1.
सत्यम को किसी चोर, उच्चक्के की भांति कॉलर खींचते हुए लाकर उनकी ओर धक्का देते हुए दारोगा महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘लीजिए संभालिए…आप ही हैं इस पगला के पिता सरलु मिसर…?’’
सत्यम की यह दुर्दशा और उसके लिए प्रयुक्त ‘पगला’ संबोधन सुनकर सरलु मिसर को कुछ देर के लिए मानो सन्निपात मार गया। प्रतिरोध का भयंकर भूचाल उठा, परंतु अपने दालान पर पहली बार पुलिस और इतनी भीड़ को देखकर किसी तरह अपने आप को जज्ब किए, चुप्पी साधे सिर्फ सुनने और टकटकी लगाकर देखने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे थे। वे भौंचक किसी तरह सत्यम को संभालकर चौकी पर दीवार से टिकाकर बिठाया। दरोगा तबतक घूरते हुए सामने वाली कुर्सी पर अपने आप पसर गया।
दारोगा ने पुलिसिया भाषा में समझाते और चेताते हुए कहा, ‘‘मास्टर साहब कई लोगों ने आपके बारे में बताया कि आप पढ़े-लिखे, सीधे और समझदार आदमी हैं किंतु आपका बेटा ऐसा कैसे हो गया?… मेरी बात को समझिए…आपका यह पगला, झक्की बेटा थाने में आकर जो बात कह रहा था, हम अगर उसको सच मानकर कार्रवाई कर दें तो यह सीधे मर्डर केस के दफा 302 में जीवन भर के लिए जेल में सड़ जाएगा।’’
भीड़ की उत्सुकता को देखकर चुपचाप कोने में निस्पृह, स्याह, नीम बेहोशी की हालत में दीवार में लगकर बैठे सत्यम की ओर अपनी लाल-लाल आंखें तरेरते दारोगा आपे से बाहर हो रहा था, ‘‘आप ही पूछिए, पूछिए ना इससे, यह थाने में क्या बक-बककर रहा था…कोई संतुलित दिमाग वाला आदमी इस तरह अपने ही पांवों में कुल्हाड़ी मारता है क्या?…हम इसको खूब समझाए हैं और नहीं माना तो धमकाकर कहे हैं, कि तुमको लॉक अप में बंद कर देंगे, तो उल्टा जवाब देता है कि…अगर हम भी दोषी हैं तो हमको भी बंद कर दीजिए…अगर आप कार्रवाई नहीं कीजिएगा तो हम सीधे एस.पी. साहब के पास जाकर सारी बात बता देंगे…इसको पागल नहीं कहिएगा तो क्या कहिएगा…!’’ और किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े सरलु मिसर को निरखने लगा।
बनौगा में भी सबको पता है कि पुलिस जिसे समझाना कहती है वह आम लोगों के लिए धमकाना है, गरियाना है। जिसे धमकाना कहती है वह धकियाना, लतियाना और पीट-पीटकर पसार देना। जिसके साफ चिन्ह सत्यम के सूजे रक्तिम चेहरे, लाल आंखों, नाक के नीचे दाहिने ओर ताजा कटे का निशान, जगह-जगह रक्तिम मटमैली खरोचों और कपड़ों पर पड़े धब्बों पर दिख रहे थे। दारोगा ने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही अलग से गिलास के रहते हुए भी तांबे के बड़े लोटे में ही मुंह लगाकर भर मुंह पानी भरा। तबतक भीड़ ने अनुमान लगाया कि पूरा पानी घटघटाकर पी जाएगा। किंतु नहीं, पानी पूरे मुंह में हिलकोरते हुए द्वार की ओर भुरकुच दिया। पुनः खंखारकर लसलसे गुटखे को थूका और एक ही श्वांस में लोटा साफ कर दिया। सामने खड़े अधिकांश लोगों को मुंह में हिलकोरने की अदा से ही भान हो गया था कि यह इधर ही भुरकुचने वाला है, इसलिए साइड हो गए फिर भी कइयों पर छींटे पड़ ही गए परंतु उन्होंने तवज्जो नहीं दी और फिर यथास्थान पर आ जमे क्योंकि गांव में घुसते ही सरलु मिसर एवं सत्यम पर दारोगा ने जो भुरकुचना प्रारंभ किया था और उनमें जो उत्सुकता और रोमांच का संचार किया था उसके सामने यह कुछ नहीं था। यह तो पानी की छींटा था, तुरंत मिट जाने वाला।
दारोगा ने डकार मारते हुए अपनी दयालु प्रवृत्ति को प्रकट करते हुए कहा, ‘‘…देखिए, आपका यह इकलौता, परिवार बच्चों वाला है और इस बुढ़ापे में आप मर्डर के केस में कहां-कहां थाना अदालत और जेल का चक्कर काटिएगा, इसलिए मुझे दया आ गई और हम इस दुपहरिया में इसे साथ बिठाकर आपको एक नेक सलाह देने आए हैं कि इसको कुछ दिनों के लिए कांके (रांची) मेंटल हस्पताल में भर्ती करवा दीजिए…।’’
सरलु मिसर के चेहरे पर उमड़े बैचेनी के भावों को देखकर लगा कि वे इस बात पर तो अवश्य प्रतिक्रिया देंगे उनके आंखों, दोनों जबड़ों और होठों पर हरकत भी हुई परंतु गले में एक विचलन के साथ सबकुछ यथावत हो गया वे सिर्फ थूक घोंटकर रह गए।
कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर दारोगा तैश में आकर बोला, ‘‘नहीं तो घर में बांधकर रखिए।’’
अंत में जाते-जाते दरवाजे पर जमा हो आई भीड़ के सामने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘मिसर जी, चुप्पी मारने से नहीं होगा…अगर यह दुबारा थाने या किसी सरकारी कार्यालय में जाकर वहां के काम में खलल डाला तो हम इसकी पगलपनी का अपने तरीके से ऐसा इलाज करेंगे कि…!’’ महेंद्र यादव का कहने का खास मकसद था कि यह आगे एस.पी. साहब के पास या अदालत भी जाने का प्रयास न करे।
‘‘हम आपको एक बार फिर कर जोड़कर कहते जा रहे हैं कि इसको कांके में भर्ती करवा आइए।’’
निस्पंद पड़े सत्यम को घूरते, बुलेट पर सवार हो किक मारने से पहले भीड़ की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘इसका इस तरह खुलेआम घूमना किसी के सेहत के लिए अच्छा नहीं है। न समाज के लिए, न कानून व्यवस्था के लिए।’’ यह कहते हुए उसने अपने बाजुओं और चौड़ी छाती पर, आगे निकले पेट को नजरअंदाज करते नजर फेरी, साथ ही मोटे, लकदक तोंदिले हीरा तिवारी की सेहत भी उसके जेहन में उभर आई। वह जोर से बुलेट में किक मारकर भटभटाते हुए मिठकाही आम पेड़ पार कर गया।
इधर गांव के सरलु मिसर के पड़ोसी भाई-बंधु जो अभी तक चुप्पी साधे दारोगा की बातों को तन्मयता से सुन रहे थे, पूरे जोश के साथ वहीं पर सत्यम के इलाज के लिए नेक सलाहों की किक मार-मारकर जो भटभटाना प्रारंभ किया वह उनके लाख न चाहते हुए भी चलता रहा। इस समय सरलु मिसर को अपनी जीवनसंगिनी यशोमती देवी की कमी काफी खल रही थी, अभी अगर वह होती तो ऐसी गिन-गिनकर सुनाती कि सब बिनबिनाते हुए भागते। उन्होंने निर्लिप्त, निश्चेष्ट पड़े सत्यम को समेटकर सहारा देते हुए उसके कमरे में पहुंचाकर दलान का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया, बाहर की आवाज अब कुछ कम हो गई परंतु अपने अंदर की आवाज मुखर हो गई, दिमाग और बेचैन हो गया। कानों में बार-बार गूंजने लगी, ‘‘सत्यमा पगला गया है…इसको कांके ले जाओ…पागलखाने में भर्ती कराओ…’’
सत्यम को गांव के कुछ लोग बचपन से ही बकलोल मानते हैं, परंतु अब अधिकांश बकलोल से पागल मानने लगेंगे और खुलेआम कहने लगेंगे ऐसा कम से कम सरलु मिसर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। प्रारंभ में अगर किसी को बकलोल कहते सुन लेते तो थोड़े तैश में आकर यही समझाते कि, ‘‘मेरा बेटा तो बिल्कुल मुझ पर गया है। चेहरे-मोहरे से लेकर पढ़ाई-लिखाई, यहां तक कि विचारों तक। जिस तरह मैं उस जमाने में काफी मेहनत करके भी कभी थर्ड डिवीजन से ज्यादा नहीं ला पाया। उसी तरह मेरा बेटा भी ईमानदारी से हमेशा काफी मेहनत-मशक्कत करके भी सैकेण्ड डिविजन से ज्यादा नहीं ला पा रहा है। वह जमाना कुछ और था जब मैट्रिक में थर्ड डिवीजन और शिक्षक ट्रेनिंग के बूते घर बैठे मुझे मास्टरी मिल गई। अब जमाना दूसरा है जब अच्छे-अच्छों को सरकारी नौकरी मिलना भगवान मिलने के बराबर है। फिर भी सत्यम क्या इसलिए बकलोल है कि जब मैट्रिक बोर्ड परीक्षा तक में खुलेआम चोरी चल रही थी इसने नकल करने से न सिर्फ साफ मना कर दिया बल्कि साथ बैठे संगी साथियों को अपनी कॉपी से नकल करने भी नहीं दी। गांव के लुच्चे-लपाडों के संग दिनभर ताश-जुआ नहीं खेलता, चोरी-राहजनी नहीं करता, उनके संग दूसरे घरों के बहू-बेटियों की बदनीयती से ताक-झांक नहीं करता, यहां तक कि उनको नजर उठाकर देखता भी नहीं। क्या सत्यम इसलिए बकलोल है कि घर में अपनी पढ़ाई और घर के कामों में अपनी मां, बहनों के साथ मशगूल और खुश रहता है।’’
फिर आगे वह यह दावा भी करते कि, ‘‘हम अपनी जिंदगी में ही अपने बेटे के लिए इतना कुछ कर जायेंगे कि वह कभी कोई गलत रास्ते पर नहीं जाएगा। …हां…हां मर जाएगा पर गलत रास्ते पर नहीं जाएगा यह मेरे परिवार के संस्कार में है ही नहीं।’’ चलो बकलोल तक तो वे फिर भी बर्दाश्त कर रहे थे परंतु अब उनके मासूम बेटे को लोग खुलेआम पागल कहने लगें तो वो इस उम्र में अपने स्वभाव के विपरीत परेशान व आगबबूला न हों तो क्या करें।
सरल मिश्र या सरलु मिसर के बारे में यह कहना मुश्किल है कि नाम के अनुरूप उनका स्वभाव इतना सरल हो गया या उनके पिता ने उनके स्वभाव को देखते हुए यह नाम दिया था। उनकी अम्मा अपनी सहूलियत के हिसाब से उन्हें सरलु कहने लगी, परंतु गांव के कुछ लोग उन्हें पीठ पीछे शुरू से ही सड़लु मिसर कहते हैं। उन्होंने अपने बेटे का नाम सत्यम रखा, जिसे उसकी अम्मा प्यार से कभी-कभार सन्टु कह देती तो वे तत्काल कहते, ‘‘नहीं…नहीं नाम मत बिगाड़ो, नाम बिगड़ जाने से आदमी का पूरा व्यक्तित्व बिगड़ जाता है।’’ उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि इस जिंदगी में कभी पुलिस और थाने का भी सामना करना पड़ेगा। उन्होंने तो अपना पूरा गृहस्थ जीवन, मास्टरी और छोटी-मोटी खेती की बदौलत न ‘उधो से लेना न माधो को देना’ वाली राह पर चलनेवाला सीधा-सरल जीवन चुना था। उनकी रुटीन सुबह पांच बजे से खेत-आहर की तरफ दिशा-फिरात जाने और लौटते समय खेतों-खलिहानों के छोटे-मोटे काम करते अपने में ही आनंदित होते हुए आने से होता। कुछ देर तक बच्चों को खुद ही पढ़ाते और कुछ चिंतन-मनन कर नहा-खाकर जैसे ही स्कूल के लिए तैयार होते अठबजिया लोकल का समय हो जाता। उससे रोज मधुपुर जाना और पांचबजिया से लौटकर सीधे घर आना। यह संग-साथ कोयले इंजन की धुक-धुक, छुक-छुक से प्रारंभ होकर डी.एम.यू की गों-गों करती गुर्राहट रफ्तार और ई.एम.यू.की तूफानी सांय-सांय प्रारंभ होने तक चली।
कोयला इंजन के साथ यही था कि वे अगर खाना भी खा रहे होते या जाने के लिए धोती-कुर्ता बदल रहे होते तो पता चल जाता कि वह पगला बाबा क्रासिंग पार कर रही है। वे भी जल्दी से बगान को पार करते। पहले मुख्य चौड़ा रास्ता अवधेश राय के बगान के अहाते के किनारे से था। एक तरफ अहाता दूसरी तरफ हरी-भरी खेतों का विस्तार। परंतु कुछ बिगड़े लोगों ने जिनमें उनके रिश्ते का भतीजा नागेश प्रमुख था। पहले बगान के बीच से दीवार के कुछ ईटों को हटाकर एक छोटा रास्ता बनाया और देखते-देखते दो-चार दिनों में ही उसे इतना बड़ा कर दिया कि वही मुख्य रास्ता बनने लगा। पहले उन्होनें आने-जाने वालों से टोका-टोकी की। परंतु अब तो उनके जैसे एक-दो लोगों को छोड़कर कोई थोड़ा घूमकर जाने वाले रास्ते से जाता ही नहीं। सरलु मिसर का मानना है कि इंसान को हमेशा सरल, सहज, परंतु उचित रास्ते पर ही चलना चाहिए। हां, इसमें थोड़ी बहुत कठिनाइयां भले आती हों पर अन्ततः इसका परिणाम सबके लिए शुभाशुभ होता है। हलांकि अब इस रास्ते को नागेश उसके किनारे स्थित अपने खेत में मिलाने के चक्कर में उसे एकदम संकरा एवं उसपर कहीं से लाकर नागफनी का हरा पौधा भी रोप दिया ताकि नागफनी धीरे-धीरे फैलता जाए और लोगों को इस संकीर्ण राह पर भी चलना मुश्किल होता जाए और वह रास्ते का नामोनिशान मिटाकर उसे पूरी तरह अपने खेत में मिला सके। अब नहीं के बराबर ही लोग इस रास्ते से गुजरते हैं परंतु फिर भी सरलु मिसर मानते कहां हैं। अभी भी इसी रास्ते से बच-बचाकर निकलते हैं। कौतनियां नदी के पहले ही धोती ठहुने से उपर समेटकर, जूते को हाथ में उठा, नदी उसके बाद हरे-भरे खेतों का एक बहियार पार करते हुए मुख्य रास्ते पर आने से पहले वे धोती ठीक करते हैं। बायीं ओर पहाड़ी पर बने शिवमंदिर को वहीं से हाथ जोड़े सिर झुकाकर प्रणाम करने के बाद पांव झाड़कर जूते पहनते हैं फिर द्रुत गति से रोहिणी में प्रवेश कर पलक झपकते ही स्टेशन के अंदर दाखिल हो, अठबजिया पर सवार होकर ही दम लेते हैं।
कई बार कुछ दूरी से स्टीम इंजिन को बार-बार सीटी मारते, धुकधुकाते, इठलाते, दम मारते धुएं के फव्वारे छोड़ते दूर से ही देखते और कहते, ‘‘हां, हां तुमको लेट हो रही है; चलो न हम आ ही तो रहे हैं। हम तुमको नहीं छोड़ेंगे।’’ उसके साथ-साथ कभी लपकते तो कभी भागते हुए उस पर सरपट सवार हो जाते। क्या मजाल! कभी वह इनकी अनदेखी कर निकल गई हो, परंतु सरकार की नीति में बदलाव के कारण उसने उनका वर्षों का साथ छोड़ दिया। स्टीम इंजिन का साथ क्या छूटा लगा मानो इस जीवन का बहुत कुछ पीछे छूट गया। डी.एम.यू के आने पर तो प्रारंभ में कई दिन तो वह उसे पकड़ ही नहीं पाए क्योंकि उसपर उनका रुकने, रूठने और पुचकारने का असर नहीं चला। अंत में उनको अपनी धरी-पड़ी पुरानी एच.एम.टी.जनता घड़ी का सहारा लेना पड़ा। तब जाकर कहीं वह कंट्रोल में आई, किंतु अभी इससे अपना तारतम्य ठीक से बिठा भी नहीं पाए थे कि सांय-सांय करती ई.एम.यू.आ गई। शुक्र था कि इसी बीच सेवानिवृत्त होने का समय आ गया। अच्छा हुआ कि सेवानिवृत्त हो गए क्योंकि इसी दौरान उन्हें लगा की सिर्फ रेल की रफ्तार ही नहीं बढ़ी, पूरा जमाना ही एक अंधी दौड़ में किसी अंधकूप की ओर सरपट भागने लगा है, जिस पर उनके हांक-दाब, प्यार-मनुहार का कोई असर नहीं हो रहा था। नई सदी जो आने वाली थी!
कोयला इंजन वाली अठबजिया से लेकर ई.एम.यू. सफर के मध्य इधर घर में धर्मपत्नी तीनों बच्चों को भी खिला-पिलाकर स्कूल भेजती रही। छोटी-छोटी मनोकामनाओं के लिए व्रत-उपवास रखने के साथ-साथ दिन भर घर से लेकर खेत-खलिहानों में मजदूर-बनिहार के साथ घर-गृहस्थी के सारे कामों को अकेली निपटाती रही। हमेशा नुकसान पहुंचाने को तैयार गोतिया-भाइयों से लोहा लेती और उसके कारण कभी-कभार दूसरे के उकसावे पर सरलु मिसर के गुस्से को झेलती भी रही। बीच-बीच में तैश में आकर चेतावनी भी देती कि ‘‘…हम पर जितना गुस्सा होना है होते रहिए, आपका जो जीने का ढंग है उसके कारण हमरा मरने के बाद, आपका जितना दुलरुआ भाई-भतीजा सब बना फिरता है न, सब आपका जीना हराम नहीं कर दे तो हमरा नाम पर बाहर दालान में एक ठो जुत्ता टांग दीजिएगा।’’ इसी दौरान बड़ी बेटी रीता ने मैट्रिक की परीक्षा दी और रिजल्ट आने से पहले गृहस्थ घर और होनहार वर देखकर कुछ पी.एफ. से और कुछ पत्नी द्वारा अबतक जोड़े गहनों, बर्तनों की बदौलत खुशी-खुशी अपना घर बसाने विदा कर दिया। सत्यम के इंटर की परीक्षा से पहले पत्नी यशोमती देवी को दिल का पहला दौरा पड़ गया। अब उनकी एक ही रट होती, ‘‘संटुआ का ब्याह कर दीजिए हम अपनी जिंदगी में इसका घर बसा देंगे।’’ नतीजतन सत्यम का भी ब्याह उसके साइंस इंटर थर्ड डिविजन रिजल्ट आने के पहले सुंदर, सुकोमल, सुशील मैट्रिक सेकेंड डिवीजन पास बहू ‘जयंती’ घर आ गई। बेटे बहू के मधुर सद्प्रयास से उन्हें फर्स्ट क्लास गोलू-भोलू पोता भी ब्याह के ड़ेढ साल के अंदर मिल गया। घर गृहस्थी अब बहू सहेजने लगी, घर पहले से ज्यादा संवरता गया और यशोमती देवी दिल की बीमारी से छीजती चली गई। सरलु मिसर के मास्टरी से सेवानिवृत्ति के एक सप्ताह पहले ही बैशाख की दोपहरी में यशोमती देवी को अचानक पेट में जलन और सीने में दर्द उठा, हालत खराब हुई और जसीडीह पगला बाबा हस्पताल पहुंचने से पहले ही इस संसार के जंजाल से सेवानिवृत्ति ले ली। डॉक्टर ने कहा कि हार्ट अटैक था।
सरलु मिसर को जबरदस्त सदमा लगा। अब वे दोहरे अकेलेपन से घिर गए। एक तरफ मास्टरी से सेवानिवृत्ति और दूसरी तरफ सेवानिवृत्ति के बाद अपनी जीवनसंगिनी के संग बाकी समय आराम से साथ गुजारने और चारों धाम समेत कई यात्राओं के सपने संजोए थे वे सब अधूरी रह गईं। फिर भी उन्होंने अपने आप को संभाला उनका समय अब पोते परम और खेत-खलिहान संग बीतने लगा। परम तो आहट पाते ही कि बाबा कहीं निकलने वाले हैं मचलने लगता और उनपर अपनी सवारी गांठ लेता, वह तो उन्हें दिशा मैदान भी अकेले नहीं जाने देता। खेत-खलिहान में तो ऐसी-ऐसी हरकतें करता कि सभी लोट-पोट हो जाते और वे उसी में रमे रहना चाहते परंतु अभी भी दो चिंता उनपर सवार थी, एक तो छोटी बेटी सुनीता का ब्याह और दूसरा सत्यम के लिए रोजी-रोजगार की व्यवस्था, जिसे वे रिटायरमेंट के बाद मिले पैसे से निबटाकर सही अर्थों में रिटायर्ड हो जाना चाहते थे। एक अच्छे घर में सुनीता का ब्याह तो वे अपने कुछ अच्छे रिश्तेदारों और दहेज देने में बरती उदारता के कारण जल्दी ही करके मुक्त हो गए परंतु सत्यम की रोजी-रोजगार की चिंता उन्हें परेशान करने लगी क्योंकि सत्यम के लाख कहने पर भी न तो उनको यह विश्वास था कि योग्यता के बलबूते प्रतियोगिता के आधार पर उसे नौकरी मिलने वाली है और न ही चार बिगहे खेती की बदौलत घर परिवार चलने वाला। उसके सीधेपन के कारण किसी धंधे-व्यापार में भी वह सफल हो पाएगा इस पर भी उन्हें शंका थी। इसी कारण वे अपने साथियों तथा पढ़े-लिखे हित-कुटुंबियों से जमाने के हिसाब से सलाह लेकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सत्यम को कोई रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलवा दिया जाए ताकि नौकरी मिलने में आसानी हो।
देवघर बस स्टैंड से निकलते हुए वे यही सोचते हुए नजर बचाकर निकल रहे थे कि कहीं वे दिख न जाएं परंतु वही हुआ जिसका डर था सामने से हीरा तिवारी अपनी दुकान की ओर आते हुए टकरा ही गए और भारी-भरकम पेट के कारण पांव छूने के प्रयास में घुटने से नीचे ठहुना ही छूते हुए पूछा, ‘‘किधर सुबह-सुबह जा रहे हैं बाबूजी?’’
उनको खुश रहने का आशीर्वाद देने और प्रश्न का जवाब देने से पहले ही हीरा तिवारी चालू हो गए, ‘‘बाबूजी आप यहां आकर भी बिना भेंट किए, बिना चाय-नाश्ता किए कैसे चले जा रहे हैं, आपकी भतीजी हमेशा आपको याद करती रहती है, कहती है कि चाचा बेचारे अब चाची के न रहने के बाद कितने अकेले हो गए होंगे…आप तो कभी अब घर की तरफ आते भी नहीं। आखिर बेटी-भतीजी में क्या अन्तर है? और हम थोड़े ही भूले हैं कि हमारी शादी में आप कितना सहयोग किए। आप नहीं होते तो क्या शादी हो पाती…अपने सारे सगे संबंधियों को खाली भोज-भात खाने से मतलब था कौन चचेरा चाचा इतना करता है…इस बात को आपकी भतीजी हमेशा याद करती रहती है और कहती है कि असली मां-बाप तो आप ही लोग हैं।…आप ही देखिए न, हम अपना साला नगेशवा के जिंदगी बनाने के लिए कितना उसे सिखाए-पढ़ाए दुकान लगाकर दिए, परंतु वह उसी में चोरी करने लगा…एक नंबर का नमकहराम निकला…आज क्या हुआ दिन-भर इधर से उधर दलाली करता फिरता है। सुनते हैं आपसे भी दुश्मनी रखता है परंतु आप चिंता मत कीजिए सब बाबा भोला देखते हैं आपका वह कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा…।’’
इसी बीच हीरा तिवारी का गुमटीनुमा दुकान आ गया। हीरा तिवारी ने उन्हें सामने बेंच पर बिठा दिया और खुद उंचककर दुकान की गद्दी की ओर बढ़े।
सरलु मिसर को यही समय ठीक लगा कि इसी दौरान कुछ जवाब देकर यहां से निकलें उन्होंने कहा, ‘‘बात दरअसल यह है कि अब हमको एक ही चिंता है कि सत्यम कोई काम-धाम का लाईन पकड़ ले, इसलिए आज हम कोई कम्फ्यूटर इंस्टीट्यूट है यहां…क्या कहते हैं उसका नाम…हां ब्रेनवेयर। वह कह रहा है यहां से कोर्स कर लेने के बाद कोई अच्छी जगह नौकरी भी दिला देता है। वहीं एडमिशन का बात करने जा रहा था…फीस तो थोड़ा ज्यादा है, साठ हजार के करीब लेकिन क्या करें कोई अच्छा लाईन धर ले तो ठीक रहे…अब सरकारी नौकरी कहां आसानी से मिलती है…।’’ नागेश कथा को उन्होंने जानबूझकर नहीं छेड़ा क्योंकि उन्हें डर था कि पहले कई बार की तरह इस बार भी वे उसके लिए क्या-क्या किए और उसने किस तरह इन्हें धोखा दिया इसी में आज का भी पूरा समय ले लेंगे और वे समय से सत्यम के पास नहीं पहुंच पाएंगे।
तबतक नौकर ने उनके हाथ में चाय की प्याली थमा दी, हीरा तिवारी भी अपनी गद्दी पर जम गए पर साठ हजार का नाम सुनते ही चौंककर गद्दी समेत हिल गए, शुक्र था कि उनके हाथ में चाय का भांड नहीं था नहीं तो छलककर पूरा गिर गया होता। हिले इसलिए नहीं कि इनका इतना पैसा इसमें जा रहा है बल्कि इसलिए कि इसमें से उसे कुछ नही मिल रहा है। पैसा इसी में जाता पर पहले पता चल जाता और कमीशन मिल जाता तो उतना परेशान नहीं होते।
अपने को संयत किया और बोल पड़े, ‘‘क्या बात करते हैं साठ हजार? साला सब कंप्यूटर ट्रेनिंग के नाम पर लूट मचा रखा है…आखिर है क्या उसके पास चार ठो कंप्यूटर और फीस…साठ हजार। क्या गारंटी है कि साल भर बाद नौकरी मिल ही जाएगी?
