मैं इक बेकल-सी नदी, तू सागर बेचैन।
तेरे बिन कटते नहीं, अब मेरे दिन-रैन।१।
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जब-जब सोचा मैं लिखूँ, कोई सुंदर गीत।
तब-तब शब्दों में ढली, तेरी-मेरी प्रीत।२।
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मैं हूँ धागा सूत का, तू रेशम का तार।
फिर कैसे निभता भला, मेरा-तेरा प्यार।३।
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प्रियतम की पाती पढ़े, गोरी मन हर्षाय।
नयनों में आँसू भरे, बिरहा सही न जाय।४।
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मंज़िल मेरी दूर है, थके हुए हैं पाँव।
जाने मुझको कब मिले, सपनों वाला गाँव।५।
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रे मन तू है बावरा, करे जगत से प्रीत।
टूटे तो मत रोइयो, है ये जग की रीत।६।
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तुमने छोड़ा साथ तो, टूट गई हर आस।
साँसों ने भी ले लिया, जीवन से संन्यास।७।
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ना कोई नाराज़गी, ना कोई तक़रार।
तेरे-मेरे बीच में, रहा नहीं अब प्यार।८।
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अम्बर ने लो आज फिर, दीं सीमाएँ लाँघ।
फिर अश्कों से भर गया, वो धरती की माँग।९।
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नदिया मिलने को चली, ले मन में उल्लास।
लेकिन बुझती ही नहीं, इस सागर की प्यास।१०।
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पनघट तक सूने पड़े, खाली-खाली गाँव।
पंथी को मिलती नहीं, अब पेड़ों की छाँव।११।
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लेकर आई चाँदनी, तारों की बारात।
दुल्हन-सी सजने लगी, देखो काली रात।१२।
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छटा बसन्ती हो गई, ठंडी चली बयार।
ख़ूब किया ऋतुराज ने, धरती का शृंगार।१३।
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अम्बर ने जब भी कहा, करूँ धरा से प्यार।
धरती ने पहना दिया, निज बाहों का हार।१४।
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तपती धरती की बढ़ी, देखो जब-जब प्यास।
तब-तब बरसा झूम के, धरती पर आकाश।१५।
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होली खेली श्याम से, लगा प्रीत का रंग।
मोहन ने जितना रँगा, उतना निखरा अंग।१६।
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सबके मन पर छा रहा, होली का उल्लास।
कृष्ण-राधिका बन सभी, रचा रहे हैं रास।१७।
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रंग प्रीत का घोल कर, कर ऐसी बौछार।
रँग जाएँ सब प्रेम में, नफ़रत जाए हार।१८।
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ना होली के रंग हैं, ना प्रीतम का प्यार।
लगा तिरंगे को गले, रोई अश्क़ हज़ार।१९।
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धीरे-धीरे ढल रही, इस जीवन की साँझ।
ना जाने कब तक बजे, साँसों की ये झाँझ।२०।
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अपनी-अपनी है विधा, अपना-अपना ज्ञान।
पंख लगाकर शब्द के, कवि मन भरे उड़ान।२१।
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जब लौटी ये ज़िन्दगी, सह कर सौ तूफ़ान।
दहरी पर भी आ गई, मीठी-सी मुस्कान।२२।
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जिसने जीवन जी लिया, अँधियारों के साथ।
मिली उसी को भोर-सी, जीवन की सौगात।२३।
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किसके रोके से रुकी, चंचल मन की दौड़।
दुनियादारी सीख मन, करता सबकी होड़ ।२४।
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कैसी सरपट दौड़ती, जीवन की ये रेल।
पल-पल रीता जा रहा, इन साँसों का तेल।२५।
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सुख में थे साथी सभी, दुख में सारे दूर।
ऐसे रिश्ते हो गए, इस दिल का नासूर।२६।
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बूढ़ी आँखें देखतीं, रस्ता हो लाचार।
घर के पंछी उड़ गए, सात समंदर पार।२७।
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आँगन के वटवृक्ष-सा, एक पिता का रूप ।
छाया देता है सदा, सह कर सारी धूप।२८।
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नादां था समझा नहीं, वो दुश्मन की चाल।
पंछी जा बैठा वहीं, जहाँ बिछा था जाल।२९।
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झाँसी की रानी बनो, करो शत्रु पर वार।
जैसे चण्डी ने किया, महिषासुर संहार।३०।