1.
जीवन शब्द और रंग की चित्रकारी है
रंग तुमसे है
शब्द मैं जोड़ती हूँ
सब घुलमिलकर अहसास हो जाते हैं
सोच के समंदर में तुम उँगली से
तरंग जनमते हो
जीवन ‘जलरंग’ हो जाता है
हम-तुम मिलते हैं
जीवन के प्रतीक्षित कोरे कैनवास पर
उभर आती हैं कुछ गहरी सलेटी रेखाएँ
तुम स्नेह घुली दृष्टि से
तकते हो मेरा मुख
गहरी सलेटी रेखाएँ
सतरंगी होने लगती हैं
तुम हौले से मुस्काते हो
मुस्कान की वर्तुल रेखा
तुम्हारे अधरों से जनमकर घुल जाती है
सतरंगी रेखा में ही
तुम्हारी दृष्टि से ही सतरंगी रेखा
अब हो गई है इंद्रधनु
तुमने आकाश से एक सिंदूरी तारा माँगा है
तुम कहते हो, मेरे माथे पर सजा दोगे
कोरे कैनवास पर रंग भरते-भरते
तुमने भर दिया है जीवन मेरा
अपने रंग से
साथी मेरे
जीवन शब्द और रंग की चित्रकारी है
रंग तुमसे है
शब्द मैं जोड़ती हूँ
‘हम-तुम’
जैसे
‘जल-रंग’…।।
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2.
हमारे कमरे की खिड़की से लगा
एक हरसिंगार है
तीसरे पहर महकता है
चौथे पहर से ही
झरने लगता है
बिछ जाता है प्यार उसका
नन्हे-नन्हे सफेद फूलों सा चेहरा लिये
और धरती पर उग आती हैं
निश्छल मुस्कानें
हमारे प्यार का प्राप्य हैं ये…।
तुम कहते हो
आनेवाली बरसातों में
हम रोप देंगे कुछ और पौधे सफेद फूलों वाले
मसलन…जूही, मोगरा, बेला और चंपा
तुम रातरानी का नाम जोड़ते हो
तभी चुपके से रजनीगंधा
मेरी स्मृति में महक उठती है
मेरी सर्वप्रिय जो है
और अब ‘हमारी’
हाँ, हम तुम्हें भी रोपेंगे नन्हे पुष्प…।
तुम चाहते हो
कि हर रात के तीसरे पहर
ये श्वेत नन्हे फूल
यूँ ही मिले, खिलें, झर जाएँ
निश्तब्ध धरा की छाती पर
बन स्नेह-स्वरूप
मेरी चाहत भी इससे विरत कहाँ है
सँगी मेरे…!
मैं धरा तुम्हारी
स्नेह तुम्हारा श्वेत पुष्प सम…।
चंपई रंग वाले ये फूल
आत्मा का स्वरूप हैं
हमारी आत्माएँ ही एक हैं
इन्हीं श्वेत पुष्पों सी ही
निर्विकार हैं
सब रंगों से ऊपर है हमारे प्रेम का रँग
प्रिया मेरी…!!
तुम कह रहे थे
मैं निर्मिमेष तुम्हें तकती थी
रात तीसरे पहर में प्रवेश कर रही थी
धीरे-धीरे
और बगिया में नन्ही सी बेला-कली
मुकुलित होने लगी थी
मैंने जाना… जीवन का सार
तुम्हारा साथ है
मेरे सौभाग्य…।।
*****
3.