सरलू मिसर ने कहा, ‘‘सत्यम बता रहा था कि अब तक जो भी बैच कोर्स करके निकला है करीब-करीब सबको कहीं न कहीं नौकरी मिल गई है और इसको भी विश्वास है कि कहीं न कहीं मिल ही जाएगी और नहीं भी मिली तो क्या करेंगे…सत्यम ऐसा चालू दुनियादार है नहीं कि अपना कोई काम-धंधा करे यह कोर्स करके कोई नौकरी पकड़ लेगा तो बाकी खेती-बाड़ी के बलबूते जीवन में कोई परेशानी नहीं आएगी…हां थोडी फीस ज्यादा है देखते हैं बात करके शायद कुछ कम कर दे!’’
हीरा तिवारी- ‘‘आप कैसे समझते हैं कि सत्यम कुछ नहीं समझता है? वह अब परिवार बच्चे वाला आदमी हो गया है, यहां वह दुकान में आता रहता है, हमसे हर तरह की बात करता है और हम उसको दुनियादारी समझाते रहते हैं…आप ही सिर्फ उसको अभी भी दूधपिवा बच्चा समझते हैं…हमरे बिरुआ और मिठुआ कौन उससे बड़ा हैं लेकिन दोनों अलग-अलग होटल और मिठाई की दुकान चला रहा हैं कि नहीं? काहे कि हम जैसे ही देखे पढ़-लिखकर ई लोग कुछ करने वाला नहीं है तो झूठे पैसा काहे फेंके, और तुरंत काम-धंधे में लगा दिए।’’
हीरा तिवारी ने बात का सिरा अभी भी नहीं छोड़ा, ‘‘मान लीजिए एतना-एतना पैसा देकर साल भर या दो साल के बाद चार-पांच हजार का नौकरी दिला ही दिया तो उसके लिए उसको दिल्ली, कलकत्ता, बंबई और पता नही कहां जाना पड़े…यहां तो नौकरी मिलने से रहा। एक बेटा है आपका फिर कैसे चलेगा यहां का घर परिवार? आप कैसे रहिएगा बुढ़ापा में अकेले और वह इतने कम पैसे में कैसे चलाएगा अपना परिवार? हमारे हिसाब से तो यहीं रहकर कुछ अपना काम-धंधा भी करे और घर-गृहस्थी भी देखे यही ठीक होगा।’’
हीरा तिवारी ने अपना बनियौटी दिमाग इस्तेमाल कर दिया और सरलु मिसर भी सोचने को मजबूर हो गए तबतक हीरा तिवारी का छोटा बेटा मिट्ठू भी वहां आ गया उसने उनका पांव छुआ उन्होंने सोचते-विचारते ही सदा खुश रहने का आशीर्वाद दिया।
सरलु मिसर ने कहा, ‘‘आप बात तो ठीक ही कह रहे हैं परंतु हमको विश्वास नहीं होता है कि वह व्यापार के फेर-पांच को कभी समझ पाएगा और कर पाएगा!’’
उसी बीच सत्यम पहुंच गया साइकिल से उतरकर थोड़ा झुंझलाते हुए धीरे से बोला, ‘‘दादा आप आए नहीं हम इंस्टीट्यूट में फार्म भरके आपका तबसे इंतजार करते रहे…अब चलिए…’’
उन्होंने कहा, ‘‘हम आ ही रहे थे यहां उसी के बारे में फूफा से कुछ बातें होने लगी, तुम भी इनकी बात को सुन लो फिर चलेंगे।’’
हीरा तिवारी ने सब बातें विस्तार से उसे समझाया और अंत में गंभीर होते हुए कहा, ‘‘हम भी यहां बैठकर दुनिया देखते हैं, मान लो तुमको कहीं बाहर नौकरी मिल भी गई तुम अकेले कैसे रहोगे घर-परिवार को छोड़कर और तुम्हारे पिताजी कहां जायेंगे इस उम्र में तुम्हारे साथ रहने। यहां का पूरा घर गृहस्थी का क्या होगा? पूरी दुनिया यहां आती है बाबा भोला से रोजगार मांगने और तुम जाओगे परदेश नौकरी करने, इसलिए हम कहते हैं यहीं बाबा नगरी में कुछ करो और अपने घर में आराम से रहो।’’
सत्यम बोल पड़ा, ‘‘लेकिन यहां करेंगे क्या फूफाजी?’’
बीच में मिट्ठू बोल पड़ा, ‘‘एक ठो टैंपू (ऑटो) निकाल लो मामू।’’
सरलू मिसर सुनकर चौक गए वे और सत्यम दोनों एक दूसरे को आश्चर्य से देखने लगे। इतने में ही हीरा तिवारी ने टोका, ‘‘ठीक ही तो कह रहा है मिठूआ…आप अभी कंप्यूटर कोर्सवा के लिए साठ हजार देने जा रहे हैं उससे क्या होगा आप जान ही गए हैं…अगर उसी साठ हजार में और साठ-सत्तर हजार मिलाकर अगर टेंपू निकाल लेते हैं तो रोज इस सावनी मेला में कम से कम 500 की कमाई है। एक साल के अंदर गाड़ी का पैसा वसूल हो जाएगा।’’
सरलू मिसर बोल पड़े, ‘‘लेकिन गाड़ी चलाएगा कौन? गाड़ी-छकड़ा का लाईन इसके लिए ठीक नहीं है…यह नहीं कर पाएगा इस तरह का काम।’’
हीरा तिवारी बोल पड़ा, ‘‘काहे नहीं कर पाएगा…? आप ही बताइए, हम शादी के बाद यहां पर आप ही की सहायता से एक गुमटी लगाए थे…आज उसी के बल पर हमारे पास एक होटल, एक मिठाई की दुकान, देवघर में दो-दो किता मकान और दो-दो जगह जमीन हैं…। जब इससे छोटा मिठुआ इतना बड़ा मिठाई का दुकान चला सकता है तो सत्यमा?….’’
सरलू मिसर ने दखल दिया, ‘‘अरे यह नहीं चला पाएगा, इसने अभी घर के बाहर के दुनिया को देखा ही नहीं है।’’
हीरा तिवारी- ‘‘इसका चिंता आप हम पर छोड़ दीजिए…इसको हम एक महीना में ट्रेंड कर देंगे…फिर भी नहीं कर पाया तो एक लड़का रख देंगे वह रोज शाम आपको बैठे-बिठाए तीन सौ रु. दे देगा।’’
सरलू मिसर ने सत्यम की ओर देखा, ‘‘क्या सत्यम कर पाओगे यह काम, करना तुमको है…देख लो बाद में पछताना नहीं पड़े।’’
सत्यम बोलने से पहले इधर-उधर देखा फिर धीरे से सोचते, सकुचाते बोला, ‘‘…आप लोग जो ठीक समझिए…परंतु एक बार दादा इंस्टीट्यूट वाले से मिल लेते, कंम्प्यूटर की जरूरत अब हर जगह दिनोंदिन तेजी से बढ़ती जा रही है…।’’
परेशान होकर मिट्ठू बोल पड़ा, ‘‘क्या मिलिएगा उससे वह तो पैसा बनाने के लिए बड़का-बड़का लोभ देगा…धव मामू आप भी इतना सोचते किस लिए हैं, यहां रोज खाली आप आ जाइए न आपको हम सब सिखा देंगे…परिवार बच्चा वाले आदमी हैं, कब तक नाना का पैसा फेंक-फेंककर पढ़ते रहिएगा।’’ सरलू मिसर की ओर मुखातिब होकर कहा, ‘‘आप चिंता मत कीजिए नाना, आपका पैसा हम डूबने नहीं देंगे…आज ही बुक करा लीजिए ताकि सावनी मेले शुरू होने से पहले गाड़ी आ जाए।’’
इसी के साथ हीरा तिवारी गद्दी से उतरकर नीचे आ गए और बोले, ‘‘चलिए बजाज ऑटो वाले से बात करते हैं।’’
फिर चारों बजाज के डीलर सर्वेश अग्रवाल के पास गए और एक लाख तीस हजार में ऑटो बुक करा दिया गया गाड़ी दस दिनों के अंदर उन्हें मिलने वाली थी। कंप्यूटर कोर्स के लिए जो साठ हजार लाए थे वह उन्होंने दे दिया और बाकी दूसरे दिन बैंक से निकालकर उन्हें देना था। हीरा तिवारी मन ही मन खुश हुआ कि चलो आज सुबह-सुबह लक्ष्मी की कृपा हुई और दो प्रतिशत कमीशन के हिसाब से छब्बीस सौ रुपया बन गया। हीरा तिवारी ने सरलू मिसर को आश्वस्त किया आप चिंता मत कीजिए हम सत्यम को सब सिखा देंगे। जब वे सड़क पर घर जाने को सत्यम की साइकिल के पीछे कैरियर पर बैठने लगे तो हीरा तिवारी ने उन्हें खाना-पीना खाकर जाने के लिए कहा जिसे वे फिर कभी कहकर बैठ गए। पहले से ही सीट पर तैयार बैठा सत्यम पैडिल मार साइकिल बढ़ा दिया।
जाते हुए सरलू मिसर सोचने लगे कहीं जल्दबाजी तो नहीं कर बैठे! अगर नहीं चला पाया तो जमा पूंजी भी जाएगी फिर और इसका भविष्य भी अधर में लटक जाएगा…लेकिन इसमें बुराई क्या है, दिन में काम करेगा रात में अपने घर में पूरे परिवार के साथ रहेगा। कहीं घर-परिवार से अलग होकर दूर-देश जाकर बैठकर कंप्यूटर पर काम करने से अच्छा अपने घर-गांव में ही रहकर ऑटो चला लेने में काहे की शरम। इसी बहाने दुनियादारी समझ लेगा…चल गया तो अगले साल तक एक और ऑटो खरीदवा देंगे एक किराए पर लगा देगा एक खुद चलाएगा। दोनों की कमाई और खेती-बारी के बल पर आराम से इसके परिवार की जिंदगी कटेगी…और नहीं चला तो? नहीं चला तो या बाद में इसका मन नहीं लगा तो कोई दूसरा काम भी कर सकता है…अभी तो पूरी उम्र पड़ी है…।
फिर उनको सीट पर बैठे जोर-जोर से पैडिल मारते सत्यम के बारे में कोफ्त होने लगी यह लड़का जवान हो गया परंतु अपनी जिंदगी के बारे में जरा भी फिक्र नहीं, जो हम कर देंगे उसी रास्ते पर चल पड़ेगा, कभी कोई विरोध नहीं…जो कह दो वही बिना हाल-हुज्जत के मान लेगा। कैसे घर-परिवार चलाएगा पता नहीं! पहले कम से कम इसकी मां इसकी मन की बातें निकालकर बता देती थी अब तो वह माध्यम भी नहीं रहा। रेलवे फाटक को पार करने के बाद ढलान पर जहां साइकिल स्वतःस्फूर्त बिना पैडिल मारे तेज गति से भाग रही थी यह सोचकर सत्यम से पूछ लिया कि बिना ताकत लगाए, बिना किसी दवाब के जल्दी से जवाब भी दे देगा, ‘‘हां जी तुम संभाल लोगे न!’’ परंतु वह तो अपनी आदत के अनुसार थोड़ा देर तक चुप रहा तबतक कौतनियां नदी का पुल पार हो गया और चढ़ाव आ गया। जोर से पैडिल मारते हुए बोला,‘‘कोई दिक्कत नहीं होगी, संभाल लेंगे…।’’ कहना मुश्किल था कि ज्यादा ताकत यह वाक्य बोलने में लगाया या पैडिल मारने में।
सरलु मिसर मन ही मन सोचने लगे बेटा, संभालना ही पड़ेगा अभी तो कैरियर पर सिर्फ मैं बैठा हूं, जमा पूंजी तो लगा दे रहा हूं, अब मेरे सहित अपना परिवार और सारी गृहस्थी चलानी पड़ेगी। घर पहुंच गए, आहट पाते ही पोता परम मचलकर अब उनपर सवार हो गया।
दूसरे दिन सेवानिवृति के बचे कुल बहत्तर हजार चार सौ छत्तीस रुपए मे से सत्तर हजार निकालकर बजाज ऑटो वाले को उन्होंने चुका दिया। सप्ताह भर के अंदर ऑटो आ गया। वहीं मिट्ठू दुकान के सामने वाली सड़क पर स्थापित मंगलकारी हनुमान मंदिर में पूजा अर्चना की गई और हैंडिल में लाल, चमकीली चुंदरी बांध दी गई। मिट्ठू ने ही सत्यम को गाड़ी चलाना सिखाने के लिए पवन नाम के एक लड़के की व्यवस्था कर दी। सीख लेने के बाद अगर चाहे तो रात की पाली के लिए उसको गाड़ी चलाने देगा इसके लिए वह रोज सत्यम को सौ रुपया देगा। सप्ताह भर में ही सत्यम ऑटो खुद चलाने लगा और सारे-तौर तरीके सीख लिए। पवन नें भी उसे तन-मन से सिखाया इस लोभ से कि उसे नई गाड़ी इस सावन के महीने में रात को चलाने को मिलेगी और अच्छी कमाई कर सकेगा। इसके पहले वह जिसकी गाड़ी चलाता था वह गाड़ी जितनी खटारा थी उससे ज्यादा उसका चिक-चिकबाज मालिक।
सत्यम को सप्ताह भर में ही पता हो गया कि कैसे सवारी पटानी है, कौन सवारी ठीक-ठाक पैसे देगी, किससे थोड़ा ज्यादा वसूला जा सकता है और किस सवारी का नियत किराया भी देने में शरीर का आधा खून सूख जाएगा। उसकी गाड़ी चल निकली। जेब में रोज पैसा आने लगा, अब ज्यादा वाचाल हो गया। दिन में ज्यादा समय देवघर टैंपू स्टैंड में मिट्ठू मिष्टान भंडार के पास ही गाड़ी लगाता वहीं से उसे इतना ग्राहक मिल जाता कि उसे कहीं भटकने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बाकी समय मिट्ठू के संग उसका समय भी अच्छा गुजरता। शाम को घर पहुंचता तो उसका बेटा ऑटो की आवाज सुनकर सरपट उसके पास भागता, गाड़ी से सामने के मैदान का चक्कर का मजा लेता और उतरने की एवज में नमकीन और पेड़े से भरा ठोंगा भी पाता। अब उसे अपना बाप दिन-भर घर में रहते दादा से ज्यादा अच्छा लगने लगा। बाप के आने के समय दादा के लाख बुलाने पर भी नहीं आता। अब उल्टा हो गया है पहले ऐसा वह अपने बाप के साथ करता था। पत्नी जयंती के चेहरे की चमक और बढ़ गई है। महीने भर के अंदर ही उसे दो-तीन बार कभी मंदिर दर्शन के लिए, एक बार डॉक्टर को दिखलाने तो एक बार बाजार करने एवं सिनेमा दिखाने देवघर घुमा लाया। सरलु मिसर बड़ी राहत महसूस करने लगे हैं कि चलो कम-से-कम यह अपनी जिम्मेदारियों को उठाने लगा। फिर भी कभी-कभी उन्हें मिट्ठू का सोहबत डराती है, क्योंकि उन्हें भी कुछ-कुछ भान था कि हीरा तिवारी का इतना बड़ा धंधा सिर्फ एक चाय की गुमटी की बदौलत नहीं आया है। वह सत्यम को सावधान भी करना चाहते हैं परंतु एक तो प्रारंभ से ही बाप-बेटों के बीच बहुत कम संवाद और दूसरा यह सोचकर कि अभी तो घर से बाहर निकला ही है कुछ खुद समझ जाएगा और कुछ हम किसी दिन समझा देंगे और आशंका से पिंड छुड़ा लेते।
सत्यम फुर्सत के समय मिट्ठू के पास ही दुकान में बाहर गाड़ी खड़ी कर बैठा रहता और उसके काम में कुछ सहायता भी कर देता। वह अब यहां की दुनिया में रमने लगा था। वहां पर मिट्ठू के सारे दोस्तों से उसकी जान-पहचान हो गई, हमउम्र होने के बावजूद भी सब उसको मामू ही कहते हैं। मिट्ठू भी बीच-बीच में अपने दोस्तों के साथ दुकान को सत्यम के भरोसे छोड़कर चला जाता यह कहकर कि, ‘‘मामू आ रहे हैं थोड़ी देर में।’’ वह जैसे ही कुछ बोलने की सोचता वह यह कहकर निकल जाता कि, ‘‘आपको कुछ नहीं करना है ग्राहक से, नौकर जितना कहेगा उतना पैसा काट लीजिएगा बाकी नौकर सब कर लेगा।’’ वह देखता रह जाता। बीच-बीच में चहकती, चमकती एक लड़की आती कभी अकेली तो कभी कई सहेलियों के साथ। सभी अल्हड़ अंदाज में टाइट जीन्स और स्लीवलेस टॉप या चुस्त टी शर्ट पहने। बेतकल्लुफी से जो चाहे नौकर से आर्डर देकर खातीं, कोल्ड ड्रिंक्स पीती, मिट्ठू से हंसी-मजाक करती और बिना पैसे दिए निकल जाती। जब वह अकेली आती तो कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह पीकर मिट्ठू को इशारा कर निकल जाती। मिट्ठू भी थोड़ी देर में अभी आते हैं मामू, कहकर बाइक से उधर ही निकल जाता। वह हक्का-बक्का होकर देखता रह जाता। कई बार ऐसा होता कि मिट्ठू दुकान छोड़कर उस लड़की के पीछे जाता और इधर इसकी कोई अच्छी मालदार सवारी भी आ जाती, वह मन मसोसकर रह जाता। यह अब उसकी रोज की आदत बन गई। कई बार तो शाम पांच बजे के गए आठ-नौ बजे रात तक आता बीच में अगर हीरा तिवारी आ जाते या उससे पूछते तो उसके लिए उसे झूठा बहाना बनाना पड़ता। सत्यम को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करे, इससे उसे दूहरा नुकसान होने लगा था एक तो सवारी भी हाथ से छुटती तो दूसरा घर भी देर से पहुंचता। किसी नौकर से पूछता कि कहां जाता है तो कोई कुछ जवाब नहीं देता सारे नौकर ऐसा अनसुना कर अपने काम में व्यस्त हो जाते कि मानो कुछ सुना ही न हो।
एक दिन वह गुस्से में आ गया और मिट्ठू पर उबल पड़ा, ‘‘तुम बिना बताए ऐसे ही चले जाते हो…इसमें मेरा कितना नुकसान होता है, सवारी छूटती है सो अलग, घर भी समय पर नहीं पहुंच पाते हैं…वहां सब मेरा इंतजार करते हैं।’’
मिट्ठू बर्दाश्त करते हुए मुस्कराकर बोला, ‘‘धव मामू आप भी गुस्साते हैं क्या! चलिए सवारी छूटने से आपका कितना नुकसान हुआ हम अभी पूरा कर देंगे।’’ यह कहकर उसने सौ रु. का नोट उसके पॉकेट में ठूस दिया।
सत्यम ने हाथ झटक दिया, ‘‘हम तुमसे पैसा के लिए थोड़े ही बोले हैं…’’
‘‘अरे मामू हम आपको पैसा फ्री में थोड़े ही दे रहे हैं, आपको हमारा एक काम भी करना पड़ेगा।’’ कहते हुए उसने उसे असम चाय वाला बंधा हुआ थैला दिया और कहा, ‘‘लीजिए इसको जसीडीह स्टेशन के पास बायीं तरह चाय-पान वाला तीसरा दुकान शालीग्राम साव का है उसीको देते हुए घर चले जाइएगा…हां शालीग्राम साव या उसका बेटा हो तभी दीजिएगा किसी दूसरे को नहीं।’’ कहकर उसने थैले को सीट के नीचे बने बाक्स में रखवा दिया और फिर सत्यम को बिना कुछ कहने का मौका दिए बिना कहा, ‘‘हमारे पास रहकर पैसा का चिंता मत कीजिएगा…अब मुंह क्या ताक रहे हैं जाइए।’’
अब प्रायः प्रतिदिन ऐसा होने लगा था शाम होते ही सत्यम को वह दो-तीन थैला पकड़ा देता जिसे वह देवघर और उसके आस-पास की चाय-पान दुकानों में पहुंचाता। जब वह जानना चाहता कि इसमें क्या है? तो वह उसे कहता, ‘‘इसमें असम का स्पेशल चाय है। आप इसके बारे में जानकर क्या कीजिएगा? आपको जो कहते हैं सो सिर्फ कीजिए न।’’ कहकर चुप करा देता। परंतु सत्यम के मन में अब कई आशंकाएं आकार लेने लगीं। उसे लगने लगा कि उससे कुछ गलत कराया जा रहा है। रोज शाम को ही आखिर वह हमको थैला क्यों पहुंचाने को कहता है और इस छोटे से काम के लिए हमको मनमाफिक पैसा भी देता है। इतने छोटे थैले में चाय कैसे हो सकता है। कई बार उसने नौकरों से पूछने का प्रयास किया तो सारे के सारे ऐसा अनसुना करते मानो वे कुछ सुन ही नहीं रहे हों। एकाध बार उसने थैले को खोलकर देखने का भी प्रयास किया परंतु थैले के अंदर ऐसा पैक था कि उसे खोलकर देखना मुश्किल था। दिनोंदिन उसकी परेशानी बढ़ रही थी उसे लगता कि वह कुछ गलत तो नहीं कर रहा है। अगर उसे पुलिस ने पकड़ लिया तो उसके परिवार खासकर दादा की इज्जत का क्या होगा। एक दिन उसने मिट्ठू से पूछ ही लिया, ‘‘भाई थैले में कुछ गलत सामान तो नहीं होता है? कहीं हम पुलिस-थाने के चक्कर में तो नहीं फंस जाएंगे?’’
मिट्ठू बोला, ‘‘आप बड़ा डरते हैं। इसमें गलत क्या होगा? पैसा कमाने के लिए थोड़ा खतरा तो उठाना ही पड़ता है न! थैले में भांग होता है। यह है तो गैरकानूनी लेकिन यह बाबा भोला की नगरी में कहां खुलेआम नही बिकता है। इसलिए पुलिस कहती है कि इसको थोड़ा छुपाकर बेचा कीजिए, बड़े अधिकारी नाराज होते हैं। इसलिए आपको शाम के समय भेजते हैं…आपको ठीक ही अपने गांव में सब बकलोल कहता है…इतना ड़रने से दुनिया कैसे चलेगा।’’ सत्यम झेंप सा गया।
एक यात्री परिवार को लेकर बाबा बासुकीनाथ गया था लौटने में रात्रि के करीब 11 बज गए। उसे गाड़ी पवन को देनी थी। देखा दुकान का शटर आधा से ज्यादा गिरा हुआ था। उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई पवन कहीं नजर नहीं आया। उसने सोचा मिट्ठू तो घर चला गया होगा देखते हैं किसी नौकर से पवन के बारे में पूछकर कि कहीं वह भी लौटकर घर तो नहीं चला गया। अंदर देखा तो मिट्ठू की पुरी मंडली कहकहे लगा रही थी। पीने वालों की महफिल सजी थी। एक टेबुल के इर्द-गिर्द मिट्ठू, अग्रवाल जनरल एवं पूजा सामग्री भंडार का मालिक का छोटा बेटा मदन अग्रवाल। अपने आप को बस एवं टेंपू स्टैंड का बॉस मानने वाला गुलटेन सिंह। थोड़ा पीछे पवन भी था। अरिस्टोक्रेट की बड़ी बोतल सामने टेबुल पर थी। सभी पी रहे थे और मौज-मस्ती में थे। शटर की आवाज सुनते ही सबकी नजर उधर गई। सत्यम पर नजर पड़ते ही सबने एक सुर में कहा, ‘‘अरे मामू आ जाइए…’’ सत्यम झुककर अंदर आया। वहीं एक कुर्सी खींचकर सबने उसे वहीं बिठा लिया। मदन ने कहा अरे पवन मामू के लिए भी गिलास दो। सत्यम ने कहा, ‘‘अरे पागल हो गया है क्या, हम नहीं पीते हैं…हम तो पवन का पता करने आ गए…’’ कहकर उठने को हुआ कि गुलटेन सिंह ने हाथ पकड़ लिया ‘‘…अरे मामू बैठिए तो सही, नहीं पीजिएगा…।’’ मिट्ठू ने कहा, ‘‘अरे पवना मामू के लिए फ्रिज से पेप्सी लेकर आओ’’ सत्यम ने मिट्ठू को पैसा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘बासुकीनाथ में पांडे पान भंडार वाला, एक हजार ही दिया।’’ मिट्ठू लेते हुए बोला, ‘‘आप चिंता मत कीजिए बाकी भी दे देगा साला कहां जाएगा, खुद ही पहुंचा जाएगा।’’
पीकर दोनों बहकने लगे, गुलटेन सिंह ने कहा, ‘‘और मिट्ठू मियां आजकल खूब मौज ले रहो यार…क्या नाम है उसका हां…टुम्पी रोज शाम लेकर उसे कहां चले जाते हो?’’
