उनका टिकट फिर कट गया। इस बार पूरी उम्मीद थी कि जनता की सेवा करने का टिकट उन्हें ही मिलेगा। पिछले पाँच साल से वे इसी आस पर टिके हुए थे,पर अनहोनी हो गई। उनकी आस में दिन-दहाड़े सेंध लग गई। आख़िरी सूची से उनका नाम नदारद हो गया। दरअसल दल के एक बड़े पदाधिकारी का ‘छुटका’ बेटा जनसेवा करने के लिए अचानक मचल उठा। हाईकमान ने पार्टीहित, जनहित और देशहित के संगम में उनकी डुबकी लगवा दी।वे ज़रा समर्पित-क़िस्म के जीव थे पर दल को अब उनके समर्पण की नहीं तर्पण की ज़रूरत महसूस हुई। पार्टी ने एक बार फिर त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाकर उन्हें सप्रेम किनारे कर दिया। उनको मुक्ति मिली और दल को नई शक्ति। इस अनचाही पुण्याई पर वे फूट-फूटकर रोने लगे। उनके आँसू ज़मीन पर गिरकर अकारथ हों, इससे पहले ही मीडिया के कैमरों और विरोधी दल के हाथ ने उन्हें थाम लिया। राजनीति पर उनका विश्वास टूटते-टूटते बचा।
वे इतने काम के निकले कि उनके खारे आँसू भी दूसरे दल के काम आ गए। दो कौड़ी की भावुकता दूर की कौड़ी साबित हुई। जब तक वे दिल से सोचते रहे, घाटे में रहे।दिमाग़ ने सही राह सुझाई और दर्द के आँसू सीप के मोती बन गए।विचारधारा और सिद्धांत की नश्वरता समझने में पहले ही उन्होंने काफ़ी देर कर दी थी। एक झटके में वे सभी बंधनों से मुक्त हो गए। दुर्भाग्य पलक झपकते ही सौभाग्य बन गया।चुनावी-हवा का संसर्ग पाकर वे अनुकूल दिशा में बह चले। ऐसे सुहाने मौसम में भी वो न ‘बहते’ तो कब बहते !
उन्हें तुरंत लपककर नए दल ने बड़े पुण्य का काम किया है। जिनके लिए वे कल तक भ्रष्टाचार के पर्याय थे, उनके दल में प्रवेश होते ही वे कुंदन-से चमकने लगे।यह उनके सार्वजनिक-क्रंदन का ही प्रताप था। उन्होंने अपनी ‘बेदाग़’ चदरिया जस-की-तस नए तंबू में बिछा दी। इस तरह आत्मा का परकाया-प्रवेश पूर्ण हुआ। उनकी अंतरात्मा को काफ़ी दिन बाद सुकून मिला। वे अब जनसेवा की दहलीज़ पर खड़े थे। कपड़े बदलने भर से जब कोई साधु बन जाता है तो दल और दिल बदलकर जनसेवक क्यों नहीं बन सकता? इसलिए जहाँ टिकट मिली वे वहीं टिक गए।
टिकट कटने पर उनका रोना एक बड़ी ख़बर रही। जनसेवा से उनको वंचित करने की साज़िश को उन्होंने विरोधी दल के साथ मिलकर नाकाम कर दिया। सेवा को लेकर उनकी प्रतिबद्धता इसी से ज़ाहिर होती है। इस बात की तसदीक़ करने के लिए हम बेचैन हो उठे। वे चुनाव-क्षेत्र में ही मिल गए। उनके एक हाथ में आँसू और दूसरे हाथ में टिकट था।हमें देखते ही भावुक हो उठे। कहने लगे-‘तुम्हारी भविष्यवाणी पर हमें यक़ीन था। तुमने बहुत पहले ही कहा था कि हमारे हाथ की रेखाओं में सेवा का योग लिखा है और देखिए आज उसी हाथ ने हमें यह मौक़ा दिया है। अब हम दोनों हाथों से जनता की सेवा करेंगे।जनता भी हमें पाकर धन्य होगी। हमें महसूस हो रहा है कि हमारा जन्म ही सेवा के लिए हुआ है। अभी तक तो हम दलदल में फँसे हुए थे।अब जाकर सही दल मिला है। इतना बड़ा चरागाह मानो हमारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।तबियत से हरियाली चरेंगे।’
हमने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा-‘तुम्हारा राजनैतिक उदय शुरू हो चुका है। तुम बहुत आगे तक जाओगे। तुम्हारी ‘किरपा’ आँसुओं में रुकी हुई थी। अब वह साक्षात् दिख रही है।तुम्हारे आँसुओं ने टेलीविज़न पर बरस कर बरसों का ‘सूखा’ समाप्त कर दिया है। एक चुनावी-टिकट ने संभावनाओं के कई द्वार खोल दिए हैं। अब तुम्हारे सामने सेवा के मौक़े ही मौक़े हैं।’
इतना सुनते ही वे भाव-विह्वल हो उठे। बोले-‘मौक़े का नाम सुनते ही सारे शरीर में झुरझरी-सी उठने लगती है।दूसरों को मौक़ा मिलते हमने दूर से ख़ूब देखा है। इतने क़रीब से पहली बार अपने मौक़े को महसूस कर पा रहा हूँ। राजनीति में टिकट-विहीन नेता पर-कटे पंछी की तरह होता है। बिना पंख के जैसे उसकी उड़ान रुक जाती है,वैसे ही नेता का विकास।हम तो विकास के जन्मजात समर्थक हैं और पूरी तरह जनता को समर्पित भी। हमारा अपना कुछ नहीं है।सब जनता का है।हमारा विकास जनता का विकास है।हमारी पीड़ा भी जनता की पीड़ा है। हमारे सार्वजनिक-रुदन का कारण यही है। ये हमारे आँसू नहीं जनता के हैं। आने वाले पाँच सालों में उसे भी यह बात ठीक तरह से समझ में आ जाएगी।सेवा देकर एक-एक आँसू का हिसाब लूँगा।’
‘टिकट कटने के बाद से तुम्हारा आत्मविश्वास लौट आया है। पार्टी हाईकमान यदि तुम्हारा टिकट नहीं काटता, तुम अभी भी गुमनामी में जीते। नए दल से टिकट मार कर तुमने दिखा दिया है कि आँसू कमज़ोर ही नहीं मज़बूत भी बनाते हैं।बस चुनाव तक अपने आँसू बचाए रखो। अब जनता की सेवा करने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता।तुम्हारी जीत सुनिश्चित है।’ हमने उनके आत्मविश्वास को और हवा देते हुए कहा।
हमारा आश्वासन पाकर वे भभक उठे।उनके चुनाव-क्षेत्र की ख़ैर मनाते हुए हम घर लौट आए।