थोड़ा और नम करनी है
तुम्हारे अंतस की जमीन
थोड़ा और गहरा करना है
तुम्हारी आँखों का समुंदर
इसलिए ही आजकल
जरा ज्यादा बरसती हैं
मेरे आँखों के कोर पर टिकी
बदलियाँ,
थोड़ा और चौड़ी करनी है
बस बालिस्त भर
तुम्हारे सीने की माटी
कि हरिया आए
नरम दूब सी ही
हमारे नेह की क्यारी…।
बस जरा सी ही
और गहरी करनी है
तुम्हारे दुलार की गोद
कि जिसमें बैठ जाऊँ
नन्ही सी गुड़िया बन के
और बटोर लूँ
तुम्हारा सारा स्नेह
बस इसलिए
अक्सर तुम्हें देखते हुए
गहरा जाता है
मेरी आँखों का काजल…।
थोड़ा और प्रगाढ़ करना है
अपना स्नेह संबंध
इसीलिए मैंने बाँध दिया है
चाहतों का एक सूत
सतरंगी
तुम्हारी आत्मा के कोर पर…।
अगाध है विश्वास तुम पर
इसीलिये मैंने अँजुरी में
भर लिये हैं
मृदुल स्वप्नों के नन्हे बनफूल…।
स्नेह मेरे,
नई परिभाषा गढ़नी है नेह की
उस पार भी चलना है साथ-साथ
मैंने जीवन-तरी इसी विश्वास से
तुम्हारे हाथ गही है…।।
*****
4.
सोचती हूँ
कि, लिपियों को धन्यवाद दूँ
वक़्त से कहीं अधिक
इन्होंने मेरा साथ निभाया है
समय से कहीं बढ़कर
ये रही हैं
मेरे भावों के अनुकूल
शांत एकाकी पलों में
जब भी विचारती हूँ
बीता हुआ
जिया गया
भोगा हुआ
तब बार-बार समय
पिछ्ले पायदान पर ही रहा
मेरे कदम से कदम मिलाती
ये लिपिबद्ध पंक्तियाँ ही रहीं
जिन्हें कविताओं और किताबों की
संज्ञा दी गई ।
जान पड़ता है
कि मेरे अंत पर भी
जीवंत रहेगी लिपि मेरी
जब उस पार होगी जीवन-तरी
इस पार के संसार में
मेरी श्वासों को हवा में घोलती रहेंगी
यही लिपियाँ…।
तुम उदास मत होना
साथी मेरे,
ये लिपिबद्ध कविताएँ नहीं हैं
मैं रच रही हूँ
तुम्हारी उँगलियाँ थामकर चलने के लिए
लिपियोँ का एक पूरा सँसार
क्योंकि,
याद है मुझे आज तक
प्रथम परिचय पर कही वह बात
कि, अब जो आ गई हूँ
तो जाऊँगी नहीं
एकाकी छोड़कर तुम्हें…।
प्राण मेरे…!
मैं तुम्हारे स्वर, लय, गति, दृष्टि
श्वास और नि:श्वास में शामिल रहूँगी
तुम्हारी आत्मा का कोष्ठ
मेरा ही रहेगा…।।
*****
5.
उसने कहा
दिन डूबे मिलना
मौलश्री की छाँह में
जहाँ हरियाई छाँह के झुरमुट में
खंजन और गौरैया के झुंड
करते हैं कोलाहल
बतियाते हैं एकमेव स्वर में…।
उसने फिर कहा
साँझ ढले मिलना
नीली नहर किनारे
काँस के सफेद फूल
जब मंथर गति से
घोलते हैं कोमलता
साँझ के धुंधलके मे
और एक जोड़ा
पाखी का
भरता हो उड़ान
अपने घोंसले की ओर…।
वह कहता रहा
रात जब उठान पर हो
मिलना गंगा किनारे
चांदी सी रेत पर
जहां चंद्रकिरण बनाती है
रेखाचित्र कोई
फिर-फिर मिटाती है स्वयं ही
मिलना तुम नन्ही तरी पर
हम लहरों में चलेंगे
दूर तक
पानी के दर्पण में
निहारेंगे
अपना युगल-बिंब…।
वो मिले
गोधुलि की बेला में
संधिनी जो दिन रात की थी
उसकी बातों में
महक रही थी मौलश्री
बाँहों में नीली नहर की सारी शीतलता
अपनी गहराई के साथ
उमड़ आई थी
उसकी मुस्कान के रजत हास से
द्विगुणित थी चंद्रकिरण की प्रभा
वो मिले तो
दो जोड़ा आँखों में
मचल आई गंगा की धार
कोर झरे बूंदों में
समा गई पवित्रता सारी
प्रेम उनकी प्रकृति में
रचा-बसा था
जाने कब से
प्रकृति उनके प्रेम में यूँ घुल गई थी…।।
*****