मदन भी जोश में आ गया, ‘‘हां यार मिट्ठू तुमने क्या तकदीर पाई है, घर में सुंदर बीबी और बाहर रोज टुम्पी के साथ मौज-मस्ती। एकबार हमको भी टुम्पी के साथ मौज-मजे करने दे न यार, टाइट जींस और स्लीवलेस टॉप में एकदम टॉप की लगती है साली, वह सिर्फ कहने भर की ही ताड़ी चुआने वाली की बेटी नहीं है जिधर से गुजरती है उधर सबको मदहोश करती जाती है। अगर किसी को अपनी बड़ी-बड़ी तीखी नजरों से नजर भर देख ले तो बिना पिए घड़े भर बासी ताड़ी का नशा हो जाती है। गजब माल पटाया है यार, उसका बाप साला रात-दिन पीकर मस्त रहता है और तुम रोज शाम उसके साथ…एकबार हमें भी ले चलो न यार…हम भी अपना नशा उतारना चाहते हैं…।’’
मिट्ठू को गुस्सा आने लगा उसने उठते हुए कहा, ‘‘साले बहकने लगे नशे में यह भी नहीं देख रहे हो कि यहां सत्यम मामू भी बैठा है…चलो उठो यहां से, जाओ घर…।’’
‘‘मामू तो अब अपना दोस्त बन गए हैं यार, क्यों मामू…कहकर गुलटेन ने सत्यम की गरदन में हाथ डाल दिया…आप कोई टेंशन मत लीजिएगा आप मौज से गाड़ी चलाइए कोई कुछ कहे तो हमको कहिएगा, हम साले को सरेआम यमपुरी पहुंचा देंगे…।’’
मिट्ठू ने दोनों को शटर से बाहर निकालते हुए कहा, ‘‘जा अब घर जा बहुत उपदेश मत झाड़।’’
मदन ने बाइक स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘…लेकिन गजब मस्त है टुम्पी यार…कल उसको चुस्त स्लैक्स में उसकी लैग चिकन जांघ देखा, मन किया एक ही बार में पूरा हबक जाएं…।’’
मिट्ठू गुस्से में उसके तरफ लपका, ‘‘भागते हो कि नहीं स्साले तेरी…’’ उसने गाड़ी भगा दी।
मिट्ठू शटर बंद कर अपने बाइक को स्टार्ट करते बोला, ‘‘जाइए मामू, पवन आपको घर छोड़ते हुए जसीडीह स्टेशन चला जाएगा।’’
मिट्ठू गुलटेन सिंह से बोला, ‘‘अबे तुम कहां जाएगा यही टेंपू स्टैंड में रहेगा कि घर जाएगा।?
गुलटेन बोला, ‘‘हम अभी कहां जाएंगे यार, मेरे लिए तो अभी शाम हुई है…।’’
पवन ऑटो रफ्तार से चला रहा है। सत्यम आज के तमाशे को देखकर परेशान सा है उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इन लोगों का यह कैसा तमाशा है? मिट्ठू उससे दो साल छोटा है यानी अभी 22 का है। खुबसूरत पत्नी है। एक दो साल का बेटा, दूसरी बेटी अभी छह माह की है। फिर भी दूसरी लड़की के चक्कर में पागल है। कई बार दुकान के नौकरों से सत्यम ने जानना चाहा कि उस थैले में क्या होता है जिसे उसे पहुंचाने जाता है परंतु किसी ने कुछ नहीं बताया। उसने सोचा आज सारी बातें पवन से पूछ ली जाए, इसने भी एक दो-पैग लगाए हैं शायद बता दे!
उसने पूछा, ‘‘यहां रोज यही सब होता है क्या पवन?’’
‘‘रोज तो नहीं पर सप्ताह में दो-तीन दिन तो हो ही जाता है, पंडीजी।’’
‘‘यार जरा हमको यह बताओ कि उस थैले में क्या होता है जो हमको मिट्ठू पहुंचाने देता है?’’ सत्यम ने पूछ ही डाला।
पवन खुली खाली सड़क पर पूरी गति में था हवा तेज थी नशे की थोड़ी सुमारी भी बढ़ गई थी। फिर भी इस बात की अहमियत उसे पता थी। उसने कहा, ‘‘क्या बतायें पंडीजी… सबको बताते तो वह यही हैं कि इसमें चाय की पत्ती है परंतु…’’
सत्यम बोला, ‘‘नहीं हमको तो बता दिया है कि उसमें भांग होता है…।’’
बीच में पवन मुस्काते हुए बोल पड़ा, ‘‘उसमें सिर्फ भांग ही नहीं होता है बल्कि…!’’
इसके आगे वह चुप हो गया। सत्यम समझ गया कि वह बताने में झिझक रहा है।
सत्यम ने फिर पूछा, ‘‘और उसमें क्या होता है पवन…बताओ ना…हम किसी को कुछ नहीं बतायेंगे।’’
पवन बोला, ‘‘हां पंडीजी किसी को कुछ नहीं बताइएगा नहीं तो ये लोग हमको भी दुकान के नौकर सोमरा की तरह मारकर कहीं लटका देंगे।’’
सत्यम अचंभे में था फिर भी सारी बातें जानने के लिए उसे विश्वास दिलाया, ‘‘हम बाबा भोला की त्रिशुल की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं कि किसी को कुछ नहीं बोलेंगे और अगर बोलना भी पड़ा तो यही बोलेंगे कि हम खुद थैले को फाड़कर देख लिए थे।’’
पवन आश्वस्त होकर बोला, ‘‘थैले में गांजा, चरस और अफीम होता है पंडीजी, यह सब नेपाल से आता है और पूरे जिले और उसके आस-पास तिवारी जी ही सप्लाई करते हैं।’’
‘‘तुम क्या बोल रहे हो? और यह सब फूफा जी को पता है?’’ सत्यम पूछकर भौंचक उसकी तरफ देखने लगा।
ऑटो तबतक पगला बाबा रेलवे फाटक पर पहुंच गया। पवन ने पहले हार्न कई बार बजाया गेटकीपर के नहीं आने पर इन प्रश्नों को वहीं गाड़ी के साथ पड़े रहने देकर गेटकीपर को बुलाने चला गया। सत्यम इन प्रश्नों पर ही ध्यान गड़ाए रखा कि कहीं यह अभी कूद-फांदकर विलीन न हो जाए और बाद में फिर सर पर सवार होकर रात-दिन बेचैन करता रहे।
फाटक पार कर पवन बोला, ‘‘आप बड़े सीधे हैं सब कुछ हीरा तिवारी ही तो करते हैं…मिट्ठू की क्या औकात है…पहले यह सब बीरू तिवारी के होटल से होता था और हर जगह होटल का एक नौकर सोमरा पहुंचाता था परंतु एक दिन रात में वह पीकर थोड़ा बहक गया और बीरू तिवारी के डांटने पर बक दिया कि हमको सब पता है, ज्यादा पैसा दीजिए नहीं तो इस धंधे के बारे में पुलिस को बता देंगे। बस क्या था तीनों बाप बेटों ने मिलकर पहले उसे मार-मारकर अधमराकर दिया फिर पानी के हौदे में उसे डूबाकर बिजली का करंट लगाकर तड़पा-तड़पाकर मारके जसीडीह नया बस स्टेंड के पास सागवान के गाछ में गर्दन में रस्सी फंसाकर टांग दिया। जाननेवालों को पता चला तो बोल दिया कि पता नहीं क्यों फांसी लगा लिया…पुलिस को पैसा खिलाकर मुंह चुप करा दिया। उसकी विधवा मां को दस हजार रुपया देकर भगा दिया। तभी तो कोई नौकर डर से मुंह नही खोलता है। उसके बाद यह धंधा पुलिस के कहने पर मिठाई के दुकान से चला रहे हैं।’’
सत्यम सन्नाटे में आ गया, विस्मित होकर बोला, ‘‘सालभर पहले जसीडीह में जो लड़का पेड़ पर फांसी से लटका मिला था उसे इन लोगों ने ही मारा था…?
पवन सरूर में था बोला, ‘‘और क्या… हमको लगता है आपको जानबूझकर तिवारी जी ने अपने धंधे के लिए फांसा है ताकि उनका यह धंधा भी आराम से चलता रहे और आप रिश्तेदारी और सीधेपन के वजह से कहीं अपना मुंह भी न खोल पायें!’’
गाड़ी घर के द्वार पर पहुंच गई। बारिश के कारण गली में कीचड़ हो गया था। पवन बोला, थोड़ी बारिश में ही कीचड़-कीचड़ हो जाता है। सत्यम बोला, ‘‘हां…।’’ बोलना तो वह यह चाह रहा था कि तुम कीचड़ की बात कर रहे हो, मैं तो दलदल में फंसता जा रहा हूं। वह धीरे से एक ईट पर पैर रखकर उतरा, पवन को बोला, ‘‘तुम जाओ पवन।’’
उसने गाड़ी मोड़ ली दुआरे पर ही सरलु मिसर उसका इंतजार कर रहे थे बोले, ‘‘सत्यम बहुत देर कहां कर दिया…?’’
उसने कहा, ‘‘एक सवारी को लेकर बासुकीनाथ चले गए थे वहीं देर हो गई।’’ फिर अपने आप से कहा अभी ज्यादा देर नहीं हुआ है…परंतु अगर अभी भी नहीं संभले तो देर अवश्य हो जाएगा!’’
वह अंदर चला गया। जयंती उसके इंतजार में नींद और आशंका के हिचकोले खाती परम को सीने से चिपकाए बिस्तर पर पड़ी थी, आहट पाकर उठ खड़ी हुई। सत्यम ने पेड़े नमकीन के पैकेट को थमाते हुए पूछा, ‘‘परम सो गया?
जयंती ने कोई जवाब नहीं दिया उसे तिरछी नजर से देखकर रसोई घर की तरफ बढ़ गई। सत्यम हाथ-पांव धोकर खाना खाने लगा। उसे पता था दादा आठ बजे से पहले खाना खा लेते हैं फिर भी खुशामद के अंदाज में पूछा, ‘‘दादा खा लिए? प्रश्न बेकार गया। जयंती अबकी अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसे देख भर लिया। सत्यम ने फिर भी हार नहीं मानी, ‘‘तुम भी खा लो ना, हम अब कुछ नहीं लेंगे।’’ जयंती भी खाने लगी। जयंती दूसरी दिशा में करवट लेकर सोई। सत्यम उसे अपनी तरफ खिंचते हुए कहा, ‘‘आज जरा देर हो गया तो इतना गुस्साएगी…एक सवारी को लेकर बासुकीनाथ चले गए थे उसी के कारण देर हो गई…अब शाम को सवारी नहीं चढ़ायेंगे…बस्स…अब तो माफ करो।’’
जयंती उसकी तरफ बिना करवट बदले ही बोली, ‘‘आप क्या जाने कि बाबूजी और परम किस तरह शाम से ही आपका रास्ता देखते रहे। परम पापा-पापा करता रहा और बाबूजी उसे गोद में लिए कभी गली में तो कभी छत से आपका राह देखते हुए उसे दिलासा देते रहे वो देखो आ रहा है… अब आ रहा है कहकर समय काटते रहे…अंत में वह उनके गोद में ही सो गया।’’
सत्यम ने जयंती के पीठ की तरफ टाइट ब्लाउज में अंगुली घुसाई, सिहरन से पीठ गहरी हो गई। ब्लाउज ढीला हो गया उसने हाथ घुसाते हुए कहा, ‘‘और तुम!’’
‘‘अगर मेरी इतनी ही चिंता है तो शाम होते ही आ जाया कीजिए। अपना और घरवालों का खून जलाकर कमाई की किसी को जरूरत नहीं है…।’’
सत्यम ने ब्रा का हुक खोलते हुए कहा, ‘‘तुम्हें छोड़कर जाना कौन चाहता है…देर रात को कहीं चोरी-डाका डालने नहीं जाता हूं…दादा ने अपने जीवन की सारी कमाई लगा दी है…हम चाहते हैं कि जितना जल्दी हो सके पैसा वापस आ जाए। अभी सावन मेला है अच्छी कमाई है। बाद का पता नहीं!’’ जयंती सीधी हो गई, उसकी बड़ी-बड़ी पलकों को मूंदते हुए होठों पर अपने होंठ रखते हुए फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘परंतु सावन की सुहावनी इस रात के समय तुम ऐसी बातें करके क्या समझती हो मैं तुमपर डाका डालना छोड़ दूंगा…’’
जयंती ने मदहोशी के आलम में कहा, ‘‘मेरे पास तो खूब बातें बनाने सीख गए हैं। चोरी-डाका आपके बस की बात नहीं, हम यही चाहते हैं कि जो भी ईमानदारी से मिले उसे लेकर समय पर घर आ जाएं…बस्स।’’
जयंती सत्यम के घेरे में चैन से सो गई परंतु सत्यम पवन के वाक्य ‘‘…हमको लगता है आपको जानबूझकर तिवारीजी ने अपने धंधे के लिए फांसा है ताकि…!’’ सावनी रात में उमड़ता-घुमड़ता रहा जबतक यह फैसला नहीं कर लिया कि, नहीं मुझे इस दलदल में नहीं फंसना, इससे बच बचाकर तभी तक इस काम को करना है जबतक गाड़ी का पैसा निकल नहीं जाता है, पैसा वसूल होते ही पवन को पूरे टाइम किराए पर देकर खुद कोई दूसरा साफ-सुथरा काम करना है…हीरा तिवारी को उनका धंधा मुबारक मेरे परिवार को यह कमाई नहीं चाहिए…यह गाड़ी लाइन मेरे बस की बात नहीं है।
2.
टुंपी सत्संग कॉलेज में बी.ए. द्वितीय वर्ष में थी। पहले ही वर्ष में बी.ए. से एम.ए. तक के सारे सूरमा उससे दोस्ती में हाथ आजमा, यूं कहिए जलाकर, कोई अपने ताजे-ताजे फफोले पर फूंक मार रहे थे तो कोई थोड़े पूराने घाव पर नई चमड़ी उगने का इंतजार। कई तो उससे धोखा खाकर उससे बदला चुकाने के लिए कुछ भी उठा रखना नहीं चाहते परंतु टुंपी की फितरत यह थी की हर बार वह पिछले से ताकतवर और मालदार से यारी करती ताकि धोखा खाया पिछला यार उसकी ताकत के आगे डर से नतमस्तक हो जाए और वह नए यार के माल से गुलछर्रे उड़ाती फिरे। इतने कम समय में कॉलेज में उसके ऐसे जलवे थे कि अब लड़के उससे बात करना तो दूर नजरें मिलाने से कतराने लगे। यह टुंपी और उसके सखियों के लिए भी एक गंभीर समस्या थी क्योंकि अब उसे अपने नाज नखरे उठाने वाले कॉलेज के बाहर तलाशने थे। टुंपी के घर में उसका बाप जगन पासी पुश्तैनी ताड़ी का धंधा करता और पीकर मस्त रहता। मां मुहल्ले में सबसे बात-बात पर और कभी बिना बात के भी लड़ाई-झगड़ाकर अपनी दहशत कायम करने और उससे थोड़ा समय मिलने पर उसके छोटे भाई-बहनों तथा घर-गृहस्थी में इतना मशगूल हो जाती कि वह टुंपी की क्या खबर रखती, उसके लिए यही बहुत था कि उसकी बेटी कॉलेज में पढ़ती है।
टुंपी की खुबसूरती और दिलफरेब अंदाज के किस्से मिट्ठू तिवारी तक भी पहुंचा था। वह कई बार अपने सखियों और पुराने दोस्तों के पर्स के भरोसे उसके दूकान पर आ चुकी थी। उस दिन वह अपनी कई सहेलियों के साथ आई और समोसे चाट से लेकर कोल्डड्रिंक का मजा लिया और पैसे देने के समय सबको अपने-अपने पर्स से निकालना पड़ा क्योंकि आज कोई लड़का उनलोगों के साथ नही था। यह बात काउंटर पर बैठा मिट्ठू तिवारी ताड़ गया और जब टुंपी पैसा देने आई तो उसने कहा, ‘‘छोड़ो पैसा, आज समझो यह मेरी तरफ से था।’’
टुंपी ने फिरकी मुस्कान का छर्रा छोड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों तिवारी जी, पंडित-पंडे भी कब से दान करने लगे?’’ मिट्ठू ने कहा, ‘‘दान नहीं बल्कि दोस्ती…समझो यह मेरा दोस्ती में बढ़ा हाथ है…!’’
टुंपी ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों में तिवारी की आंखों को समोकर कहा, ‘‘बहुत नुकसान उठाना पड़ेगा…लूट जाइएगा…।’’
तिवारी ने डूबते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं बहुत कमाया है दोस्ती के नाम पर कुछ लुटा भी देंगे।’’
टुंपी ने अपने लाल गालों के भंवर में उसे कुछ देर तक भरमाया फिर आंखों और होठों से एकसाथ धीरे से कहा, ‘‘तो फिर लूटते रहिए…’’ और झटककर सहेलियों के साथ लहराती हुई निकल गई।
मिट्ठू तिवारी ने अपनी बेकाबू होते धड़कनों को काबू में करते हुए मन ही मन कहा, ‘‘मैं भी हीरा तिवारी का बेटा हूं जो दो रुपए को दो सौ बनाना जानता है। उसी समय उसे अपने परलोक वासी दादा के बारे में अपने गांव में प्रचलित किस्सा भी याद आ गया कि कैसे वे एक जजमान के मरते समय उसके बेटों द्वारा बछिया दान से बचने के लिए बहाना करने पर कि पुरोहित जी कैसे होगा बछिया दान, बछिया तो है ही नहीं। जजमान ने सोचा था कि सवा रुपया पकड़ाकर बाप को मुक्ति दिला देगा, परंतु दादा ने जल्दी से सामने बंधी भैंस की पूंछ पकड़कर यह कहकर दान करा दिया था कि इस पर चढ़कर तुम्हारा बाप तुरंत वैतरणी पार कर जाएगा क्योंकि भैंस तो यमराज का वाहन है। सब अचंभित, कोई कुछ समझ पाता उसके पहले ही दूध देने वाली भैंस को अपने घर हांककर ले आए थे। ‘‘…तुम किस खेत की मूली हो मैं तुमसे यह चाट चटनी की पूरी कीमत सूद समेत वसूल लूंगा।’’ और उसे लगा मानो वह अभी भी टुंपी की गहरी आंखों में ही डूबता जा रहा है।
टुंपी करीब-करीब रोज ही नए सज-धज के साथ संगी-सहेलियों के साथ आती और तिवारी की अंदर की आग को भड़काकर चुनौती दे जाती कि हिम्मत है तो वह इससे आगे बढ़े। तिवारी दो-तीन दिनों तक सोचते हुए और रातभर करवटें बदलते काटता रहा। एक दिन हिम्मत कर सत्संग गेट पर अपनी नई बाइक लेकर पहुंच गया। टुंपी सखियों के साथ खिलखिलाते हुए गुजर रही थी। टुंपी को उसने साथ चलने के लिए इशारा किया उसने एक-दो बार दिखावटी नखरे की, फिर आकर मचलते हुए बैठ गई। तिवारी उसे नंदन पहाड़ ले गया जहां पहाड़ी पर बैठकर चाट और कोल्ड ड्रिंक के साथ बातें करता रहा। आते समय टुंपी नई बाइक यामहा के सीट के चढ़ाव पर इस अंदाज से चढ़कर बैठी की वह मिट्ठू के पीठ से चिपक गई और यह जताती रही की मुझ पर खर्च किया हुआ तुम्हारा पैसा बर्बाद नहीं हो रहा है। तिवारी भी उसके सीने की सनसनी से सिहरता रहा, सनसनाता रहा…। यह कार्यक्रम दो-चार दिन चला। बात कहीं जाकर बैठने, नजर मिलाकर बच-बचाकर इधर-उधर हाथ फेरने और ज्यादा-से-ज्यादा चूमा-चाटी से बढ़ नहीं पा रही थी। लौटते समय इसके बदले तिवारी को रोज हजार-दो हजार की गिफ्ट कभी टॉप या सूट तो कभी मनपसंद सैन्डिल दिलाना पड़ रहा था।
एक दिन उसने हिम्मत बढ़ाया और टुंपी को देवघर के बाहर जसीड़ीह के आगे पहाड़ी पर पर्यटकों के लिए बने नीलकंठ होटल में ले गया वहां का मैनेजर उसका जान-पहचान का था। तिवारी ने उससे पहले ही फोन पर बात कर ली थी। उसने देखते ही तिवारी को प्रणाम किया और कमरा खोल दिया। साफ-सुथरे कमरे में डबल बेड के साथ सारे सामान मौजूद थे। पूरा कमरा भीनी-भीनी खुशबू में डूबा था। टुंपी कमरे में दाखिल हुई, उसके चेहरे पर घबराहट के चिन्ह उभर आए। उसने मिट्ठू का हाथ थामते हुए कहा, ‘‘मुझे यहां क्यों ले आए?’’ मिट्ठू ने उसे पीछे से बाहों में भरते हुए उसके कंधे पर सर रख दिया और फिर आहिस्ते से हाथ थामते हुए हथेली पर सोने की छोटी-छोटी सुंदर झुमकी रख दीं। टुंपी की आखों में झुमके की चमक छा गई, ‘‘यह मेरे लिए है…?’’ तिवारी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तो और किसके लिए मेरी जान…?’’ टुंपी पूरे तन-बदन से मुस्कान बिखेरती, मचलती उसके आगोश में समाती चली गई…। तिवारी को वापसी में लगा मानो सारी पूंजी सूद समेत समेट लिया हो।
सप्ताह में दो-तीन दिन नीलकंठ होटल में तोहफों के आदान-प्रदान का यह क्रम भी महीनों तक चलता रहा। एक दिन यहां से लौटते समय टॉवर चौक के ज्वाला ज्वैलर्स के पास से गुजरते हुए टुंपी, मिट्ठू के अंगुलियों को अपने अंगुलियों में फंसाकर अंदर ले गई। गहनों को देखते हुए टुंपी की नजर एक हार पर टिक गई उसने मिट्ठू को भी उसे देखने का इशारा किया। मिट्ठू भी अनमने भाव से देखा, देखते-देखते टुंपी ने निकलवाकर दाम पूछ लिया। सेल्समैन ने बाइस हजार बताया। टुंपी उसे गले में लगाकर मिट्ठू की ओर देख रही थी परन्तु मिट्ठू कहीं और देखने का अभिनय कर रहा था।
टुंपी ने उसे प्यार से झकझोरते हुए कहा, ‘‘देखो न कितना सुंदर है।’’ मिट्ठू कहना चाहता था यह मैं नहीं दिला सकता परंतु उसके मुंह से निकला, ‘‘अभी पैसे कहां हैं…’’ पलभर में ही टुंपी के दमकती चांदनी चेहरे पर अमावस की अंधेरिया छा गई।
उसके मायूस चेहरे को देखते हुए कहा, ‘‘अभी चलते हैं…बाद में देखेंगे।’’
लौटते हुए टुंपी चुप्पी साधे रही घर जाने के लिए बाइक से उतरते समय मुंह खोला, ‘‘यह गले की हार मुझे चाहिए।’’
मिट्ठू ने कहा, ‘‘…परंतु बहुत महंगा है…!’’
टुंपी ने आंखे तरेरते हुए कहा, ‘‘…फिर भी मुझे चाहिए।’’ और झटके से अपने घर जाने वाली गली में मुड़ गई। दुकान आते हुए मिट्ठू सोचता रहा यह तो हमको कंगाल बनाने पर तुली हुई है, परंतु क्या करें? उसके माथे पर बल पड़ गया।
कई दिनों तक वह अपने सहेलियों के साथ इधर नहीं आई मिट्ठू तिवारी की शाम काटे नहीं कट रही थी। दो-तीन दिनों बाद वह उसके कॉलेज पहुंच गया। टुंपी मैदान में अपनी सहेलियों के साथ खिलखिला रही थी। मिट्ठू पास पहुंच उसे इशारे से बुलाया, वह उसके पास आई। मिट्ठू ने कहा, ‘‘क्या बात है तुम उस दिन के बाद दिखाई ही नहीं पड़ी…?’’ ‘‘यूं ही तबियत ठीक नहीं थी…’’टुंपी अनमने भाव से अपने सहेलियों की तरफ देखते हुए कहा।
मिट्ठू ने कहा, ‘‘चलो न कहीं जाकर बैठते हैं।’’ टुंपी ने कहा, ‘‘नहीं मुझे घर जाना है, काम है।’’ मिट्ठू ने उसके हाथ को अपने हथेली में लेते हुए कहा, ‘‘चलो न प्लीज।’’ टुंपी यह सोचकर बाइक में बैठ गई कि चलो इसको आज अंतिम बार देख ही लेते हैं कि इसमें कितना दम बचा है नहीं तो मनमानी कीमत चुकाने के लिए इसी का मालदार मारवाड़ी दोस्त मदन अग्रवाल तो चक्कर काटते हुए हाय हैलो कर ही रहा है!
