता,मूल्यहीन संसार में जीने का एहसास, मानवी क्रूरता,करुणा विहीनता अदि स्थितियों का जीवंत चित्र इन कविताओं में मिलता है कुल मिलाकर मदन कश्यप की कविताएं विशिष्ट होने के साथ ही साथ अपने समय समाज और परिवेश की सच्ची दस्तावेज कही जा सकती है ।