नंदन पहाड़ी पर टुंपी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए मिट्ठू ने कहा, ‘‘क्या बात है मेरे से नाराज हो…इधर एक बार भी दिखाई नहीं पड़ी।’’ टुंपी ने नजर दूसरी तरफ किए हुए ही कहा, ‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, एक्जाम नजदीक है। मिट्ठू ने कहा, ‘‘शायद उस दिन हार नहीं दिलाए इसलिए गुस्सा हो…परंतु इतना ज्यादा पैसे के लिए थोड़ा इंतजार तो करना ही पड़ता है…इसका मतलब यह थोड़े ही है कि…!’’ और खुशामदी आंखों से उसकी तरफ देखने लगा। टुंपी ने सोचा मेरे एक इशारे पर तुम्हारा ही दोस्त मदन हार लाकर दे देगा, परंतु उसने कहा, ‘‘आपसे हमारी दोस्ती तो है ही… बीच में ही मिट्ठू बोल पड़ा, ‘‘सिर्फ दोस्ती नहीं तुममें मेरा जान बसता है।’’ टुंपी ने हाथ छुड़ाते हुए सीधे उसके दिलोजान पर चोट किया, ‘‘अब दोस्ती तक ही ठीक है आपके बीवी बच्चे भी तो हैं…मेरा बाप भी मेरे लिए लड़का देख रहा है।’’ मिट्ठू का दिमाग झनझनाकर रह गया, वह चाह रहा था कि उसे सीने में भरकर कहे कि तुम मेरे से कटने की कोशिश मत करो, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी ला सकता हूं परंतु शाम के समय पहाड़ी पर भीड़ बढ़ जाने के कारण वह सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘देखो तुम मुझसे छुटकारा पाना चाहती हो…बीच में ही टुंपी ने टोक दिया, ‘‘चलिए शाम हो रही है।’’ मिट्ठू को मजबूरन वहां से निकलना पड़ा। टुंपी बाइक में बैठी तो थी परंतु मिट्ठू के अंदर सिहरन नहीं एक बैचेन आलोड़न पैदा हो रही थी। टुंपी ने बरमसिया जाने के लिए बाइक रोकने को कहा परंतु मिट्ठू आंधी-तूफान की तरह भगाते हुए बाइक को किसी पहाड़ पत्थर से टक्कर मार देना या किसी गहरी नदी-खाई में उसे लेकर कूद जाना चाहता था। वह उतरी और उसकी तरफ एक ठंडी नजर मारते हुए सड़क पार कर गई, मिट्ठू उसके चले जाने के बाद भी कुछ देर तक उधर ही देखता रहा।
मिट्ठू का अब किसी चीज में मन नहीं लगता। साल भर पहले उसकी जान घर में ही बसती थी उसको उसकी पत्नी वंदना एवं बेटा दुनिया में सबसे अनमोल था परंतु मिठाइयों और घी, मक्खन की भरमार उसकी पत्नी की सारी खूबसूरती को निगले जा रहा था खासकर जबसे वह दूसरे बच्चे की मां बनने वाली रही। उसका मन उचटता गया, अब तो दो बच्चों का बाप बन गया। रात को घर जाना चाहिए इसलिए जाता, घर में सबके साथ खाना चाहिए इसलिए खाता, बाप भाइयों के साथ दुकान का हिसाब करता और मुंह घुमाकर सो जाता। अब दुकान में भी खासकर शाम के समय उसको समय काटना भारी पड़ने लगा, इंतजार करता कि टुंपी अपनी सहेलियों के संग इधर घूमने ही आ जाएगी, परंतु वह नहीं आई। वह रोज सुबह इस आशा से दुकान आता कि शायद वह आज आ जाएगी। निराश होकर कई बार शाम को टुंपी के घर तक गया, मैदान मे खेलते हुए उसके भाई को चॉकलेट आदि देकर उसके बारे में पूछा परंतु वह भी इससे ज्यादा कुछ नहीं बता पाया कि वह कहीं गई है। इस तरह मन बोझिल मन से रात को घर पहुंचता जहां उसे पत्नी की परछाई ही बदशक्ल और बदसूरत लगती। मीठी से मीठी बातें भी गाली के समान चुभतीं।
उस दिन शाम को वह बस स्टैंड वाली दुकान पर अपने बाप से मिलने गया वहां से निकला ही था कि सड़क पर ठीक सामने बाइक में मदन अग्रवाल और उससे चिपकी हुई टुंपी दिख गई। पलक झपकते ही उसपर भयंकर वज्रपात हो गया। शायद उन दोनों ने उसको पूरी तरह झुलसकर, जिंदा बच जाते नहीं देखा, परंतु वह देर तक अपने झुलसे, क्षतिग्रस्त उद्विग्न पीड़ित अस्तित्व से उन दोनों को जाते देखता रहा। दुकान आया। एक अद्धा में आधा पड़ा था उसे गटक गया। बाइक स्टार्ट की मदन अग्रवाल की दुकान तक गया, वह वहां नहीं दिखा। बाइक मोड़ी, टुंपी के घर तक गया। वहां उसका बाप ताड़ी पियक्कड़ों की जमात में रमा था, घर में टुंपी नही थी। बस स्टेंड गया वहा गुलटेन सिंह भी नदारत था। टावर चौक पर आया वहां की घड़ी में ठीक संध्या के आठ बज रहे थे। बाइक को साइड लगाकर वह बाबा मंदिर आया, वहां भी रोज की भांति भक्तों का तांता लगा था, वहां किसी पुजारी ने उसके माथे पर तिलक लगा दिया, गौरांग सुंदर चेहरा दमक गया। बैद्यनाथ मंदिर के पिछले द्वार पर ग्यारह पुजारियों द्वारा समवेत वेदमंत्रोपचार से एक अलग समा बंध रहा था। कुछ देर वहीं ठहर गया उसे मंत्रो का अर्थ कुछ समझ में नहीं आया परंतु दिलोदिमाग में अद्भूत ठंडक महसूस हुई, लगा शहर में सबकुछ ठीक-ठाक तो है, कहां कोई बिजली गिरी है! इतना सुहाना मौसम है। फिर वह क्यों पागलों की भांति जहां-तहां भटक रहा है। वह वहां से सीधे अपने घर गया। मां ने समझा शायद इसकी तबियत ठीक नहीं है इसलिए इतनी जल्दी घर आ गया। उसने मां से ठिठोली की, भाभी को छेड़ा, भाई और अपने बच्चों के साथ खेला। पत्नी से खाना मांगकर चाव से खाया। उसकी सुंदर पत्नी काफी दिनों के बाद आज फिर सुंदर लगी। वह अपने बेटे और बेटी को समेटकर सोया, कब नींद आ गई पता नहीं चला। घर का काम निपटाकर पत्नी आई। मुग्ध भाव से मिट्ठू को सोए देख उसका अंग-प्रत्यंग झंकृत हुआ। एक नई स्फुरन पैदा हो-होकर हलचल मचाने लगी। उसने बेटे को किनारे किया। लेटकर मिट्ठू का सर सहलाने लगी। मिट्ठू ने भी अनुभव किया, उसने हाथ फैलाते हुए उसे समेटकर उसकी छातियों में अपना चेहरा समा दिया। कुछ पलों में ही एक दूसरे में सम्पूर्ण समाने को आतुर-व्याकुल हो गए तभी उसकी नन्हीं बेटी रोते हुए हाथ-पैर फेंकने लगी। शुरु में नजरंदाज कर एक दूसरे में मगन रहे परंतु जब रोना असहनीय हो गया तो पत्नी ने उसे अपनी तरफ करते हुए खुला बायां स्तन उसके मुंह में लगा दिया। वह उसी में रम गई परंतु मिट्ठू का मन उखड़ गया। बेटी को दूध पीते देखकर उसे घिन आने लगी। वंदना का शरीर अब उसे एक लिजलिजा मांस का पहाड़ नजर आने लगा। वह उसे खुला छोड़कर खुली छत पर आ गया।
अकस्मात मनोमस्तिष्क में निरावसन टुंपी शरीर पर सरसराती हुई कौंधी। हर अंग सांचे में ढला, जहां-जहां नजर पड़े अपलक वहीं रमा रहे। हर स्पर्श के प्रतिकार में रोम छिद्रों से उठता फुंफकार। हर चुंबन पर पूरे शरीर में उठता उफान। उसके मिलन से बड़ा सुख दुनिया में कुछ नहीं…कुछ भी नहीं…!
वह अब मदन अग्रवाल के संग घूमने लगी है। क्या पता आज शाम वह नीलकंठ या कोई और होटल ही उसके साथ गई हो…वह पैसे और कीमती गहने के लिए किसी के भी साथ कहीं भी जा सकती है। परंतु वह मुझे चाहिए, उसका देह मुझे चाहिए, सिर्फ मुझे…। उसको मैं वही हार दूंगा। गर्दन आसमान की ओर झटकते हुए मन में ही बोला, मदन, मदन मेरे राह से नहीं हटा तो उसे यहां से पार कर दूंगा। उसने मेरे से दगा किया है। बिछावन पर काफी देर तक इंतजार के बाद वंदना भी वहीं आ गई और उससे लगकर उसे मनाना, सहलाना चाहा परंतु उसने उसे झटक दिया और बिछावन के किनारे लेटकर किसी तरह रात काटी।
मिट्ठू सुबह दस बजे ही कॉलेज के गेट पर पहुंच गया। काफी देर के बाद टुंपी अपनी सहेलियों के साथ सामान्य दिनों की तरह किलकती-खिलखिलाती आती दिखी। वह उसी हार में दूर से दमक रही थी। मिट्ठू के कल शाम की गिरी बिजली से झुलसे शरीर में लगा मानो किसी ने नमक मल दिया हो।
अपने आप को संभाला पास जाकर कहा, ‘‘टुंपी हमको तुमसे कुछ बात करनी है।’’
टुंपी ने कहा, ‘‘मेरी क्लास है।’’
उसने ताव और अंदर के तपन से कहा, ‘‘…परंतु मेरी बात बहुत जरूरी है, बिना मेरा बात सुने तुम नहीं जा सकती।’’
सहेलियों ने ताड़ लिया मामला निजी और खतरनाक है इसमें बांटकर मौज उड़ाने लायक कुछ नहीं। उन लोगों ने अपना रास्ता ले लिया।
टुंपी भी जाने लगी कि मिट्ठू ने उसका हाथ पकड़, खींचते हुए पीपल के पेड़ के पीछे ले गया और बोला, ‘‘तुम मेरे से दोस्ती क्यों तोड़ ली, कल तुम मदन अग्रवाल के साथ घूम रही थी…?’’
टुंपी ने कहा, मैंने दोस्ती नहीं तोड़ी…अगर तुम्हारे ही दोस्त से दोस्ती कर ली तो कौन सा गुनाह कर दिया?’’
मिट्ठू ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं होता, उसने तुम्हें यह हार दिला दिया इसलिए तुमने मेरे से दोस्ती तोड़ ली…तुम ऐसा नहीं कर सकती…’’
टुंपी ने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘‘क्या तुमने मुझे खरीद लिया है…? मैं तुम्हारी धर्मपत्नी हूं? क्या तुम अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर मेरे साथ शादी करके जीवन भर रखोगे?…नहीं ना… तो सुन लो, मैं एक पासी की बेटी हूं। मेरे साथ तुमलोग मौज-मस्ती करना चाहते हो, हम भी थोड़ा-बहुत यही चाहते थे…मेरे ऊपर मेरे मां-बाप की मर्जी नहीं चलती तो तुम्हारा क्या चलेगा…।’’
मिट्ठू आपे से बाहर हो गया हाथ बढ़ाकर उसकी गिरेबान दबोच ली और करीब लाकर आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘‘आज से तुम उस मदन के साथ नहीं जाओगी, मौज-मस्ती तुमको सिर्फ मेरे साथ करनी है, इसकी मैं कोई भी कीमत दूंगा…अगर नहीं मानी तो उस मारवाड़ी बनिये को पार-घाट लगा दूंगा…तुम मुझे ठीक से पहचानती नहीं हो।’’ कहकर उसे परे झटकते हुए दांत भींचता बाइक पर सवार हो गया, टुंपी वहीं गुस्से से तबतक धुंधुआती, सुलगती, धधकती रही जबतक मदन अग्रवाल उसके आंच और ताप को साझा कर खुद भी उसके साथ धधकने और दहकने नहीं लग गया…
शाम के समय अगर मिट्ठू दुकान में बैठा था तो इसलिए कि वह किसी भी जगह इससे भी ज्यादा बैचेन होता। यहां भी बैठकर वह यहां कहां था वह लगभग सारा समय टुंपी के संग बिताए अंतरंग समय की यादों में और अब वियोग में मदन अग्रवाल को सबक सिखाने के सूत्रों की तलाश में उद्वेलित था। अनायास मदन अग्रवाल ने दुकान के आगे बाइक में ब्रेक लगाई और पलक झपकते ही मिट्ठू का कॉलर पकडकर तड़ातड़ कई घूसे उस पर जमाता चला गया। अकस्मात हुए हमले से मिट्ठू कुर्सी से गिरते-गिरते दीवार से टकरा गया। उसके कॉलर पर हाथ कसे हुए ही तेजी से श्वांस लेते हुए मदन बोला, ‘‘क्यों…बे तिवारी तुमने टुंपी को बेइज्जत किया…हमको पार-घाट लगाने की धमकी देकर आया है…!’’
नौकरों और ग्राहकों ने उसे छुड़ाया। पड़ोस के दुकानदारों और ग्राहकों, राहगीरों की भीड़ जमा हो गई। कोलाहल मच गया। कोई हीरा तिवारी को बुला लाया। गुस्से में आगभभूका बना मदन लगातार मां बहन की गालियां बकता जा रहा था। मिट्ठू कुछ समझ पाता उसके पहले ही घूसे खाकर अवाक् था। तबतक हीरा तिवारी पहुंच गए वह आंखें फाड़-फाड़कर कुछ देर तक चुपचाप मिट्ठू की यह दशा और और अब मदन अग्रवाल पर आनेवाली महादशा पर सोचने लगे। लोग मदन को सड़क पर ले गए, वह छुड़ाकर अपनी बाइक को किक मारते हुए धमकी देते गया, ‘‘अगर साले तुमने टुंपी की तरफ देखा तो हम सरेआम भरे बाजार में तुम्हारा खून कर देंगे…।’’ और जलजलाते हुए निकल गया।
मिट्ठू मार-गालियां खाकर सन्न खड़ा था परंतु अब हीरा तिवारी चुप नहीं रहे वह लकदक करते उसके पास पहुंच गए और उसके बाल को मुट्ठी में पकड़कर जोर से सर को झिंझोड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों बे मिठुआ तुमको इसी दिन के लिए दूध, घी और छाली खिला-खिलाकर पाले हैं कि तुम मां, बहिन की गाली खाकर चुप खड़े रहो…ई लाल तेइस-चौबीस साल का जवान शरीर का क्या अंचार डालेगा… आज वह घूंसा, गाली और धमकी देकर चला गया कल वह यहीं तुम्हारा मर्डर करके चला जाएगा…तुम इसी तरह देवघर बस स्टैड पर धंधा चलाएगा?… इससे बढ़िया यही है न कि वह तुमको सबके सामने खतम करे इससे पहले तुम उसको खतम कर दो…! उसकी कैसे हिम्मत हो गई कि इस पंडो की ठट्ठ में कोई मारवाड़ी का लौंडा तुम्हारा यह हाल करके चला जाए…उन्होंने दाहिने हाथ से अपना कलेजा ठोंकते हुए कहा…बाकी जो होगा हीरा तिवारी सब देख लेगा…इसका जल्दी इंतजाम करो।’’
कहकर वे लोगों की तरफ मुड़े और कहा, ‘‘चल बे सब अपना काम कर, चल भीड़ हटा।’’ और अपनी दुकान की तरफ बढ़ गए।
दो-तीन दिनों के बाद सत्यम रात के करीब ग्यारह बजे रिखिया आश्रम से एक विदेशी जोड़े को छोड़कर आया था। यह विदेशी सवारी जसीडीह में ट्रेन से उतरकर रिखिया जाने के लिए ऑटो तलाश रही थी जिस-जिस को ऑटो-टैक्सी वाले से उसने पूछा गोरी चमड़ी देखते ही सबने उसे रात में होटल में रूकने की सलाह देने लगा और समझाने लगा कि यहां से बहुत दूर है, रात का समय है। रास्ता भी खराब है। ताकि उसे मोटी रकम होटल वाले की तरफ से मिल सके। यह उस विदेशी सवारी को भी पता था कि रिखिया मुश्किल से देवघर से सात-आठ किलोमीटर ही है। यह सब देखकर सत्यम से रहा नहीं गया उसने सवारी को ऑटो में बैठने को कहा और अधिकार से बोला, ‘‘चलिए मैं आपलोगों को पहुंचा दूंगा किराया जो उचित होगा दे दीजिएगा।’’ सवारी पहुंचकर उससे खुश होकर बिना मांगे ही मना करते-करते भी डबल से भी ज्यादा किराया दिया। रास्ते में उन्होंने सत्यम से उसके गांव, घर परिवार वालों के बारे में बड़े प्यार से पूछा यह जानकर कि इतनी कम उम्र में उसकी शादी हो गई और एक बेटा भी है। वे लोग खुब खुश हुए और उतरते हुए कहा ‘‘आप बहुत भोले और ईमानदार हैं, हमें यहां जहां कहीं भी आना-जाना होगा तो आप से कान्टेक्ट करेंगे और एक दिन आपके पूरे परिवार से मिलने आपके घर भी आएंगे…वे देर तक जबतक ओझल नहीं हो गए सत्यम को देखकर मुस्कराते हुए हाथ हिलाते रहे।’’ सत्यम को लगा जैसे सच्चा और सरल होना उतना बुरा नहीं है जितना उसके सारे रिश्तेदार और गांव समाज समझता है और उसे बकलोल कहते है। वह लौटते हुए बार-बार खुद-ब-खुद मुस्करा रहा था।
उसने देखा आज भी मिठाई दुकान की शटर थोड़ा खुला हुआ है। अंदर आया कुर्सी खींचकर बैठ गया। सबने एकसाथ सत्यम का स्वागत किया। आज फिर महफिल सजी है। परंतु मदन को देखकर वह आश्चर्य में पड़ गया, मिट्ठू की पिटाई वाली बात उसे भी पता है हालांकि मिट्ठू इस बारे में उससे कुछ कहा नहीं परंतु इस तरह की बातें छुपती कहां है। माहौल देखकर उसे लग गया था कि मिट्ठू भी उसके साथ मार-पिटाई जरूर करेगा परंतु यहां जिस तरह सब गलबहियां डाले मस्ती कर रहे थे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। उसे सुखद अनुभूति भी हुई कि चलो झगड़ा-झंझट नहीं हुआ यही अच्छा हुआ इससे किसी को कुछ फायदा थोड़े ही होने वाला था।
गुलटेन सिंह घूंट लगाते हुए कह रहा है, ‘‘यार कभी-कभी गलतफहमी हो जाती है, इसके कारण बरसों पुरानी दोस्ती में दरार थोड़े ही पड़ना चाहिए…उस दिन जो भी हुआ गलत हुआ।’’
बीच में ही मिट्ठू गुलटेन की आंखों में अपनी अपनी आंखों से तुकबंदी करते हुए बोल पड़ा, ‘‘इसमें कुछ हद तक गलती मेरी भी है…शुरू से हमलोग जो भी करते रहे हैं साथ-साथ लेकिन टुंपी के मामले में यार हम अकेले मजा लेने लगे और बात छुपाकर तुमलोगों से धोखा किया…उसी कारण सब हुआ…हमको इस बात के लिए बहुत अफसोस है यार मदन।’’
मदन को भी अब चढ़ चुका था उसको दो पैग के बाद ही चढ़ जाती है, वह फूट पड़ा, ‘‘हां यार मिट्ठू हमको बहुत दुःख पहुंचा था हमलोग आज-तक जितने मौज-मजे किए सब साथ-साथ परंतु टुंपी के मामले में तुम सब कुछ छुपा गया…इसलिए हमको भी गुस्सा आ गया और उसको हार देकर उसको तुमसे छीन लिया…लेकिन तुमने गलती पहले किया यार,’’ वह मिट्ठू की ओर देखते हुए रुआंसा होकर बोला।
मिट्ठू भी दुखी मन से बोला, ‘‘हमसे जिंदगी का बहुत बड़ा गलती हुआ…हमको माफ कर दो मदन…’’
बीच में ही गुलटेन सिंह बोल पड़ा, ‘‘हां मिट्ठू गलती हुई परंतु तुमको इतना आसानी से नहीं छोड़ा जाएगा तुमको इसके लिए पार्टी देना पड़ेगा।
मिट्ठू बोला, ‘‘मदन से दोस्ती के लिए पार्टी क्या चीज है यह कह दे तो हम अपना जान दे दें…बोलो क्या पार्टी चाहिए, कहां चाहिए?’’
‘‘अरे वहीं अजय नदी में पुन्हासी डेम के नीचे जंगल से घिरे सफेद रेत के रेगिस्तान में, जहां पिछले साल मनाए थे। क्या मदन ठीक हैं ना…’’ गुलटेन सिंह बोला।
मदन याद करते हुए कहा, ‘‘हां यार वहीं, पिछले बार बड़ा मजा आया था…मिट्ठू कुछ ज्यादा ही टुल्ल हो गया था हमलोग कैसे इसको बालू पर घिसियाते हुए नदी में ले जाकर पानी में डुबाए थे तब इसको थोड़ा होस आया था परंतु बड़ा दिक्कत हुआ था साला इससे बाइक भी नहीं चल रहा था, कई जगह एक्सीडेंट करते-करते बचा था…’’
बीच में ही मिट्ठू बोल पड़ा, इस बार कोई दिक्कत नहीं होगा क्योंकि कल हमलोग सत्यम मामू के टैंपू से चलेंगे इस बार थोड़ा मामू को भी पार्टी का मजा आना चाहिए…गुलटेन सिंह बोला, हां मामू मना मत कीजिएगा, अरे कभी-कभी थोड़ा जिंदगी का मजा भी लेना चाहिए…मदन भी बोल पड़ा हां मामू मना मत कीजिएगा हमलोग कल पिकनिक मनाने जांएगे।’’
सब शांत हो गए तब सत्यम बोला, ‘‘…एक बात कहें, हम कभी नहीं जाते तुमलोगों की पार्टी में परंतु अब हम जरूर जाएंगे क्योंकि हमको इन दो-तीन दिनों से बहुत डर लग रहा था कि तुमलोग एक बार फिर जरूर मार-पिटाई करेगा परंतु आज फिर से मिल जाने की खुशी में मैं भी जरूर जाऊंगा पार्टी मनाने। सबने कहा, ‘‘बिल्कुल मामू हमारी दोस्ती जिंदाबाद।’’ सारे लोग उठ गए।
गुलटेन सिंह बोला, ‘‘ठीक है तो कल हमलोग तीन बजे यहीं मिलते हैं मिट्ठू सब व्यवस्था करके रखेगा।’’ फिर मिट्ठू की नजरों में उतरते हुए कहा तैयारी पूरी होनी चाहिए भाई…। मदन ने भी कहा, ‘‘तैयारी पूरी होनी चाहिए।’’ मिट्ठू दांत पर दांत चढ़ाते हुए कहा, ‘‘पूरी रहेगी, चिंता मत करो।’’ और सब चल दिए।
दूसरे दिन सभी नियत समय पर पहुंच गए। मिट्ठू पहले ऑटो की पिछली सीट के नीचे एक थैला, शराब की पेटी, ठंडे पेय पदार्थों की बड़ी-बड़ी बोतलें, भुने मुर्गे तथा खाने-पीने का अन्य सामान रख दिया। आज तीनों मौज-मजे के लिए जा रहे थे। जसीडीह के बाहर निकलते ही साइड में ही रखीं बीयर की बोतलें निकाल लीं और तीनों पीने के साथ पिछली बार के पिकनिक के यादों को कुरेदते हुए घूंट भरने लगे। वे लोग करीब साढ़े चार बजे तक पुन्हासी डेम के पास पहुंच गए। जहां कच्चा रास्ता खत्म होता है। नदी के प्रारंभ में एक विशाल बरगद का पेड़ है। वहीं किसी के अंतिम संस्कार पिंडदान के कई सामान हंडिया, सफेद कपड़े, एवं कई प्रकार के भोज्य पदार्थ बिखरे पड़े थे जिसपर कौओं की टोली धमाचौकड़ी मचा रही थी। कुत्ते आज के मिष्टान युक्त शाकाहार श्राद्ध से संतुष्ट हो सुस्ता रहे थे। साथ ही साथ शायद कुछ ताजा मांसाहार की चिंता में निमग्न थे क्योंकि बहुत दिनों से पूरे जले लाश की हड्डियों से ही काम चलाना पड़ रहा था इससे दांतों की कसकसाहट को सुकुन तो मिलता था परंतु कोई रस नहीं मिलने के कारण जीभ तरसकर रह जाता था इसलिए वे कोई पूरे या अधजले लाश की लालसा में निमग्न थे।
गुलटेन सिंह ने वहीं पर ऑटो लगाने के लिए कहा और सब उतर गए। वहां से जिधर देखो उधर घना पलास का वन था नदी में मुख्य धारा के पहले दूर-दूर तक बालू-ही-बालू का रेगिस्तान था। वे तीनों सारे सामान पॉलीथीन, पेटी, बोतल आदि लेकर नदी की ओर बढ़ने लगे सत्यम बोला, ‘‘तुमलोग जाओ हम यहीं बैठते हैं। मदन आश्चर्य से बोला, ‘‘क्या बात करते हैं मामू आप कैसे नहीं चलिएगा।’’ गुलटेन सिंह बोला, ‘‘अजीब बात करते हैं, आप कोई हमलोगों का टैंपू (ऑटो) ड्राइवर हैं क्या? कि आपको यहीं छोड़ देंगे।’’ मिट्ठू अनमने भाव से बोला, ‘‘आ जाइए, आप थोड़ा खाकर जल्दी ऑटो के पास आ जाइएगा।’’ मदन खींचकर साथ ले लिया। वे लोग कुछ दूरी चलकर बालू के एक टीले के नीचे चिकने जगह पर सामान रखकर गोल होकर बैठ गए। खाने की सामग्री चिकन फ्राई, सलाद आदि निकाला गया। व्हिस्की तीन गिलास में डाली गई और शुरू हो गई पार्टी। सत्यम को मिट्ठू ने एक पेप्सी की बोतल दे दी। पैग-दर-पैग बनने लगा तीनों की आंखों में सुरूर छाने लगा। पैग बनाते समय मिट्ठू जानबूझकर मदन के प्याले में शराब ज्यादा और पानी कम डालता जबकि खुद के और गुलटेन के गिलास में शराब कम और पानी ज्यादा डालता था।
कुछ ही देर में मदन पर नशा सवार हो गया और वह आ गया अपने पर, ‘‘यार मिट्ठू पार्टी तो जोरदार हो रही है लेकिन कुछ मजा नहीं आ रहा है…’’
गुलटेन सिंह बोला, ‘‘हां यार कुछ और होना चाहिए था…।’’
मदन बोला, ‘‘हां यार बिना लड़कियों का पार्टी का अब कुछ मजा नहीं है…।’’
गुलटेन सिंह उसे थोड़ा और भड़काया, ‘‘हां यार टुंपी और उसकी सहेलियां भी होतीं तो पार्टी का मजा ही कुछ और था…’’ मदन गिलास खत्म किया जिसे मिट्ठू ने तुरंत भर दिया।
एक बड़ा घूंट भरते हुए बोला, ‘‘बिल्कुल सही बोला, टुंपी के बिना कोई भी पार्टी अधूरी है…अब उसके बिना कहीं मन नहीं लगता है भाई…यार मिट्ठू तुमने मेरे साथ धोखा किया,… तुम अकेले उसके साथ मौज मारने लगे…तुमने मेरे साथ धोखा किया…लेकिन हम भी उसको तुमसे छीनकर ही छोड़े…तुम उससे पैसे के बल पर मौज कर रहे थे लेकिन हम ठहरे मारवाड़ी बनिया, मेरे सामने तुम कहां टिकेगा…’’ मिट्ठू दांत पर दांत दबाकर सुनता और उसको गिलास भर-भरकर पिलाता रहा।
मदन चालू ही रहा, ‘‘उस दिन के लिए सॉरी मिट्ठू पर…टुंपी के लिए हम किसी से भी भीड़ सकते हैं यार… कोई हमारे और उसके बीच आए तो हम उसका कत्ल भी करा सकते हैं…तुम उसको भूल जाओ मिट्ठू…।’’
मिट्ठू के आंखो में खून उतर आया उसने सत्यम से कहा मामू आप जाकर ऑटो में बैठ जाइए…। गुलटेन सिंह ने भी आखें कसते हुए कहा, ‘‘हां मामू आप जाकर बैठ जाइए हम लोग थोड़े देर में आ रहे हैं…। सत्यम दोनों की लाल सुर्ख आंखों को देखकर समझ और सहम गया कि कुछ अनहोनी होने जा रही है। वह उठकर जाने लगा इधर मदन मदहोसी में लगातार बके जा रहा था, ‘‘यार मिट्ठू सॉरी परंतु तुम कभी हमारे और उसके बीच मत आना, यार नहीं तो हम तुम्हारा कत्ल करा देंगे…’’ सत्यम अभी दस कदम भी नहीं गया था कि मिट्ठू मदन के सर पर बड़ा कांच की बोतल दे मारा सर से लहू का फव्वारा फूट पड़ा। मदन का सर घुम गया वह लड़खड़ाकर संभल भी नहीं पाया था कि मिट्ठू उस पर झपट्टा मारा, ‘‘…मादर…मेरा कतल करा देगा…!’’ और उसपर लात-घूसों की बरसात करने लगा। मदन चिखा लगा, हां अगर तुम टुंपी को कुछ कहा तो हम…’’ अबकी गुलटेन सिंह भी उठा और दोनों लात से हुमच-हुमचकर उसके कलेजे पर वार करने लगे।
सत्यम कुछ दूर जाकर स्तब्ध खड़ा हो गया। दोनों मिलकर उसको लात-घूंसो से पटक-पटककर बेतहाशा मार रहे थे। अब मिट्ठू चीख रहा था, ‘‘साले तुमने उस रंडी टुंपी के लिए भरे बाजार में मेरी मां बहन को गाली दिया…हमको घूंसा मारा, क्या समझा, हम सब सहन कर लेंगे…?’’ और उसके सीने पर लातों की बरसात कर दिया।
सत्यम अविचलित, अवाक् देख रहा था। वहां जाकर मदन को छुड़ाना चाह रहा था परंतु उसके कदम नहीं उठ रहे थे…वह वहीं जड़वत हो गया उसकी आखें मदन पर थी और पैर बालू में धंसता जा रहा था।
मदन पिटकर भूस बन गया था दोनों फिर भी उसे घसीट-घसीटकर मार रहे थे वह अब हांफते हुए मरी-मरी आवाज में रिरिया रहा था, ‘‘…भाई हमको छोड़ दो… हमसे बहुत बड़ी गल्ती हो गई…अब हम टुंपी का शक्ल तक नहीं देखेंगे…हमको माफ कर दो भाई, कहके मिट्ठू का पांव पकड़ने का प्रयास कर रहा था कि गुलटेन सिंह ने उसके मुंह पर जोरदार लात मारा… उसका चेहरा बालु में धंस गया खून और बालू में लिपटा वह बड़ा ही वीभत्स दिख रहा था। वह शायद बेहोशी की अवस्था में पहुंच गया। दौड़कर मिट्ठू थैले से लंबा चमचमाता ताड़ का पेड़ छिलने वाला धारदार लंबा हसिया निकाल लिया, उसका हाथ उसने खुद और पैर गुलटेन सिंह ने गमछे से कसकर बांध दिया। मिट्ठू ने गुलटेन सिंह से कहा, ‘‘इसके जांघ पर बैठ जाओ हिलने मत देना।’’ एक हाथ से उसके सर को दबाकर गर्दन रेतने लगा मदन छूटने के लिए हुमक-हुमककर अंदर से मचल रहा था। पूरा शरीर हिल्लोल मार रहा था…बंधा हाथ जोरों से फेंक रहा था। मिट्ठू ने उसके हाथों पर हसिया से कई वार कर लहूलुहान कर दिया उसने गुलटेन सिंह से जोर से पकड़ने को कहकर अबकी तेजी से गर्दन पार कर दी। गुलटेन सिंह भी छोड़ दिया। मदन का सर कटा धड़ बालू पर लोटमपोट हो गया…गर्दन से रक्त का सैलाब उमड़ पड़ा। पैरों की रगड़ से बालुका कणों की धुर्रे की बौछार उसे ढंकने का असफल प्रयास कर रही थी।
शाम का धुंधलका छा रहा था। गुलटेन सिंह और मिट्ठू दोनों नरपिशाच बन गए थे। मिट्ठू ने मदन के सर को बाल पकड़कर उठाया और दोनों काफी दूर जाकर बालू में जांघ भर गड्ढा किया। मदन का सर पहले पॉलिथिन में कसकर बांधा फिर गड्ढ़े में डालकर बालू से भर दिया। इससे निजात पाकर नदी में साबुन से रगड़-रगड़कर नहाया, हसिया को दूर बहती पानी की तेज धारा में फेंक दिया। वापस आकर खून सने कपड़ों को बैग में ठूंसा दूसरे कपड़ों को पहना और बैग उठाकर मिट्ठू लाश को एक नजर देखा उस पर खंखारकर थूका और दोनों ऑटो के पास आ गए।
सत्यम कब और कैसे ऑटो में आकर निढ़ाल हो गया उसको भी पता नहीं चला ध्यान तब टूटा जब गुलटेन सिंह ने उसे झकझोरकर कहा चलिए मामू, गाड़ी स्टार्ट कीजिए। सत्यम लाल सुर्ख विस्फारित आंखों से दोनों को कुछ देर तक देखता रहा फिर आंखें मुंद लिया। दो-तीन बार मिट्ठू ने भी उसे झकझोरा वह आंखें फाड़-फाड़कर देखा फिर कोने में सिकुड़ गया। मिट्ठू ने गुलटेन से कहा यार तुम्हीं गाड़ी चलाओ इन्हें रहने दो ये तो बिना पिए ही टुल्लन हो गए। गुलटेन गाड़ी स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘यार मामू को देखकर मुझे डर लग रहा है यह कुछ गड़बड़ तो नहीं करेंगे। मिट्ठू बोला तुम निश्चिंत रहो, मामू बहुत ही सीधा आदमी है। फिर सत्यम से बोला, ‘‘मामू आप किसी से इस बात की चर्चा मत कीजिएगा…हमलोग अगर फंस भी गए तो आपका नाम मरते दम तक नहीं लेंगे।’’ गुलटेन सिंह भी बोला, ‘‘हां मामू हमलोग आपको कभी फंसने नहीं देंगे। सत्यम निष्प्राण अर्द्धनिमिलित आंखो से शून्य में देखता पड़ा रहा। उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।
मिट्ठू ने बैग से पैसा निकाला और गुलटेन सिंह से बोला, ‘‘लो गुलटेन तुमसे पच्चीस हजार में बात हुई थी न, दस हजार पहले दिया था और अब बीस और लो…ऐसे समय में साथ देने के लिए पांच हजार और…कभी किसी चीज की जरूरत पड़े तो मांग लेना…तुम्हारे लिए हम कुछ भी करेंगे।’’ गुलटेन ने कहा, ‘‘अरे मिट्ठू तुम्हारी दोस्ती के आगे मेरे सामने कुछ नहीं है यार…।’’ वे लोग जसीडीह आ गए चकाई मोड़ पर पान की गुमटी के पास पवन दिख गया गुलटेन को ऑटो रोकने को कहा। पवन से कहा मामू को घर छोड़ दो हमलोग यहां से दूसरा गाड़ी ले लेंगे। उसने सत्यम के पॉकेट में एक हजार रुपए भर दिया और कहा, ‘‘आप अपना घर चले जाइए, हमलोग दूसरा ऑटो ले लेंगे और दो-चार दिन अभी गाड़ी नहीं निकालिएगा…कोई पूछे तो कह दीजिएगा तबीयत ठीक नहीं है। दोनों ने दूसरा ऑटो पकड़ लिया, सत्यम कैसे घर आया खुद उसे भी पता नहीं चला।
3.
दूसरे दिन सत्यम काफी देर तक सोया रहा। कई बार सरलु मिसर आवाज लगा गए, जयंती कई बार आवाज देने के साथ हिला-डुला भी गई, बेटा सीने पर सवार होकर उठो पापा, उठो पापा करते-करते निराश होकर दूसरे खेल में रम गया परंतु वह बेसुध पड़ा रहा। जयंती के जबर्दस्ती उठाने पर अनमने मन से जब उठा तो दिन के दस बज चुके थे। जयंती ने कहा, अब कुछ नशा-वसा भी करने लगे क्या जो कुछ होश-हवास नहीं रहता है। कल पवन कैसे घर पहुंचाया है कुछ पता है?’’ उसने कुछ जबाव नहीं दिया। उसका सर भारी था, पोर-पोर में दर्द था, हाथ पांव में कंपन हो रहा था। फिर भी वह उठा आंगन में आया। ऑटो को देखा, बाल्टी उठाई कुएं से भरकर पानी लाया और गाड़ी रगड़-रगड़कर धोने लगा। पानी लाया गाड़ी पर उड़ेल दिया…फिर लाया उड़ेल दिया। पूरा गाड़ी चमक गया फिर भी पानी ला-लाकर डालता रहा। पानी लाने और डालने के क्रम में पूरा आंगन, दालान कीचड़-कीचड़ हो गया, गली तो मानो पोखर बन गया फिर भी वह पानी डालता रहा। जयंती बोलती रही, ‘‘गाड़ी साफ हो गया है, काहे को पानी फेंकते जा रहे हैं…’’ उसने एक नहीं सुना। अंत में सरलु मिसर ने खुद उसे रोककर हाथ से बाल्टी ले लिया और कहा, ‘‘अरे साफ हो गया है क्यों फालतू में पानी फेंक रहा है…’’ उन्होंने उसकी आंखों में झांका तो देखा आंखें लाल भभूका थी। शरीर से कंपकपी छूट रही थी, छूकर देखा, शरीर तप रहा था। ‘‘…अरे तुमको तो बहुत बुखार है… क्या कर रहे हो…चलो आराम करो और उसे पकड़कर सुला दिया। सत्यम सोते-सोते बोला, ‘‘गाड़ी बहुत गंदा है…कल बहुत गंदा हो गया है…उसपर खून के छीटें पड़े हैं…।’’
मदन अग्रवाल के घर वाले उसे खोज-खोजकर परेशान थे, दूसरे दिन भी उसका कुछ पता नहीं चला। उसका भाई सुनील अग्रवाल दुबारा तथा हर जगह से हताश, निराश पिता नंदकिशोर अग्रवाल खुद मिट्ठू के दुकान पर पता करने गए परंतु उन्हें एक ही जवाब मिट्ठू की तरफ से मिला, ‘‘चाचा जबसे हम दोनों का झगड़ा हुआ हमलोगों की तो मुलाकात ही नहीं हुई। आप यहां किसी से भी पता कर सकते हैं।’’ उसका पूरा परिवार पागलों की भांति हर जगह भागता रहा, फोन से नाते-रिश्तेदार, बंधु-बांधव और जान-पहचान हर जगह पता कर लिया परंतु निराशा के सिवा कुछ हाथ नही आया। अंत में शाम को थाने में जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाया। थाना प्रभारी महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘हम पता कर रहे हैं आप भी एक बार फिर से नाते-रिश्तेदारों में पता कर लीजिए आज कल के लड़कों का कोई भरोसा नहीं कहां-कहां मौज-मस्ती करने चले जाते हैं और सबको परेशान करते हैं…।’’ वे लोग किसी तरह दुःख और आशंकाओं में गोते लगाते रात बिताया दूसरे दिन सुबह से ही पूरे शहर में शोर था कि पुन्हासी डैम के पास एक सर कटा लाश पड़ा है। वे लोग थाने भागे दरोगा ने कहा, ‘‘हम वहीं जा रहे हैं पता करने आपलोग से भी कोई चलना चाहें तो चल सकते हैं।’’ सुनील अग्रवाल पुलिस के साथ ही गया। वहां जाकर देखा बड़ा ही वीभत्स दृश्य था। दुनिया भर के कुत्ते लाश को घसीट-घसीटकर चबा रहे थे। पुलिस वालों ने किसी तरह उनको रगेदकर थोड़ा दूर भगाया और सुनील अग्रवाल से शिनाख्त करने के लिए कहा। वह उधर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था परंतु जैसे ही देखा कपड़ों और जूतों से पहचान गया और बेहोशी की हालत में पहुंच गया। पुलिस लाश को ले आई। पूरे शहर में कोलाहल मच गया कि किसी ने नंदकिशोर अग्रवाल के बेटे को काटकर पुन्हांसी डैम के पास फेंक दिया। दरोगा ने उनसे उनके दोस्तों-दुश्मनों के बारे में पूछा और पूरा आश्वासन दिया कि एक-दो दिनों में हम कातिलों को गिरफ्तार कर लेंगे।
इधर से निपटकर महेंद्र यादव हीरा तिवारी की दुकान के पास पहुंचा। इशारे से बुलाकर एक पुराने कबाड़ी बस की ओट में ले गया।
उसने कहा, ‘‘क्या तिवारी जी, यह क्या कर दिया आपके मिठुआ ने?’’
हीरा तिवारी ने अन्जान बनते हुए कहा, ‘‘हम कुछ समझे नहीं क्या कह रहे हैं आप?’’
महेंद्र यादव ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘…अरे आप सब समझ रहे हैं, परंतु इस बार मामला बहुत बिगड़ गया है, पूरे शहर में कोलाहल मचा है।’’
तिवारी ने कहा, ‘‘आपके रहते मामला कुछ नहीं बिगड़ेगा, शाम को बिरूआ पचास हजार पहुंचा देगा।’’
महेंद्र यादव बोला, ‘‘नहीं होगा, यह आपके गांव का बिना बाप का मामूली नौकर नहीं है, यह देवघर का नामी सेठ नंदकिशोर अग्रवाल का बेटा है। वह जमीन आसमान एक कर रहा है। एस.पी साहब दो बार बुलाकर निर्देश दे चुके हैं कि कातिल कोई भी हो तुरंत पकड़ो।’’
हीरा तिवारी ने कहा, ‘‘हमको सब पता है कि वह किसका बेटा था, परंतु आपको यह भी पता होगा कि वह सरेआम मिठुआ को मारा था और मां बहिन की ऐसी-तैसी किया था…क्या एक मारवाड़ी लौंडे को खुलेआम ऐसे ही करने देते और सह जाते?
महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘एस.पी. सुबोध सिन्हा बहुत अड़ियल है एक नहीं सुनेगा…।’’
हीरा तिवारी ने कहा, ‘‘ …आप सब संभाल लीजिएगा, कल और पचास हजार भेजवा देंगे परंतु मिठुआ का बाल-बांका नहीं होना चाहिए और सुनते हैं वह पसिया की बेटी टुंपी के चक्कर में सब हुआ है, उसको भी जरा मजा चखाना पड़ेगा।’’
‘‘चलिए हम देखते हैं आपलोग भी सावधान रहिएगा।’’ महेंद्र यादव कहकर जल्दी से निकल गया।
लाश का दाह संस्कार हुआ, पूरे शहर में उथल-पुथल मचा रहा, अटकलों का बाजार गर्म रहा। इस बीच महेंद्र यादव पैसा पाकर नंदकिशोर अग्रवाल एवं उसके संबंधियों को आश्वासन दे-देकर टहलाता रहा और सबूतों को मिटाता रहा। उसने टुंपी के घर जाकर उसके बाप जगन पासी को पकड़ा और चार धौल और दो लात जमाते हुए, कहा, ‘‘…बेटी पैदा करता है साले…और समय पर शादी-ब्याह नहीं कर पाता है, वह टाइट होकर बोगबोगाते रहती है… रंडीखाना खोल रखा है…’’ सामने पड़ गई टुंपी के सर से लेकर पैर तक मुआयना करते हुए आंखे तरेरते हुए कहा, ‘‘…दो रात थाने बुलाऊंगा ना, तो जो ई छाती और चूत्तड़ उतान कर चलती है ना सब ढीली पड़ जाएगी…।’’ फिर जगन पासी पर एक लात और जमाते हुए कहा, ‘‘दो दिन के अंदर इसकी शादी करके विदा कर, नहीं तो तीसरे दिन इसको मदन अग्रवाल मर्डर केस में गिरफ्तार कर जेल भेजूंगा…साले बेटी से धंधा और मर्डर करवाता है।’’ जगन पासी ने पांव पकड़ लिया, ‘‘साहब हमने लड़का देख लिया है इसका शादी करके जल्दी भेज देंगे आप हमको बचा लीजिए।’’ महेंद्र यादव फिर हीरा तिवारी के पास आया और कहा, दोनों लौंडों को जल्दी से कुछ दिनों के लिए यहां से कहीं गांव भेज दीजिए हालत ठीक नहीं है? कुछ भी हो सकता है…।’’
दूसरे दिन मारवाड़ी समाज की मीटिंग हुई। सारे लोग एस.पी. से मिले और उन्हें कहा कि पुलिस को सब पता है किसने यह कांड किया है फिर भी गिरफ्तार नहीं कर रही है…अगर आज गिरफ्तार नहीं किया गया तो हमलोग कल से सारे दुकान-बाजार अनिश्चत काल के लिए बंद करेंगे। एस.पी. सुबोध कुमार ने उनलोगों को आश्वासन दिया कि पुलिस तत्परता से काम में लगी है बहुत जल्दी गिरफ्तारी हो जाएगी। फिर एस.पी. ने महेंद्र यादव को बुलाकर डांटा, ‘‘…अभी तक गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई है…?’’ ‘‘सर हम दिन-रात इसी काम में लगे हुए हैं…’’ बीच में ही सुबोध कुमार ने टोका, ‘‘आप किस काम में लगे हुए मुझको सब पता है आज शाम तक मिट्ठू तिवारी और उसके साथियों को गिरफ्तार नहीं किया तो आपकी नौकरी जाएगी…!’’ महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘नहीं सर, गिरफ्तारी हो जाएगी।’’ सैल्यूट मारकर निकला और सीधे हीरा तिवारी के पास पहुंचा और कहा, ‘‘मिठुआ कहां है…? तिवारी आश्चर्य से बोला, ‘‘क्या हो गया…?’’ ‘‘कुछ नही उसको और गुलटेनवां को कुछ दिनों के लिए लॉक अप में बंद करना पड़ेगा।’’ सुनते ही हीरा तिवारी पसीने से नहा गए बोले, आपको एक लाख रुपया क्या मुंहदिखाई के लिए दिए…? बीच में ही दरोगा बोला, ‘‘…बीबी-बच्चा रहते बेटा खुलेआम रंडीबाजी करेगा…दिने-दुपहरे मर्डर करेगा तो पैसो नहीं दीजिएगा…हमरा नौकरी पर अब बन आया है अगर हम सस्पेंड हो गए तो आपके बेटा को फिर कोई नहीं बचा पाएगा।’’ हीरा तिवारी भी संभले, ‘‘देखिए पिछले बार बड़का बिरूआ को डकैती वाले केस में पैसवा खाने के बाद भी पांडेय जी पूरा देह-हाथ चूर-चारकर नाखुन-वाखुन सब उखाड़ लिए थे। महेंद्र यादव बोला, ‘‘वो हम नहीं पांडेय जी थे…नौकरवा के केस में हम कुछ होने दिए थे…! लेकिन अगर शाम तक उसको हम नहीं पकड़े तो उसको हम नहीं बचा पाएंगे…जल्दी बताइए कहां है?’’ हीरा तिवारी बोला, ‘‘उसको अपना गांव गिद्धोर के पास सिमरा भेज दिए हैं…लेकिन उसको मारिएगा नहीं…!’’ यादव बोला, ‘‘कुछ और खर्चा करना पड़ेगा मामला बहुत बिगड़ गया है।’’ तिवारी बोला, ‘‘सब करेंगे परंतु…’’ यादव बोला, ‘‘चिंता मत कीजिए।’’
महेंद्र यादव उसी दिन शाम को दोनों को पकड़कर ले आया और दूसरे दिन कोर्ट में पेश कर दिया जहां से उसे पूछताछ के लिए दो दिनों के लिए पुलिस रिमांड पर और फिर जेल भेज दिया गया। महेंद्र यादव ने थाने में उसका आवभगत के लिए तिवारी से और पच्चीस हजार ले लिया। सारा सबूत और सुराग खुद एक-एक कर मिटा दिया यहां तक कि वह कटा सर और हसिया को भी बरामद नहीं दिखा सका। फिर भी सेशन कोर्ट ने उसे जमानत नहीं दिया। इधर बिरू तिवारी हर दो-चार दिनों में दो-चार लड़कों के साथ नंदकिशोर अग्रवाल के दुकान में जाकर धमकी दे आता कि, ‘‘सेठ जी जो हो गया सो हो गया आगे अगर ज्यादा केस-मुकदमा बढ़ाए तो बड़का बेटा सुनील अग्रवाल को सरेआम यहीं गोली मार देंगे फिर जवान बहू और पोता-पोती को लेकर रोते रहिएगा पुलिस के पास।’’ नंदकिशोर अग्रवाल दहशत से घुटकर रह जाते। जिला न्यायालय से जमानत मिलने से पहले मिठ्ठू और गुलटेन सिंह को महीने भर जेल में रहना पड़ा, इस दौरान उन दोनों की खूब मेहमानबाजी हुई एक दिन भी उन दोनों ने जेल का खाना नहीं खाया। घर से उसकी मां अपने हाथों से बनाकर अनेक प्रकार के व्यंजन मुर्गा, मांस, मछली, खीर, दही मक्खन भेजती। सिगरेट का पैकेट यहां तक गांजा भी जाता, हीरा तिवारी खुद बिरू तिवारी से कहते, ‘‘बेचारे की आदत है रे कैसे रह पाएगा भेजवा दो।’’ जमानत पर छूटने पर जेल से लेकर घर तक उसका ऐसा स्वागत हुआ मानो विश्वस्तर के खेलों में या फौज में कोई बहादुरी का कोई महत्त्वपूर्ण मेडल पाकर वापस आया हो।
सरलु मिसर को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि ऐसा सत्यम के साथ क्या हो गया कि यह अजीब हरकतें करने लगा है। वह उस दिन के बाद कई दिन ज्वर से पीड़ित रहा बुखार जब भी उतरता वह बाल्टी लेकर पानी भर-भरकर ऑटो की सफाई करने लगता जब वे रोकते बाल्टी छीनते तो वह चीखने लगता, ‘‘दादा हमको बाल्टी दे दीजिए गाड़ी से दारू और मांस का गंध आ रहा है…आपको नहीं दिखता इसमें जगह-जगह पर मदन अग्रवाल का खून लगा हुआ है…बाल्टी दे दीजिए इसको साफ करना पड़ेगा…आप बात को समझते क्यों नहीं, बाल्टी दीजिए…’’ वे भी कहते बेटा हां यह गंदा है इसको हम सर्फ से साफ करेंगे तुमको बुखार लगा है ना, तुम आराम करो…हम साफ कर रहे हैं। यह क्रम लगातार कई दिनों तक चलता रहा। डॉक्टर से दिखाया ज्वर तो उतर गया परंतु बैचेनी जस की तस थी। वह रात दिन कुछ न कुछ इसी बारे में सोचता रहता। रातों को कई-कई बार गाड़ी के पास पहुंच जाता और उसे निहारने लगता, भय के मारे कहीं घर से बाहर जाने का नाम नहीं लेता। पत्नी उसे खूब समझाने और पूछने का प्रयास करती परंतु वह उसे कोई जवाब नहीं देता। परम तो उसे देखते ही सहम जाता।
सरलु मिसर को मदन अग्रवाल की हत्या और मिट्ठू तिवारी की गिरफ्तारी की खबर लग गई थी। परंतु तफसील से पता करने देवघर गए कि ऐसा क्या हुआ कि सत्यम की यह हालत होती जा रही है। हीरा तिवारी मिलते ही धीरे से कहा, ‘‘क्या बतायें मिठुआ, सत्यमा, गुलटेनवां और मदन अग्रवाल पिकनिक मनाने गया था पता नहीं वहां क्या हुआ कि मदन अग्रवाल मर गया पुलिस सब को पकड़कर ले गई है…परंतु आप चिंता मत कीजिए कोई सत्यमा का नाम नहीं लिया है। हम मना कर दिए हैं कि, मर जाना पर सत्यमा का नाम मत लेना…आप भी कुछ दिन उसको घर से निकलने नहीं दीजिएगा…बाकी हम सब देख लेंगे। वे सब बात समझ गए परंतु हालात के आगे असहाय थे। वे निराश घर लौट आए।
घर का दृश्य देख वह भौंचक रह गए सत्यम ऑटो में पानी डाल-डालकर पूरे आंगन को तालाब बना दिया था, बहू उससे बाल्टी छीनने का प्रयास मे उससे उलझ रही थी और छीना-झपटी में कई जगह चोट खा चुकी थी। दोनों के बीच परम कीचड़ में उठ गिर रहा था और रो-रोकर बुरा हाल था। पूरे गांव के औरत-बच्चे तमाशबीन बने देख रहे थे। उनको समझ नहीं आ रहा था क्या करें, पहले तो मन किया की अपना ही सर कहीं दीवार पर दे मारें परंतु अपने को संभाला और सत्यम को पकड़कर कमरे में ले गए। सीने में लगाकर उसके सर को सहलाया और बोले, ‘‘मुझे सब पता चल गया है कि मिठुआ और गुलटेनवां मदन अग्रवाल को मारकर फेंक दिया परंतु तुम चिंता मत करो पुलिस उनलोगों को पकड़कर जेल भेज दिया है…’’
यह सुनकर सत्यम की आखों में चमक आ गई। उसने कहा, ‘‘जेल भेज दिया! यह ठीक किया दादा वो लोग बहुत बड़ा गुंडा है…उनलोगों ने पिकनिक के बहाने ले जाकर दारू पिलाकर उसको बुरी तरह से मारा और गर्दन काटकर गाड़ दिया…वह सहायता के लिए बहुत तड़प रहा था परंतु हम कुछ नहीं कर सके, पता नहीं क्यों यह देखकर मेरा हाथ-पांव सब सुन्न हो गया था…वो लोग बहुत बड़ा गुंडा है…इसके पहले भी कई लोगों को मार चुका है… हीरा तिवारी नशे का धंधा करता है और हमसे भी वह करवाता था…वह ऑटो खरीदवाकर हमको फंसा लिया दादा…यह ऑटो पाप का जड़ है…इसे बेच दीजिए…और सीने में लगकर फफककर रोने लगा इसे यहां से हटा दीजिए दादा, इसे देखते ही मैं पागल हो जाता हूं…।’’ सरलु मिसर उसकी पीठ सहलाते हुए बोले, ‘‘तुम चिंता मत करो इसे हम कल ही घर से हटा देंगे। तुम ठीक हो जा बेटा…तुम कुछ और कर लेना।’’
दूसरे दिन तड़के पवन को बुलवाकार सरलु मिसर ने कहा, ‘‘पवन इस टेंपू को ले जाओ अगर कोई ग्राहक मिले तो बेच देना, मुझे अपना बेटा से बढ़कर कुछ नहीं है अगर यह ठीक रहेगा तो बहुत कुछ है करने के लिए।’’ पवन बोला, ‘‘आप चिंता मत कीजिए बाबा कोई न कोई ग्राहक मिल ही जाएगा नहीं तो जब तक मेरे पास रहेगा हम इसे चलाकर आपको भी आपका हिस्सा पहुंचाते रहेंगे।’’ यह कहकर वह ऑटो ले गया। सत्यम अब धीरे-धीरे ठीक होने लगा। घर में, गलियों में, खेत-खलिहानों में घूमने-टहलने लगा, गांव के लोगों से बोलने-बतियाने लगा। अभी भी अकेले में या फिर रात में नींद रह-रहकर टूट जाती और फिर वह सारा हादसा सामने आ जाता और बैचेन हो जाता परंतु अंदर से जज्ब करने का भरसक प्रयास करता कि मेरे कारण दादा या जयंती फिर से परेशान न हो जाएं। सरलु मिसर सोच रहे थे कि जाने दो ऑटो में जो पैसा गया वह शायद किसी की देनदारी थी इसी बहाने चली गई, ऐसे भी घर में ईश्वर दया से कोई चीज की परेशानी नहीं है। अभी सत्यम की उम्र क्या हुई है, कुछ न कुछ तो करेगा ही।
सत्यम नाश्ता-पानी कर दालान पर गांव के कई लोगों के साथ बैठा था कि उसी का हमउम्र संतोष मिसर आज का अखबार देखते हुए आया और उन लागों से मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘मिठुआ और गुलटेनवां जेल से छूट गया…’’ इसपर टेंटू सिंह ने कहा, ‘‘धव मर्डर केस में भीतर गया है इतना जल्दी कैसे छूट जाएगा…’’ संतोष ने अपने हाथों में मुड़े प्रभात खबर सबके सामने रख दिया जिसके मुख्य पृष्ठ पर ही बड़ी खबर थी की मदन अग्रवान मर्डर केस में कोई गवाह नहीं होने के कारण मिट्ठू तिवारी और गुलटेन सिंह को बेल मिली, जेल से रिहा और साथ में दोनों की फोटो भी लगी थी। यह देखते ही सत्यम के चेहरे पर पसीना उभर आया उसके अंदर से हुलक उठने लगी, धड़कने धाड़-धाड़ बजने लगी…उसने पूरा दिन किसी तरह बेचैनी में इधर-उधर के काट दिया परंतु रात उसके सामने बैताल की भांति सर पर सवार हो गई। दादा और जयंती को दिखाने के लिए किसी तरह दो रोटी निगला और बिछावन पर आ गया। जेहन में सिर्फ और सिर्फ एक ही प्रश्न कौंधने लगा कि इतनी निर्ममता से मदन अग्रवाल की हत्या करने के बाद भी वह जेल से छूट गया? सिर्फ इसलिए कि कोई सबूत कोई गवाही नहीं है? वह पहले बिछावन पर ही एक ही करवट में रात काट देने को सोचा परंतु यह संभव नहीं हुआ, फिर करवट बदल-बदलकर समय काटने लगा, बार-बार पेशाब के लिए जाने लगा। बेचैनी बढ़ती गई। सीने में जलन होने लगी, कनपटियां तपने लगीं। ताजी हवा के लिए पहले आंगन में फिर छत पर चक्कर लगाने लगा। रात थी कि कट ही नहीं रही थी। किसी तरह भिनसार हुआ। धुंधलका जैसे ही छटने को हुआ वह फैसले पर पहुंच गया। वह धीरे से घर में घुसा, पैंट शर्ट पहना और निकल गया। तेजी से लपकते भागते हुए एक श्वांस में जसीडीह पहुंचा, ऑटो पकड़ा देवघर टेंपू स्टैंड उतरा, सामने मिट्ठू मिष्टान भंडार बंद था, बस स्टेंड पर हीरा तिवारी के चाय दुकान में नौकर चुल्हा सुलगा रहा था। वह टॉवर चौक से आगे बढ़कर बाबा गली में नंदकिशोर अग्रवाल की दुकान पर पहुंचा, वह बंद थी वहीं रुककर खुलने का इंतजार करना चाहा परंतु पहले ही धोखा दे चुके धैर्य कुछ सुनने को तैयार नहीं। अंदर से कुछ हिलोर मारने लगा। उसने देखा पास से गली से निकलकर मंदिर की और जाती हुई एक बूढ़ी औरत ओम नमः शिवाय, ओम नमः…जपते हुए बाबा मंदिर पूजा करने जा रही है। सत्यम ने साहस कर पूछ लिया, ‘‘माताजी नंदकिशोर अग्रवाल जी का घर किधर पड़ता है…।’’ उस औरत ने उसे घुरा, वह सुबह-सुबह पूजा के लिए जाते समय टोकने पर डांटने के लिए मुंह बना चुकी थी परंतु उसके मासूम भोले चेहरे को देखकर उसका इरादा अपने-आप बदल गया वह बोली, ‘‘यह पीछे वाली गली में चले जाओ दाहिने तरफ दूसरा ही मकान है।’’
दरवाजा खुला था वह हिम्मत करके अंदर चला गया और आंगन और घर के मुहाने पर खड़ा होकर दालान से इस बात का इंतजार करने लगा कि घर से कोई निकले तो वह पूछे। आंगन में दो-तीन साल का एक बच्चा अपनी छोटी साइकिल से खेल रहा था। तभी आधी घूंघट में एक जवान औरत निकली उसने उसे देख लिया पूछा, ‘‘भैया किससे मिलना है? क्या काम है? सत्यम बोला चाचाजी से काम है। महिला ने श्रद्धा से कहा, ‘‘बाबूजी अभी पूजा कर रहे हैं। वहीं दालान में बैठ जाइए।’’ सत्यम दरवाजे से लगे किनारे वाले सोफे पर बैठ गया। कुछ देर के बाद नंदकिशोर अग्रवाल सारे घर आंगन और दरवाजे पर घंटी बजाते और आरती दिखाते हुए आए, दालान में भी दीवारों पर लगे कई देवी-देवताओं की तस्वीर को उन्होंने आरती दिखाई फिर अंदर चले गए। कुछ देर बाद धोती कुर्ता में बाहर आए।
उसे निहारते हुए कहा, ‘‘बताइए क्या काम है?’’ और सत्यम की तरफ देखने लगे, सत्यम पहले घबरा गया। बोलने के प्रयास में गले से बाहर आवाज ही नहीं निकली, सिर्फ निहारकर और थूक घोंटकर रह गया।
दूसरे प्रयास में हिम्मत जुटाकर कहा, ‘‘मऽ..मऽऽ..मऽऽ… मेरा नाम सत्यम मिश्र है, घर बनौगा…उस दिन मेरे ही टेंपू से सब पिकनिक मनाने गए थे, मदन को मेरे सामने ही…उसके आगे उसकी आवाज घुट गई…वह सिर्फ बैचेनी से आंखे फाड़-फाड़कर देखने लगा।’’
अपने को स्थिर रखते हुए नंदकिशोर अग्रवाल ने नौकर को आवाज लगाया, ‘‘अरे श्याम इनको चाय लाकर दो।’’ फिर उन्होंने आंगन की तरफ झांकते हुए कि कोई हमारी बातों को सुन तो नहीं रहा धीरे से कहा, ‘‘इतने दिन आप कहां चले गए थे…?
सत्यम को हिम्मत हुई उसने कहा, ‘‘जब वे लोग उसको मार रहे थे तब देखकर मेरा दिमाग काम करना ही बंद कर दिया…हमारा हाथ पैर उस समय सब सुन्न हो गया, उस दिन हम कैसे घर पहुंचे यह तक हमको होश नहीं है…हम बीमार पड़ गए जब कुछ ठीक हुए तो मेरे दादा ने कहा कि सब जेल चले गए हैं…उन लोगों ने जो किया है उसकी सजा उनलोगों को मिलकर रहेगी…परंतु जब वो लोग जेल से छूट गए तब मेरा नींद-चैन सब खतम हो गया, हम रात भर जागते हुए बेचैनी से काटे हैं…।’’ एकाएक सत्यम उठ खड़ा हुआ बोला, ‘‘चाचा जी आप चलिए जहां मेरी गवाही की जरूरत है मैं दूंगा…सब मेरे नजर के सामने हुआ है…इन लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए…।’’
नंदकिशोर अग्रवाल ने उसके कंधे को सहलाया और फिर बिठाया अपने घर की तरफ चुपके से झांकते हुए कहा, ‘‘बेटा तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं? पिताजी क्या करते हैं?
सत्यम बोला दादा यानी पिताजी हैं। वे शिक्षक थे, अब रिटायर्ड हो गए हैं…पत्नी है और एक दो साल का बेटा। मां पिछले साल मर गई।
‘‘यानी तुम भी अकेले भाई हो! मेरा भी सुनील अब अकेला है उसका दो छोटा बच्चा है। पलकें बंद करते हुए कहा, ‘‘मदन को तो उनलोगों ने मार ही दिया…’’ आंगन की तरफ अपने पोते को खेलते हुए देखते हुए उन्होंने कहा, ‘‘…अब हम नहीं चाहते हैं कि मेरे सुनील को भी वो लोग मारकर सबको अनाथ कर दे।’’
सत्यम बोल पड़ा, ‘‘ऐसे कैसे मार देगा?’’
नंदकिशोर अग्रवाल ने तुरंत बोल पड़े, ‘‘जैसे मदन को मार दिया और कैसे…?…हमको यहां रहते और सब देखते-देखते बुढ़ापा आ गया हम जानते हैं कि ये लोग कैसे बैशर्मी एवं बेदर्दी से लूटते और विरोध करने पर बेरहमी से मारते हैं…किस तरह पुलिस इनकी सहायता करती है…इसलिए बेटा तुम जाओ तुम भी अकेले घर परिवार वाले हो, उनलोगों को अगर पता चल गया तो वे तुम्हें भी जिंदा नहीं छोड़ेंगे…।’’
कहकर उन्होंने कंधे पर हाथ रखकर उसे गली तक ले आए और जेब से एक पचास का नोट निकालकर झट से सत्यम के हाथ में थमा दिया और कहा, ‘‘सुबह-सुबह ब्राम्हण देवता का दर्शन हो गया… सीधे स्टेशन चले जाइए वहां अभी देवघरिया पकड़कर जसीडीह पहुंचकर रिक्शा से सीधे घर चले जाइए वहां आपके घरवाले इंतजार कर रहे होंगे…’’ और वे तेजी से अंदर चले गए।
सत्यम बेबसी से अपने हाथ में पड़े पचास के नोट को और उन्हें जाते हुए आखें फाड़-फाड़कर देखता रहा। वे मुड़कर अपने पोते के साथ आंगन में खेलने लगे।
सत्यम की बेचैनी रात से भी अधिक बढ़ गई। बोझिल, निराश, निःसहाय धीमे कदमों से मुख्य सड़क पर निकल आया। मंदिर जाने वाले भक्तों का तांता लगा था। वह टॉवर चौक की चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि किधर जाएं सामने वाला रास्ता सीधा स्टेशन जाता था। दाहिने हाथ वाले रास्ते पर सामने सदर हस्पताल था उसके बाद थाना, सोचने लगा क्यों न थाने जाकर दारोगा को यह बता दिया जाय कि हम हैं गवाह, हमसे जहां चाहे गवाही ले लो परंतु उन दरिंदो को सजा दो…फिर दिमाग में एकाएक कौंधा परंतु इससे हीरा तिवारी और उसका बेटा बिरूआ, मिठुआ मेरा दुश्मन हो जाएगा…पर ऐसे भी रिश्ता रखकर हम कौन चैन से जी पा रहे हैं उसने मेरे पूरे परिवार के जीवन को नर्क बना ही दिया है…इस रिश्ते से शत्रुता ही भली…और थाने की ओर बढ़ गया।
बंदूक लिए सुरक्षा में तैनात सिपाही से पूछा, ‘‘दरोगा जी किधर मिलेंगे?’’ सिपाही ने उसे निहारा कहा, ‘‘क्या काम है?’’ सत्यम ने कहा, ‘‘काम है, मिलना जरूरी है।’’ सिपाही ने कार्यालय की तरफ इशारा कर दिया। महेंद्र यादव अपनी सीट पर बैठे दो-तीन पुलिस वाले और दो-तीन अन्य लोगों के साथ बैठकर किसी बात पर कहकहे लगा रहे थे सत्यम अंदर जाने से पहले सहमकर रुक गया परंतु महेंद्र यादव ने उसे देख लिया, वहीं से बोला कौन है? क्या बात है?…’’ सत्यम अंदर आ गया और और सामने खड़ा हो गया सारे लोग उसे प्रश्नभरी नजरों से देखने लगे सत्यम का हिम्मत जवाब देने लगा, विशालकाय महेंद्र यादव के सामने उसकी घिग्घी बंध गई, कुछ पल यूं ही खड़ा रहा।
फिर महेंद्र यादव ने ही पूछा, ‘‘बोलो किस काम से आए हो…?’’
वह जुबान खोला, ‘‘…सर…सर…
महेंद्र यादव बोला, ‘‘आगे कुछ बोलेगा भी…सुबह-सुबह किसका खून हो गया, हो गया या करके आया है…?’’ सब ठठाकर हंस पडे।
सत्यम आखें नीचे कर थूक घोंटकर हिम्मत जुटाया, ‘‘सर…मेरा नाम सत्यम मिश्र है…उस दिन मिट्ठू तिवारी, गुलटेन सिंह और मदन अग्रवाल मेरी ही गाड़ी पर पिकनीक मनाने पुन्हांसी डेम गया था।’’ महेंद्र यादव के साथ वहां सारे लोग चौक गए।
महेंद्र यादव कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, ‘‘यानी जब उसका मर्डर हुआ तुम भी वहीं थे?’’
‘‘हां सर, टैंपू से लेकर हम ही गए थे।’’
…यानी मर्डर में तुम भी साथ थे?
नहीं सर मर्डर तो मिट्ठू और गुलटेन सिंह ने किया परंतु सब हमारे सामने ही हुआ…’’
दारोगा ने कहा तो तुमने रोका क्यों नही?
सर हम रोकना बहुत चाहे परंतु चाहकर भी कुछ कर नहीं पाए…मेरा हाथ-पांव जवाब दे दिया…
दरोगा ने कहा, ‘‘हम इतने दिनों से ऑटो वाले को ढूंढते रहे, तुम पहले क्यों नहीं आए?’’
‘‘…सर उसी समय से हम बीमार पड़ गए जब कुछ ठीक हुए और होश में आया तो हम सब बताने यहां आपके पास आए हैं।’’
महेंद्र यादव उसके पास आया उसका हाथ पकड़कर बाहर पीपल पेड़ के पास ले गया उससे ही सटा कैदियों को कैद करने के लिए कमरे थे जिसमें कई कैदी थे उस कमरे से पैशाब और सडांध की बदबू आ रही थी। एक कोने में ले जाकर कहा, ‘‘तुम्हारा दिमाग सेंटर में नहीं है। तुम जब इतने दिन चुप रहे तो अब सदा के लिए चुप हो जाओ…नहीं तो तुम भी जिंदगी भर जेल में सड़ जाओगे।’’
सत्यम ने कहा, ‘‘…मैं क्यूं सड़ूंगा? कोर्ट में आपने कहा कि कोई गवाही नहीं मिल रहा है तो हम आपकी सहायता करने आए हैं कि सब हमारे सामने हुआ है। हम गवाही हैं। उनलोगों को सजा दिलवाइए।’’
महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘…और उनलोगों ने अगर कह दिया कि तुम भी मिलकर मदन अग्रवाल को मारे हो तो तुम्हारा बात को भैल्यू ज्यादा रहेगा कि उन दोनों का…?…इसलिए हम कह रहे हैं कि यहां से जल्दी भाग जाओ नहीं तो मर्डर केस में तुम भी फंस जाओगे।’’
सत्यम ने कहा, ‘‘सर अब जो होगा देखा जाएगा, उनलोगों को कम से कम सजा तो मिलेगी…हम आपकी सहायता करने आए हैं। आप हमसे गवाही कोर्ट या जहां चाहे दिलवा लीजिए…।’’
महेंद्र यादव को लगा कि बड़ी मुश्किल से संभले इस मामले को यह बिगाड़ने पर तुला है सारा गुड़ गोबर करना चाहता है। वह खीझ गया उसने तड़ातड़ दो-तीन थाप उसके गालों पर जड़ दिया और कमर पर एक लात देते हुए बोला ‘‘अबे सत्यवादी का घंटा क्यों मरना चाहता है मर्डर केस में, भाग यहां से…’’
कुछ दूरी पर औंधे मुंह गिरते हुए सत्यम जोर से चीखा, ‘‘हां मैं मरना चाहता हूं मेरी बात लिखिए और उनलोगों को सजा दिलवाइए नहीं तो हम एस.पी. साहब के पास जांएगे और सब सच्चाई बता देंगे…
दरोगा को होश गुम हो गया उसने सत्यम के पेट पर बेरहमी से और दो लात जड़ दिए और बोला, ‘‘स्साले तुम्हें मैं जाने लायक रहने दूंगा तब न जाएगा…’’ सत्यम दर्द से बिलबिला उठा दोनों हाथों से पेट पकड़कर वह जमीन पर लोटने लगा परंतु उससे भी भयानक मरोड़ महेंद्र यादव के अंदर मच गई, उसके हलक से निकली, ‘‘गोपाल इस साले को हाजत में बंद करो…रुको तुम्हें अब जेल भेजेंगे इस मर्डर केस में।’’ और उसे भी अन्य कैदियों के साथ धकेल दिया।
महेंद्र यादव का दिमाग शून्य में गोते लगाने लगा। उसने सोचा था कि इस केस से उसे मुक्ति मिल गई परंतु यह तो एक नया बवाल आ गया अब। उसने तुरंत हीरा तिवारी को फोन मिलाया। हीरा तिवारी भी यह जानकर अचंभे में पड़ गया। उसने कहा, ‘‘सत्यमा शुरू से थोड़ा मथछिनाहा है। उसको किसी तरह उसके बाप के पास ले जाकर जरा जोर से डांट-फांट दीजिए। पुलिस को देखकर इसका बाप सरलु मिसर ऐसे ही डर जाएगा बाकी हम देख लेंगे। थाने में ज्यादा हल्ला-हंगामा मत मचाइए, नहीं तो सबको पता चल जाएगा।’’ महेंद्र यादव ने कहा, ‘‘ठीक है।’’ फिर वह हाजत से सत्यम को खिंचते हुए निकाला और अपना बुलेट स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘चलो तुमको तुम्हारे बाप, एस.पी. साहब से मिलाते हैं।’’ उसने एक सिपाही से कहा इसे बिठाकर तुम भी बैठ जाओ।’’ महेंद्र यादव थोड़ा आगे खिसक गया सत्यम को बीच में बैठाया और सिपाही उसे दबाकर बैठ गया। रास्ते में दरोगा ने पूछा क्या बताया तुमने अपने गांव का नाम…सत्यम अपने आप को संभाल चुका था, चुप्पी साधे रहा फिर महेंद्र यादव ने खुद बोला, …हां बनौगा, सुनते हैं तुम्हारा बाप मास्टर रहे हैं, मास्टर का बेटा होकर यही सब मर्डर और खूनखराबा में शामिल होता है…। दालान पर खड़े सरलु मिश्र गांव के लोगों से घिरे सत्यम के लिए ही परेशान थे कि महेंद्र यादव सत्यम को लेकर पहुंच गया।
दरोगा के जाने के बाद पड़ोसियों की सलाह संहिता अभी अंतिम अध्याय पर पहुंची भी नहीं थी कि दरवाजे पर फिर किसी के मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई पड़ी साथ ही दरवाजा खटखटाने का भी। दरवाजा खोला, देखा हीरा तिवारी मिट्ठू के साथ हैं। दरवाजे को पार करते ही बकबका उठे, ‘‘यह क्या सुन रहे हैं…सुनते हैं सत्यमा थाने गया था गवाही देने, वह तो हमारे मिन्नत करने से दारोगा घर पहुंचा गया नहीं तो कह रहा था कि कहिए तो मदन अग्रवाल मर्डर केस में इसको सदा के नाम से भेजवा दें…’’ सरलु मिसर चुप्पी साधे रहे। हीरा तिवारी फिर चालू ही रहे…बताइए हम उसके लिए क्या नहीं किए, सोचे थे कमाने-कजाने लगेगा तो अपना घर परिवार संभालेगा इसीलिए सब व्यवस्था करवा दिए…ई तो वही बात हुई ना कि जिसको दूध पिलाकर पाले वही एक दिन फुंफकारकर काटने को दौड़े…पहले से जानते थे कि वह सीधा है, बकलोल है…हमको क्या पता था कि पागल भी है। इसको कांके भर्ती करा दीजिए अगर कुछ पैसा-वैसा का जरूरत हुआ तो हमको कहिएगा…।’’ बीच में जयंती पांव छूकर चाय-पानी रख गई परंतु हीरा तिवारी ने उधर देखा भी नहीं। मिट्ठू को आवाज लगाया, ‘‘चल रे मिठुआ, ये लोग एकदम नमकहराम आदमी हैं। इनलोगों के यहां नाश्ता-खाना तो दूर पानी भी पीना पाप है…।’’
उधर मिट्ठू मदहोस पड़े सत्यम को जगाकर मदन अग्रवाल की घटना के साथ अपने और अपने साथियों के गुंडई के कई निर्मम किस्से सुनाए और अंत में कमरे से यह कहते हुए निकला कि, ‘‘…मामू हमको तुम अच्छी तरह से जानता ही है। अपना पगलपनी का इलाज करा लो नहीं तो अबकी अगर देवघर के तरफ मुंह किया न, तो इतना जान लो कि…मदन अग्रवाल को पिकनीक मनवाने पुन्हांसी डेम तक ले गए थे तुम्हारा तो यहीं कोतनियां नदी में ही दिनदहाड़े पिकनिक करवा देंगे…।’’ कहकर दोनों बाप बेटा दरवाजे से बाहर निकल गए। सत्यम एकटक दीवारों को ताकता रहा…
जयंती रसोईघर के चौखट से लगकर आसुओं से तर, आंचल से चेहरा ढके गमगीन सिमटी बैठी थी। सरलु मिसर अपने खटिए पर नहीं अंधकूप में धराशायी थे। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था अजीब तरह की घबराहट और बेचैनी में ऊब-डूब रहे थे। जितना ही इससे निकलने का प्रयास करते उतना ही धंसते जा रहे थे। मन कह रहा था कि किसी से भी दिल की दो बात कहें, कोई हमारे दुःख को धैर्यपूर्वक सुने, वे याद कर रहे हैं, कभी वे होश संभालने के बाद जी भरकर रोए नहीं यहां तक तक कि जीवनसंगिनी यशोमति देवी के मरने पर भी। आज दिल कह रहा था कि फूट-फूटकर रोएं। इतना सोचते ही आंखें बह निकलीं, गला तर हो गया, कुछ देर औंधे मुंह पड़े रहे फिर उठे, गमछे से चेहरा पोंछा। बाहर आए। बहू से पूछा, ‘‘परम कहां है बहू?’’ जयंती घूंघट ठीक करते हुए आसुओं से तर लाल चेहरे को छुपाते हुए बोली, ‘‘काकी घर में बच्चों के संग खेल रहा है बाबूजी।’’ फिर कहा, ‘‘बहू, सत्यम कुछ खाया-पिया कि नहीं…? उसके पास जाओ उसे अकेला मत छोड़ो…पता नहीं किस करम का सजा हमें मिल रहा है…बाबा बैद्यनाथ जानते हैं, हमने अनजाने में भी कभी किसी का कुछ नहीं बिगाडा।’’ वे मंथर गति से बाहर निकल गए।
पड़ोस में दरवाजे पर जाकर बड़ी हिम्मत करके परम को आवाज लगाया। अंदर से नागेश निकला कहा, ‘‘चाचाजी यहीं है परम…’’ नागेश उनके चचेरे भाई का बेटा है। छोटा-मोटा ठेकेदारी एवं ब्लाक, कचहरी थानों वगैरह का चक्कर लगाता रहता है। एरिया में जो भी बुरा, कभी कभार संयोग से अच्छा काम भी होता तो इसकी भी सहभागिता होती। नहीं भी होती तो यह जुबानी सबको जताता फिरता कि सब वही करवा रहा है। सरलु मिसर से हमेशा बात-बात पर शत्रुता पाले रहा, परंतु वे अपना ही खून मानकर निबाहते रहे। हद तो तब हो गई जब घर के सामने के उनके एक बाड़ी को जिसमें सालो भर साग-सब्जी होता जिसे पहले यशोमती एवं सारे बच्चे और अब वे खुद खाली समय में, जोकि अब बहुत है। कुदाल और खुरपी से कोड़-आबाद करते और मनचाहा साग-सब्जी कभी भी तोड़ लाते। खुद भी छककर खाते और गांव वालों को भी खिलाते। उसे जबर्दस्ती नागेश ने उससे सटे अपने बाड़ी में मिला लिया और कहा कि, ‘‘यह मेरा है।’’ विरोध करने पर मार-पिटाई पर उतर आया और केस-मुकदमें तक की धमकी देने लगा। मन मसोसकर चुप्पी लगा गए। तब से बातचीत भी बंद थी।
वे दुआर पर ही खड़े रहे, नागेश ने कहा, ‘‘चाचा जी अंदर आइए, आइए ना…’’
वह थोड़े असमंजस की स्थिति में रहे कि ऐसे समय में इसके घर जाएं की नहीं फिर अंदर आ गए बोले, ‘‘अरे जरा सत्यम के बारे में बात करना था…अजीब स्थिति में फंस गया हूं…’’
‘‘हां हां बैठिए ना…चचा’’
वे कुर्सी पर बैठ गए। नागेश को आज की घटना मालूम ही था। वह और उसका परिवार अंदर-अंदर खुश था ही और चाह भी रहा था कि इस दलदल में ये और फंसे। नागेश ने कहा, ‘‘चाचा हमारे लायक काम बताइए…हमको तो इस केस के बारे में सब पता है परंतु हम इसलिए आगे नहीं बढ़े की आप कहीं यह न समझ बैठें कि हम भी ऐसे समय में आपसे दुश्मनी निकालना चाहते हैं।’’ फिर अपनी हांकते हुए आगे बढ़ा, ‘‘…जिस दिन मारवड़िया का मर्डर हुआ उसके दूसरे ही दिन दरोगा हमको बुलाकर पूछा था कि कि सत्यम मिश्र कौन है आपके गांव का उसका नाम भी इस केस में है हमने तुरंत यह कहकर कि वह मेरा भाई है उसका नाम ही हटवा दिए परंतु पता नहीं आज पुलिस कैसे सुबह-सुबह इसको पकड़कर ले गई…आप हमको उसी समय बताते तो हम इसको ले जाने ही नहीं देते और कुछ खिला-पिलाकर मामला यहीं रफा-दफा करवा देते…’’
यह सुनते ही सरलू मिसर पर जबर्दस्त झटका लगा उन्होंने तुरंत बीच में ही टोककर कहा, ‘‘…पुलिस उसे पकड़कर नहीं ले गई बल्कि यह खुद बताने गया था कि मदन अग्रवाल का मर्डर कौन किया है…? यह मनगढंत कहानी कहां से गढ़ दिए तुमलोगों ने कि पुलिस उसे गिरफ्तार कर ले गई थी…?’’
नागेश चुप हो गया फिर इधर-उधर देखकर बोला, ‘‘…परंतु इसको पागलपंथी नहीं तो क्या कहिएगा कि खुद ही फंसने चला गया…फिर भी, आप चिंता मत कीजिए दरोगा को हम समझा दिए हैं वह इसको कुछ नहीं करेगा परंतु हमारा भी सलाह है कि एक बार सत्यम को कांके ले जाकर इलाज करवा दीजिए नहीं तो फिर कहीं जाकर अगर अल्ल-बल्ल बक दिया तो खुद ही मर्डर केस में फंस जाएगा।’’
हालांकि सरलु मिसर का मन यह नहीं माना कि इस केस में नागेश की अभी तक कोई भूमिका है परंतु अब वे पूरी तरह समझ गए कि अब वह इसमें भी दलाली करेगा और अपना स्वार्थ साधने का पूरा प्रयास करेगा। अब यह पुश्तैनी बैठक खाना जो कभी इनका भी था चैन और शान्ति के लिए इसे इन्ही लोगों के लिए छोड़कर उस समय अपनी अलग झोपड़ी बना ली थी। आज फिर यहां बैठते ही बेचैन कर दिया उठने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘चलो देखते हैं कुछ न कुछ तो अवश्य करना पड़ेगा…।’’
नागेश ने कहा, ‘‘हां चाचा आप हमको लाख शत्रु समझते हों परंतु दिल से हम और हमारा परिवार कभी नहीं चाहता है कि मेरा भाई मर्डर केस में फंसकर जेल चला जाए।’’
तबतक परम बाबा…बाबा कहते हुए आकर उनके गोद में बैठ गया। उन्होंने उसके घने घुंघराले बालों से धूल झाड़ते हुए कहा, ‘‘कहां रहता है बाबू…खाना वाना खाता नहीं…?’’ पास में ही कोने में अबतक बैठी सारी बातें सुन रही नागेश की विधवा अम्मा जो काफी देर से बड़ी मुश्किल से अपने विचार को जुबान के पीछे दबा रखा था को भी बकबकाकर निकलने का मौका मिल गया, ‘‘…परमा दिनभर हमरे पास रहता है और दादी…दादी करते रहता है…भगवान न करे सत्यमा को कुछ हो…ऊपर वाला साक्षी हैं कि हम सदा उसको अपना ही बेटा समझे हैं…आज जबसे पता चला कि मरवड़िया के मर्डर में सत्यमो के हाथ है तो हमरा तो मन में ऐसी छटपटी घुस गया कि हे! भगवान अब ई बसा-बसाया घर का क्या होगा…अगर उसको भी आजीवन जेल हो गया तो भरी जवानी बहू कैसे काटेगी, इतना छोटा परमा टुअर जैसन कहां-कहां बिलटेगा, हमलोगों की जिनगी का अब क्या भरोसा?…नागेश कह रहा था कि अब अगर सत्यमा को कांके पागलखाने का पगलपंथी का सर्टिफिकेट मिल जाए तभी पुलिस छोड़ सकती है…तो उसको जल्दी भर्ती क्यों नहीं करा देते हैं?’’
सरलु मिसर के पूरे शरीर में लपटें उठने लगीं वे कुछ कड़वा बोलना चाह ही रहे थे कि नागेश की अम्मा फिर शुरू हो गई, ‘‘…ऐसे भी पहले से अधपागल जैसे करता ही था अब तो गजबे करने लगा है…हम कहते हैं अब उसको भर्ती करा ही दीजिए कम से कम जेल के सजा से तो बच जाएगा…बेचारी दुलहनियां को क्या-क्या सुनना-सहना पड़ रहा है…बेचारा परमा तो दिनभर हमरा पीछे दादी-दादी करते फिरता है…हम तो काली थान में गछती कर आए हैं कि जिस दिन सत्यमा ठीक होकर आ जाएगा और इस मुकदमें से छूट जाएगा हम अपन तरफ से गाजा-बाजा के साथ उनका सिंगारी करेंगे और जोड़ा पाठा (बकरा) बलिदानी देंगे…’’
सारी बातें, सरलु मिसर के सहनशक्ति को पार कर गई थी परंतु वे क्या करते उन्होंने आज तक किसी औरत से कड़वे बोल, बोले नहीं थे खासकर इस विधवा भौजाई के लिए सदा दयाभाव रखा और परिवार को पालने-पोसने में खुले हाथ सहायता की परंतु बदले में सदा इन्होंने इनके परिवार के प्रति जलन और बैरभाव ही रखा। वे ऐसे समय में भी चुप रहकर इस धर्म को निभा ले जाने के लिए अंदर उठ रही लपटों पर किसी तरह थूक घोंटकर पानी डाला और कलेजे में थोड़ी ठंडक पाने के लिए परम को कलेजे में चिपकाकर उठ खड़े हो गए।
सत्यम के अंदर अजीब हलचल मची थी वह न तो ठीक से खा रहा था और न ही सो पा रहा था। सरलु मिसर के लाख दुनियादारी, घर, परिवार, समाज की बातें समझाने पर सिर्फ अपनी बड़ी विस्फारित आंखों, झुके सर और सर्द गमगीन चेहरे के साथ सुनता, जयंती से नजर मिलाए बिना किसी तरह दो-चार कौर गटककर चादर तान लेता और घुस जाता पुन्हांसी डेम के पास घटे उसी दिन के मंजर में। उस दिन जिस नीम बेहोशी में पहुंच गया था उसे ही अब हर घड़ी आंखें फाड़-फाड़कर या अर्द्धनिमिलित आंखो से देखता। अपनी जान की भीख मांगते मदन अग्रवाल के बंधे हाथ, उसके जांघों पर बैठकर जकड़े गुलटेन सिंह, हसिया से दांत पर दांत चढ़ाकर गर्दन रेतता मिट्ठू तिवारी और हर तरफ बिखरा रक्त ही रक्त, पसीने-पसीने हो जाता। फिर खुद को मदन अग्रवाल के जगह देखता कि दोनों मिलकर उसी का गर्दन रेत रहा है। बेचैनी से हाथ-पैर फेंकने लगता, बाद में नंदकिशोर अग्रवाल की जगह दादा को थाने, कचहरी में इंसाफ पाने के लिए चिरौरी करते देखता। कभी-कभी तो देखता कि मिट्ठू और गुलटेन सिंह जयंती को उठाकर ले गया है और उसे नोच-चोथ रहा है…दादा परम को लेकर गली-गली ठोकरें खाते फिर रहे हैं। इंसाफ की भीख मांग रहे हैं परंतु पूरा शहर शांत है और गांव के लोग दादा को ही पागल-पागल कहकर चिढ़ा रहे हैं। वह चीख पड़ता जयंती तुरंत उठ बैठती और पूछने लगती आपको क्या हो गया? सरलु मिसर आहट पाते ही दौड़ पड़ते, सर को सहलाते हुए कहते, क्या हुआ सत्यम? पसीने में डूबा तेज-तेज श्वासें लेता दूर कहीं निहारता कहता…कुछ नहीं…कुछ नहीं…फिर उसे वे समझाते सहलाते फिर कुछ देर में वह बुदबुदाने लगता, ‘‘वह किसी को नहीं छोड़ेगा वह मदन अग्रवाल को काट दिया…हमको भी कौतनियां नदी ले जाकर दिनदहाड़े काट देगा…फिर जयंती को भी उठाकर ले जाएगा…ये लोग कुछ भी कर सकता है…हमको एस.पी. साहब को बताना पड़ेगा नहीं तो वो लोग किसी को नहीं छोड़ेगा…’’ सरलु मिसर दिनोंदिन स्थिति जितना ही ठीक होने की आशा कर रहे थे हालात उतने ही बिगड़ती जा रही थी। अब सत्यम के आंखों से नींद पूरी तरह गायब हो चुकी थी। आखें अंगुली भर धंस गई थीं। शरीर ढांचे में तब्दील हो गया था। रात-दिन एक ही रट हमको एस.पी साहब के पास जाने दो और हमेशा बाहर भागने की फिराक में रहता।
रात्रि के चार बज रहे थे सरलू मिसर को कुछ देर पहले ही नींद आई थी तभी बहू, जयंती की जोर-जोर से चीखने की आवाज आई, ‘‘…बाबूजी…बाबूजी…’’ दौड़कर वे दरवाजे की तरफ भागे। देखते हैं बहू सत्यम से गुत्थमगुत्था हो रही है, सत्यम कह रहा है हमें जाने दो…नहीं तो अनर्थ हो जाएगा… वह कह रही आपकी तबीयत ठीक नहीं है कहां जाइएगा। सरलु मिसर पहुंचे उन्होंने उसका हाथ पकड़ा, ‘‘बेटा कमरे में चल…अरे तुम क्यों ऐसा कर रहा है…पूरी दुनिया हमारा मजाक उड़ा रहा है, तुमको पगला कहने लगा है…अरे जाने दो ना उन लोगों को भांड़ में, तुम अपना घर-गृहस्थी संभालो ना…तुमको क्या कमी है बोलो हम उसकी पूर्ति करेंगे।’’ परेशान सत्यम बोला, ‘‘दादा आप मेरी बात समझ नहीं रहे हैं उनलोगों को जेल भेजवाना बहुत जरूरी है, आप नहीं जानते हैं उनलोगों को सब राज मैं जानता हूं हीरा तिवारी नशे का गंदा धंधा करता है, वह हमसे भी करवाता था…वह हमसे फिर वही करने को कहेगा नहीं करेंगे तो हमको भी मरवा देगा.. आप हमारी बात को समझते क्यों नहीं है…हम पागल नहीं हैं।
यह दशा देखकर सरलु मिसर अपने आप को नहीं रोक पाए सत्यम को सीने से लगाकर खुद ही फूट पड़े, ‘‘अन्जाने में मैंने हीरा तिवारी के झांसे में आकर तुम्हारे साथ बहुत गलत काम कर दिया बेटा…मुझे माफ कर दो…रूंधे गले से उन्होंने कहा तुम पागल नहीं है परंतु इसी तरह रहा तो कुछ दिनों में तुम्हें यहां सब सचमुच का पागल बनाकर मार देंगे…तुम हमेशा मेरी ही बातों को आंख मूंदकर मानते रहे, मैंने हमेशा माना कि सही और सरल राहों में ही चलकर जीवन जीया जा सकता है परंतु अब लगता है कि यह सबसे मुश्किल काम है…इसपर चलते हुए मैंने तो किसी तरह अपनी जिंदगी गुजार लिया परंतु तुम्हारा जीवन बर्बाद कर दिया…अंतिम बार तुम मेरा कहा मानेगा?…सिर्फ…अंतिम बार!’’ कहकर वे उसकी आंखों में कुछ देर तक झांकते रहे फिर कहा, ‘‘तुम आज मेरे साथ रांची चलो, वहां मेरे बचपन के दोस्त अवधेश राय ‘रिम्स’ में बहुत बड़े डॉक्टर हैं। हमको पूरा विश्वास है कि वो तुम्हारा चेकअप करवा के कह देंगे कि सत्यम बिल्कुल ठीक है। फिर तुम चाहे जो करना मैं तुमको नहीं रोकुंगा, मुझे पूरा विश्वास है कि उसके बाद सब ठीक हो जाएगा…वहां के सर्टिफिकेट के बाद सब मानने लगेंगे कि तुम जो कह रहे वही सही है…पूरी दुनिया के मुंह में ताला पड जाएगा और हमें एक नई जिंदगी मिलेगी।’’
सत्यम अश्रुपूरित आंखों से बोला, ‘‘आप जो कहेंगे करूंगा दादा…आप जहां कहेंगे आपके साथ चलूंगा…परंतु आप समझ नहीं रहे हैं हमको कांके भेजना भी इनलोगों का मुझे रास्ते से हटाने की एक साजिश है…’’ सरलू मिसर ने बीच में ही कहा, ‘‘अरे मुझे पता है, तुम कोई पागलपंथी की बातें थोड़े ही करता है तुम तो इंसाफ की बातें करता है। वहां बड़े-बड़े डॉक्टर हैं सारी बातें सुन-समझकर वे तुम्हें एक दिन भी नहीं रखेंगे फिर तुम नए सिरे से जिंदगी शुरू करेगा।’’
सत्यम ने कहा, ‘‘मैने आपको बहुत तकलीफ दिया है…अगर आपको विश्वास है कि इसी मैं समाधान है तो मैं आपके साथ चलूंगा…हां, हां मैं आज ही आपके साथ चलूंगा।’’
4.
केन्द्रीय मनःचिकित्सा केन्द्र कांके, झारखंड की राजधानी बनने से पहले इधर के अधिकांश लोगों को यही पता है कि रांची में सिर्फ पागलखाना है। वहां जो रहता है सब पागल है। वहां जो जाता है पागलखाने इलाज कराने जाता है। वहां से जो वापस आ गया उसके हर अच्छे बुरे कर्म या बातों के साथ यह मुहावरा चिपक जाता है कि, ‘‘रांची रिटर्न है’’ और अगर सचमुच पागलखाने में भर्त्ती हो जाए और पूर्ण स्वस्थ होकर ही वापस क्यों न आया हो, यहां के बच्चों से बूढ़े तक उसके हर कदम पर इतना जलील करेंगे कि वह या तो आत्महत्या कर ले या फिर सदा के लिए उसी पागलखाने में कैद हो जाए। बनौगा या उसके आस-पास के गांवों में ऐसा नहीं है कि दिमागी तौर पर कोई असंतुलित नहीं हो बल्कि सही परीक्षण किया जाए तो आधे से ज्यादा लोग असंतुलित ही मिलेंगे परन्तु कोई वहां जाने का हिम्मत नहीं करता बल्कि उस बीमारी को भूत-पिशाच, डायन की करतूत मानकर उसे तिल-तिलकर मरने देता है। एकाध जानकार लोग गए भी तो वहां भीड़ और धकापेल में डॉक्टरों ने भर्ती ही नहीं किया और कुछ दवाइयां वगैरह लिखकर टरका दिया परंतु उसके नाम के साथ आजीवन ‘रांची रिटर्न’ उपाधि जुड़ गया यानी घोषित पागल। यही रांची, कांके पागलखाने में सत्यम को भर्ती कराकर सरलु मिसर अकेले पाटलिपुत्र एक्सप्रेस से लौट रहे हैं। किसी तरह भागते-भागते ट्रेन पकड़ पाए वह भी जल्दीबाजी में एस-2 कोच के जगह एस-9 में चढ़ गए और अंदर ही अंदर किसी तरह पूछते-पाछते हांफते-कांपते अपनी बर्थ पर आ पाए। सप्ताह भर के थके थे सो बर्थ पर आते ही आंख लग गई। जब जगे तो देखा रेल रुकी हुई है, काफी रात हो गई है। उन्होंने सामने के बर्थ पर देखा, खिड़की से लगकर अथलेटे किताब में डूबा लड़का है। उन्होंने लड़के से पूछा, ‘‘बेटा ट्रेन क्यों रुकी है, कोई स्टेशन तो नहीं लग रहा है?’’ वह किताब से बिना नजर हटाए बोला, ‘‘राजधानी और कई सुपरफास्ट गाड़ियों को पार होना है, इसलिए इसे संटिंग कर दिया गया है। यह कोई स्टेशन नहीं घना जंगल है।’’ ऐसे बताया मानो यह रोजमर्रा की बात हो। सरलु मिसर के जोर देकर पूछने पर ही वह अनमने भाव से अपने बारे में बताया कि रांची में इंजीनियरिंग कॉलेज का विद्यार्थी है, इसी महीने उसका फाइनल एक्जाम है, ऐसे समय में एक बेहद जरूरी कार्य से अपना घर धनबाद जाना पड़ रहा है।
सप्ताह भर पहले रांची जाते समय इसी रेल के एस-3 कोच के लोअर बर्थ में जहां अभी वे बैठे हैं वहां खुद और सामने जहां अभी यह लड़का अधलेटा है वहां सत्यम था। सारे यात्री सोए थे। सिर्फ ट्रेन की कंपन और सरसराती आवाज आती थी। सामने की हरी नाईट बल्ब जल रही थी। सत्यम करवट बदलते, कभी अधबैठे, कभी अधलेटे खिड़की से आंखे फाड़-फाड़कर पता नहीं घोर अंधेरे में पहाड़ों को चीरते भागती ट्रेन से बियाबान जंगलों और पहाड़ों मे क्या घंटो देखने का प्रयास करता रहा था। सरलु मिसर चादर से सिर ढके सोचते रहे सारा ट्रेन सो रही है, सारा जग सो रहा है। हत्यारा मिठुआ और उसका साथी भी सो रहा होगा। जिसकी हत्या की गई मदन अग्रवाल उसका पूरा परिवार भी सो ही रहा होगा। दारोगा यादव भी पीकर निर्द्वद्व चैन से खर्राटे भर रहा होगा परंतु मेरा निर्दोष बेटा यह किस पाप का दंश झेल रहा है, इतना क्यों विचलित है? मैनें तो यही सोचकर इसे काम में डाला था कि, काम तो काम है चाहे ऑटो चलाओ या कंप्यूटर। ईमानदारी से करेगा तो रोजगार की कोई समस्या नही रहेगी इसमें मेरा स्वार्थ सिर्फ यही था कि इस उम्र में मेरा बेटा, बहू और मेरा जिगर का टुकड़ा पोता मेरे पास रहेगा…पर मुझे क्या पता था कि हीरा तिवारी, सत्यम को अपने काले धंधे के दलदल में फंसा रहा है जिसके परिणामस्वरूप मुझे उसे पागलखाने में भर्ती कराकर आना पड़ेगा।
सारे लोगों द्वारा पागल करार देने के बावजूद सत्यम की ही तरह उन्हें भी अंदर से लगता है कि इसमें पागलपने कि कोन सी बात है? क्या किसी कातिल को, जो कत्ल उसके सामने किया गया हो को सजा दिलाने की जिद्द पागलपने की निशानी है? आखिर क्यों सभी इसके पीछे पड़े हैं? क्या इसको पागलखाने में भर्ती कराना ही इसका समाधान है? अभी भी उन्हें पूरा विश्वास है कि डॉक्टर इसकी पूरी जांच कर कह देगा इसे कुछ भी नहीं हुआ है इसे ले जाइए। अबकी इसे वापस ले जाकर कहेंगे कि बेटा अपनी घर की छोटी खेती-बाड़ी करो और आगे अपनी पढ़ाई करो परिवार पालने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है। सबको अपना समझ कर लोगों पर अत्यधिक विश्वास कर लेने के कारण ही तो हमारी आज यह दशा हो गई।
वे रांची में अपने बचपन के संगी अवधेश राय के घर, घर क्या, किसी राजा-महाराजा की हवेली है यह। पहुंचे। पहले तो गेट पर ही उनके बेटे ने नौकर से कहलवा दिया कि कह दो वे बीमार हैं और किसी से नहीं मिलते हैं, फिर जब उन्होंने कहा कि उनसे जाकर कहो कि उनका बचपन का साथी सरल मिश्र आए हैं और जरूरी काम से मिलना चाहते हैं, तो उन्हें अंदर बुलाकर बिठाया। अवधेश राय एक नौकर की सहायता से बैठक खाने में आए। वे भी अब सेवानिवृत्त हो चुके है और बीमार रहते हैं। कुछ महीनों पहले उनकी बाइपास सर्जरी हुई थी। वे एक नौकर की सहायता से आए धीमी आवाज में मुस्कुराने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘कैसे हो मिश्र जी।’’ सरलु मिसर बोले, ‘‘ठीक हूं…मुझे तो पता ही नहीं था कि आप बीमार हैं नहीं तो…!’’ अवधेश राय ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं तुम मेरे बचपन के साथी हो…मुझे सब याद है तुम इतनी आसानी से किसी के पास जाने वाले लोगों में से नहीं हो, अपनी परेशानी बताओ…ऐसी हालत में भी अगर तुम्हारे लिए कुछ कर सका तो…!’’ सरलु मिश्र ने उनकी मनोदशा को देखकर सीधे मुद्दे पर आते हुए बोले, ‘‘हां इस उम्र में जीवन के सबसे बड़ी संकट में फंसा हूं…।’’ और सारी बातों को कह सुनाया।
सुनकर, अवधेश राय बोले, ‘‘तुम बिल्कुल नहीं बदले जैसे खुद थे बचपन से, किसी से मार, गाली खाकर भी किसी से कोई शिकायत नहीं करना वैसे ही अपने बेटे को भी बना दिया…अरे बेवकूफ वो समय दूसरा था, अब जीवन उतना सीधा-सरल नही रहा सरल मिश्र…झूठ, मक्कारी, धोखाधड़ी सब जीवन का अहम हिस्सा है…आज जिसे भी ठीक-ठाक जीते या सफल देख रहे हो सबों ने इसके साथ कदमताल मिला लिया है, इसके बिना अब कोई गुजारा नहीं कर सकता…।’’ सरलू मिसर उनके बातों को सुनकर हतप्रभ हैं। अवधेश राय ने आगे कहा, ‘‘…तुमने तो अपना जीवन किसी तरह जी लिया लेकिन अपने बेटे को भी उसी तरह पाल-पोसकर, अपने सारे विचार मूल्य उसपर लादकर उसका जीवन नर्क कर दिया… सोचो, अगर तुम्हारा बेटा सिर्फ चुप रहकर जैसा पहले कर रहा था वैसा करता रहता तो अपनी गृहस्थी खुशी-खुशी ठीक से चला रहा होता कि नहीं…! अपने हंसते-खेलते परिवार को छोड़कर यहां अब पागलखाने की चक्कर तो तुम दोनों को नहीं लगाना पड़ता…। सत्यम अबतक व्यग्र और बैचेन सिर झुकाए बैठा था इस बार सर उठाकर उन्हें एकटक देखा। सरलु मिसर ने बीच में उन्हें टोकना चाहा परंतु उन्होंने अनसुना करते हुए थोड़ी आवेश में कहा, ‘‘…मैं यह नहीं कह रहा कि अपने बेटे को चोर लूटेरे बना दो, परंतु जीने का सलीका तो सिखाते…’’ सरलु मिसर ने अपना सर इन्कार से हिलाते हुए कहना चाहा अगर वह सलीका सिखाता तो यह भी उन्हीं खुनियों के साथ गलबहियां डाले फिरता और यह सिलसिला कहां रुकता पता नहीं…!
अवधेश राय ने कहा, ‘‘…खैर, मैं कांके मनःचिकित्सा केन्द्र के विभागाध्यक्ष को फोन कर देता हूं, वह तुम्हारे बेटे की समुचित इलाज की व्यवस्था कर देगा।’’ उन्होंने दीवार की घड़ी को देखते हुए कहा, ‘‘अब आप जाओ, वहां डॉ शिव कुमार से मिल लेना… मैं जा रहा हूं इस समय दवाइयां खाकर मेरा आराम का समय है…हां तुमलोग कहां ठहरे हो…? सरलु मिसर ने कहा, ‘‘हम तो स्टेशन से सीधे यहीं आ रहे हैं…’’ अवधेश राय ने कहा, ‘‘तुमलोग पीछे के एक कमरे में ठहर सकते हो…क्या करूं बेटे-बहू दोनों डॉक्टर हैं, उनके पास वक्त नहीं है! और उन्हें अच्छा भी नहीं लगता कि मेरे गांव के नाते-रिश्तेदार आकर यहां रहें…खाने-पीने की व्यवस्था बाहर ही देख लेना…रूआंसे होकर बोले पत्नी के चले जाने के बाद अब घर का ख्याल रखने वाला कोई नहीं रहा…किसी के पास हमारे लिए समय नहीं है…।’’
सरलु मिसर ने कहा, ‘‘आप चिंता मत कीजिए मैं घर से बोरिया-बिस्तर और चूड़ा-चना सब बांधकर चला हूं…आपका ऐसे समय में इतनी ही सहायता बहुत है…अगर दिक्कत हो तो कहीं कोई धर्मशाला या अस्पताल के बाहर ही किसी कोने में ही रात को दरी बिछाकर सो जाऊंगा।’’ अवधेश राय ने कहा, ‘‘नहीं-नहीं यहां जगह की कोई कमी नहीं है सिर्फ…लोगों का नजरिया सिकुड़ गया है…पर तुम बिल्कुल नहीं बदले।’’ और मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोले, ‘‘सिर्फ तुम्हारे बाल पक गए…।’’ उन्हें गौर से निहारते हुए नौकर की सहायता से अपने कमरे में चले गए।
राजधानी पार हो गई थी अभी और कई सुपरफास्ट गाड़ियां पार होनी थी, पाटलीपुत्र जहां की तहां खड़ी थी। लेटे-लेटे उन्हें कोफ्त होने लगी उन्हें लगा कि वर्षों पहले मैंने कोयला स्टीम इंजन को जहां छोड़ा था आज भी वहीं हूं और जमाना इस बीच सबको रौंदते-फांदते काफी आगे निकल गई। अवधेश राय शायद ठीक ही कह रहे थे। मैंने सत्यम को भी वहां से आगे नहीं बढ़ने दिया जमाने के अनुसार जीने को कोई सलीका उसे नहीं सिखाया। इसी का नतीजा है कि हम सरल राह की तलाश में कांटों भरी जंगलों, पहाड़ों के बीच संटींग होकर पड़े हैं। हम तो रांची यह सोचकर आए थे कि डॉक्टर कह देगा कि सत्यम को कोई बीमारी नहीं है मामूली बात है। कुछ दवाइयां लिख देगा और कह देगा कि फिर कुछ दिनों बाद एक बार चैकअप करवा लीजिएगा। हम दोनों बाप-बेटा खुशी-खुशी घर लौट जाएंगे और धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाएगा। उन्होंने डॉक्टर शिव को भी तो यही समझाने का प्रयास किया परंतु इतना सीनियर डॉक्टर यह मानने को तैयार ही नहीं…तीन-चार दिन तक सारे सारे चेकअप और कई बार कांउसिलिंग करता रहा और एकांत में ले जाकर कहा कि, ‘‘सारे परीक्षण यही कहते हैं कि सत्यम को जबर्दस्त मानसिक आघात लगा है। यह पूरी तरह से अवसादग्रस्त है, जिसे आप अपने घर के उसी माहौल में दवाई खिलाकर ठीक नहीं कर पायेंगे इसे कम से कम तीन महीने के लिए भर्ती कराना ही पड़ेगा।’’ मेरी मर्मांतक चुप्पी पर डॉक्टर ने कहा, ‘‘आपके बेटे को यहां विशेष केयर किया जाएगा, क्योंकि आप मेरे गुरू अवधेश राय के अपने हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि वह जल्दी ठीक हो जाएगा…अब आप निश्चिंत होकर घर जाइए…।’’
भर्ती होने के लिए वार्ड में ले जाते समय मुझसे लिपटकर अंत-अंत तक सत्यम यही चीख-चीखकर कहता रहा, ‘‘दादा…दादा मैं पागल नही हूं…मैं उनलोगों को सजा दिलाना चाहता हूं इसलिए सब रास्ते से मुझे हटाना चाहते हैं…आप क्या सोचते हैं इस तरह वे लोग हमें चैन से जीने देंगे…सब मिले हुए हैं…आपका अपना भतीजा नागेश तक हमारी बाड़ी जोत लिया…वह धीरे-धीरे सब कब्जा कर लेना चाहता है…आपके बहू और पोते को भी वे जिंदा नहीं छोडेंगे…मैं सब समझ रहा हूं… दादा आखिर आप भी मेरी बात क्यों नहीं समझते…वे मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते मेरे सिर्फ थाने जाने से ही सब डर के मारे परेशान हो गए…मैं सबको सजा दिलाऊंगा…’’ वह बैड पर दवाई के असर से नीम बेहोशी में भी यही बड़बड़ाता रहा…मैं उसे उसी हाल में छोड़ आया…
क्या करता घर में बहू और परम भी तो अकेले निःसहाय राह देख रहे होंगे। आते समय बहू कैसे स्याह नजरों से, जबतक हमलोग नजरों से ओझल नहीं हो गए तबतक शिकारियों से घिरी, भयातुर हिरणी सी ताकती रही थी। इतनी कम उम्र में ब्याह कर आई और पूरे घर का बोझ उठा लिया…। हमारा लाड़ला परम उस समय सोया था नहीं तो क्या वह इतनी आसानी से आने देता…वह कैसे गलियों में अकेले धूल-मिट्टी फांक रहा होगा, हर समय अपनी मां से दादा और पापा के बारे पूछ-पूछकर परेशान कर रहा होगा… करवट बदलते हुए बुदबुदाते हैं, …डॉक्टर शिव जिसे कुछ दिनों के लिए भर्ती करना कह रहा है वह यह समझ नहीं पा रहा है कि वह ठीक होकर आ भी गया तो उसे गांव वाले और नाते-रिश्तेदार ‘कांके पागलखाना रिटर्न’ करार देकर उसकी पूरी जिंदगी तबाह कर देंगे। वह जैसे ही कोई सही बात कहना चाहेगा उसे पगला कह-कहकर हंसी में उड़ा देंगे…उसका जीना कितना दुष्कर हो जाएगा… करवट बदलते हैं…नहीं डॉक्टर पर कोई शक नहीं किया जा सकता वह तो अवधेश जी की कृपा थी कि उसने इतना ध्यान दिया नहीं तो अन्य लोगों के साथ कैसे जानवरों सा व्यवहार किया जा रहा था अस्पताल में…इतना सीनियर डॉक्टर हर तरह के परीक्षण करके ही तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा…।
वे पैर पसारकर खिड़की से टेक लगाकर बैठ गए…आखिर सत्यम को सब पागल क्यों समझते हैं? इसने आज तक किसी का कोई नुकसान तो पहुंचाया नही? किसी राह चलते को ईंट-पत्थर तो कभी मारा नहीं…कभी किसी बड़े का क्या अपने से छोटे का भी कहा काटा नहीं? इंसाफ दिलाने के लिए जिसके बेटे की निर्मम हत्या हुई उसको सचाई बताई और कहा कि हम गवाही देंगे। थाने जाकर भी दारोगा को कहा कि इन लोगों ने हत्या की है इन लोगों को गिरफ्तार करो और नहीं करोगे तो मैं एस.पी. को इस कांड के बारे में सारी बातें बताऊंगा। इसके सामने हुई इस नृशंस हत्या पर चारों तरफ की चुप्पी और अपराधी के साफ छुट जाने पर वह खुद विचलित और बैचेन है…हीरा तिवारी और उसके बेटे ने उसे फंसाकर अपने नशे के कारोबार का हिस्सा बना लिया। अगर आज वह इससे निकलने के लिए उद्विग्न है तो इसमें असामान्य क्या है? मैनें कभी उसकी बातों पर गौर क्यों नहीं किया…मैं भी क्यों सबके बहकावे में आ गया? मुझे तो उसपर पर गर्व होना चाहिए कि घनघोर हिंसा और नृशंस हत्याओं के इस दौर में भी मेरा बेटा सिर्फ इंसानी रिस्तों के कारण इतना विचलित है और सबसे दुश्मनी मोल ले ली। मैं क्यों फालतू मैं उस दारोगा और समाज के सिरफिरे लोगों के कहने पर उसे पागलखाने में छोड़ आया…जबकि यह सीधी राह चल रहा था। मैं इसे कांके ले जाने के बजाय एस.पी. के पास या कोर्ट ले जाकर गवाही क्यों नहीं दिला दिया जो वह बार-बार करना चाह रहा था…? वह ठीक कहता था, उसका सही इलाज एस.पी सुबोध कुमार सिन्हा के पास ही है। वह सिर्फ एक बार अपनी दिल की बात अगर एस.पी को कह लेता तो शायद वह सदा के लिए ठीक हो जाता…मैं क्यों उसके इस आत्मबल को तोड़कर कांके ले आया। जिसके पास ऐसी विषम स्थिति में भी अपने कर्म के प्रति इतना आग्रह और आत्मबल हो वहां कोई आघात, अवसाद टिक नहीं सकता। …हो सकता है जैसा कुछ सुनने में आया है एस.पी. सुबोध कुमार भी भ्रष्ट हो, पर अदालतें तो हैं…मार देगा, कोई कैसे मार देगा…अगर मार भी दिया तो जिस तरह अभी मर रहे हैं उससे बूरा क्या मरेंगे…! बच-बचाकर नेकनियति के राह में अपने परायों सबने तो हमें जीवन भर सताया, कभी चैन से जीने नहीं दिया और अपने आप में सिमटते चले जाने पर मजबूर कर दिया…पहले मुझे सताया, अब मेरे बेटे को, कल को मेरी बहू पर हाथ डालेगा, मेरे पोते को जिंदा गाड़ देगा…मैंने सरल और सत्य मार्ग चुना था परंतु अन्जाने में कायरपने की इस मोड़ की ओर कैसे मुड़ता चला गया…? कोई भी जमाना आ जाए सत्य के मार्ग पर चलनेवाले कभी पिछड़े या पागल नहीं हो सकते…क्या करूं? अभी जाऊं और सत्यम को लेकर सीधे एस.पी. को सारी बता दूं…मुझे पूरा विश्वास है कि सत्यम पागल नहीं है और अगर है भी तो उसका स्थाई इलाज कांके में नहीं, सामने खड़ी इस समस्या से मुठभेड़ में है।’’
अपने थैले से टार्च निकालकर सामान समेटकर उठ खड़े हुए और दरवाजे की तरफ जाने लगे वहां बहुत सारे लोग फर्श पर सोए और कुछ बैठे उंघ रहे थे। वे बचते-बचाते दरवाजे को खोलना चाहा, वहीं दरवाजे से सटा, फर्श पर अधलेटा एक आदमी ने कहा, ‘‘बाबा कहां उतरना चाह रहे हैं, रेल, पहाड़ और बियाबान जंगल के बीच रुकी हुई है, यहां कोई रास्ता भी नहीं है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘रास्ता नहीं है…? यह कैसे हो सकता है…अभी भी रास्ता है।’’ फिर बारी-बारी दोनों तरफ का दरवाजा खोलकर देखा रेलवे लाइन की दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ है और चारो तरफ जहां तक रेल की खिड़की और दरवाजे से निकलती रोशनी से दिखाई पड़ी दूर-दूर तक सिर्फ नागफनी का जंगल लहलहा रहा है। टार्च जलाकर रेलवे लाइन के पास से दूर-दूर तक देखा कि शायद कोई पगडंडी भी दिख जाए परंतु नहीं दूर तक सिर्फ लहलहाते नागफनी के कांटे और कांटे ही नजर आया। मन मारकर वापस अपने बर्थ पर आ गए। कुछ देर तक यूं ही चादर से शरीर ढंके अचेतावस्था में पड़े रहे, फिर खिड़की से लगकर बैठ गए। सामने वाले बर्थ पर अधलेटे किताब में नजरें गड़ाए लड़के से पूछा, ‘‘बेटा ट्रेन पटरी पर तो है न!… लड़के ने कहा, ‘‘हां अंकलजी ट्रेन सिर्फ संटिग में है एकाध ट्रेन और निकल जाने के बाद अबकी जो यह खुलेगी तो धनबाद में ही रुकेगी।’’ सरलु मिसर ने फिर पूछा, ‘‘धनबाद से रांची वापस आने के लिए फिर कोई ट्रेन मिल जाएगी?’’ लड़के ने कहा, ‘‘हां वहां से रांची के लिए हर एक दो घंटे में कोई एक्सप्रेस या इंटरसिटी मिलती रहती है।’’ सरलु मिसर ने मन ही मन कहा, ‘‘कोई बात नहीं हम तो नागफनी के इस जंगल में सिर्फ संटींग में है…ट्रेन स्टेशन पहुंचेगी तो जरूर।’’ उन्होंनें फिर उस लड़के से कहा, ‘‘बेटा हो सकता है मुझे नींद आ जाए तुम मुझे धनबाद आने पर जरा अवश्य जगा देना मुझे रांची तुरंत फिर वापस जाना है।’’ लड़के ने कहा अंकल आप बहुत परेशान दिख रहे हैं, परेशान मत होइए आराम से सो जाइए मैं आपको अवश्य जगाकर वापस रांची जाने के लिए ट्रेन में बिठा दूंगा।’’ ‘‘धन्यवाद बेटा, तुम्हारा बहुत एहसान होगा मुझपर।’’ कहकर वे चादर सर तक तानकर नींद की आगोश में समाते चले जा रहे हैं।
ट्रेन चल दी है। मंद-मंद हवा खिड़कियों से आ रही है। उन्हें लग रहा है कि वे स्कूल में छुट्टी कर पांचबजिया से उतरकर धान की हरी-भरी खेतों के बीच से होते झूमते-गाते-गुनगुनाते घर आ रहे हैं। यशोमति अपनी बाड़ी में बैठकर शाम के लिए साग-सब्जी टूंग रही है। रीता, सुनीता और सत्यम अपने मां के आगे-पीछे धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। वे भी जल्दी से जल्दी उनके बीच पहुंच जाना चाहते हैं। वे जानते हैं जैसे ही पहुंचेगे तीनों बच्चे उन्हें घेरकर दिनभर का वृतांत और एक-दूसरे की शिकायतें सुनाने लग जाएंगे। परंतु यह क्या गांव में जाएं कहां से बगान के बगल से जो पहले मुख्य रास्ता था उसको पहले नागेश खेत में मिलाते-मिलाते पगडंडी बना दिया था और अब तो पगडंडी को भी खेत में मिलाकर चारों ओर नागफनी लगा दिया। वे यहीं असमंजस की स्थिति में रुक गए और सोचने लगे अब क्या करूं अब अपना घर भी जाने के लिए अहाते यानी अवैध रास्ते का ही इस्तेमाल करना होगा? वहीं से अपने घर की ओर देखते हैं। दृश्य देखकर बेचैन हो जाते हैं। यह क्या? रास्ते से लेकर उनके घर के चारों तरफ पहाड़नुमा नागफनी का लहलहाता जंगल उग आया है। वहीं सत्यम, बहू और परम कैद हैं और निकलने के लिए बैचेनी से रास्ता ढूंढ रहे हैं…वे तीनो थोड़ी भी जगह देखकर जहां-जहां से निकलने के लिए बढ़ते हैं वहीं नागफनी का पौधा फनफनाते हुए उग आता है। सरल मिश्र गौर से देखते हैं नागफनी के पौधे रूप-रंग बदल रहा है…अरे! यह तो आदमी बन गया…ये सब तो हीरा तिवारी, मिट्ठू तिवारी, नागेश, दरोगा और गुलटेन सिंह है। ये अपने हाथों में नंगी तलवार, भाला, बरछी आदि लेकर खड़े हैं और सत्यम, बहू और परम को जिधर से भी लेकर निकलना चाहता है वहीं रास्ता रोककर खड़े हो जा रहे हैं। हीरा तिवारी कह रहा है, ‘‘…मारो इनको…खत्म कर दो, पूरा परिवार हमारे लिए खतरा है…लाख समझाया पर नहीं माना हमारी शिकायत एस. पी. से कर ही दिया, अब कोर्ट में भी गवाही देगा इससे पहले सबको खत्म कर दो…और वे तलवार, भालों को लेकर तीनों पर टूट पड़ते हैं’’ स्तब्ध सरलु मिसर चीखते हैं, ‘‘छोड़ दो…छोड़ दो मेरे बच्चों को…’’
एकाएक होश में आते हैं…अकचकाकर देखते हैं ट्रेन पूरी रफ्तार से भाग रही है। सब शांत सोए पड़े हैं उनकी पेट और सीने में जबर्दस्त जलन हो रही है, कंठ सूखा जा रहा है…सारा शरीर पसीने से तरबतर है…उनके मुंह से घुटी-घुटी आवाज आती है पानी…पानी…श्वांस धाड-धाड़ चल रही है…सीने के दर्द से तड़प रहे हैं…नीचे रखे पानी की बोतल की ओर किसी तरह हाथ बढ़ाते हैं, बोतल हाथ में आकर भी छूट जाता है…सीने में दर्द की तेज चिंगारी उठती है…पूरा बदन ऐंठ जाता है सस्स्स्…आवाज के साथ दम घुट जाता है। आंखें खुली.. खिड़की से उठंगा शरीर… दांतों के बीच नीचे के होठ का हिस्सा आ जाने से लहु बह निकला है…।
धनबाद आ गया है। सामने का लड़का कोलाहल सुनकर जग गया। अपना सामान समेटते हुए आवाज लगाया, ‘‘अंकलजी उठिए धनबाद आ गया…आपने कहा था यहीं उतरना है…।’’ कोई प्रतिक्रिया नहीं होने पर दूबारा आवाज लगाया फिर भी कोई जवाब नहीं। उनका बांह हिलाकर कहा, ‘‘अंकलजी उठिए, आपने कहा था यहीं उतरना है और फिर रांची जाना है। रांची की ट्रेन लगी है…’’ यह क्या! ये तो हिल ही नहीं रहे हैं… फिर उसने उनके कंधे को जोर से झकझोरा, वे कोने की तरफ लुढ़क गए…उनका चेहरा और फटी आंखे देखकर लड़के की आंखें फटी रह गई, ‘‘अरे जा! ये तो म्म्मर गए…’’ यात्री उतरने और नई सवारी चढ़कर अपने बर्थ हासिल करने में मशगूल थे। बोगी नए यात्रियों से भर गया। उसके बर्थ पर भी दूसरा यात्री भारी-भरकम शरीर के साथ भारी भरकम सामान भी लेकर लंबी श्वांसें खिंचता आ धमका और उसे वहां से साइड होने को कहने लगा। किसी का ध्यान सरलु मिसर की ओर नहीं था। लड़का अजीब असमंजस में था, ‘‘…क्या करूं जी.आर.पी को बताऊं….परंतु यह तो नई मुसीबत होगी, पुलिस इनके बारे में पूछताछ करके एक्जाम के समय में मेरी हालत खराब कर देगी… तो अब क्या करूं…?’’ वह किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाता उसके पहले ही उसके बर्थ पर आने वाला आदमी ने झल्लाकर कहा, ‘‘तुम्हें उतरना है तो उतरो भई, यह मेरा बर्थ है। हमको सामान यहां सेट करना है।’’ वह फिर भी कुछ पल अपना बैग उठाकर वहीं ठिठका रहा। यात्री ने अबकी गुस्से से उसके कंधे को झंझोड़ते और दरवाजा दिखाते हुए कहा, ‘‘सीधा रास्ता उधर है… किस उधेड़बुन में पड़े हो, नहीं उतरना है तो कहीं साइड जाकर पड़े रहो, मुझे सामान सैट करने दो।’’ लड़के ने उनके चादर से सरलु मिसर का पूरा शरीर ठीक से ढंक दिया और दांत पर दांत चढ़ाकर धीरे-धीरे ट्रेन से घिसटता हुआ उतर गया। एक बार फिर बाहर से खिड़की के पास आया, उन्हें देखा और पलटकर तेजी से प्लेटफार्म की सीढ़ियां चढ़ता चला गया…