(एक)
भरोसा
भरोसा एक ऐसा शब्द था
उसकी आत्मा जिसे जन्म जन्मांतर से
घुटी बनाकर पी रही थी
भरोसा तब भी रहा जब ज़ख्मों ने नासूर हो जाने की घोषणा की
भरोसा तब भी रहा जब सबसे भरोसेमंद आत्मीय ने कहा
तुम्हारी मृत्यु का दिन मेरे जीवन का सबसे बड़ा सुकून होगा
भरोसा तब भी रहा जब कहा गया कि
रोटी का एक टुकड़ा और सिर छुपाने की छत के लिए
नहीं होगा भीख मांगने के सिवा कोई चारा
भरोसा तब भी रहा जब मौत ने आकर मीठा चुंबन दिया गालों पर और कहा
यहां नहीं किसी को तुम्हारी दरकार
केवल मैं ही हूँ तुम्हारी सच्ची दोस्त,
-चलो अब समय नहीं और तुम्हारे पास
भरोसा तब भी रहा जब अनजान लोगों को भी थमा दी उसने अपने अवचेतन के प्रवेश द्वार की कुंजी।
भरोसा उसके बाग़ में हर रोज़ खिलने वाला वह गुलाब है
जिसकी खुशबू और सौंदर्य उसे अपनी ओर खींच लाता है
जब भी वह सोचती है कि अब वह लेगी उधार कौए की चालाकी
कि तभी पहाड़ी झरना देखकर फिसल जाता है उसका मन
वह बह जाती है साथ सागर से मिलन के भरोसे में
एक दिन भरोसे को अलविदा कहने की ठान वह घुसी अपने घर में
घर का दरवाजा अटकाकर
कई घंटों भूली रही वह ताला लगाना
कि तभी दरवाज़े की धम्म…ध्वनि से
उसे कुछ खटक गया
न कुछ गिरा, टकराया, न कोई आया न गया
न साथ है उसका कोई हितैषी
न कोई पड़ोसी, न रिश्तेदार
हवा भी चली नहीं तूफ़ानी
कैसे कहां से आई ये ज़ोरदार ध्वनि
घर का हर कोना मापकर
जब नहीं मिला कोई ज़रिया
दरवाज़े का हैंडल घुमाकर देखा
और उसे खुला पाया
फिर संकेत के भरोसे की बेल
फैल गयी उसके मस्तिष्क की छत तक
अगले दिन
एक माह से गुमे हुए उसके सोने के कंगन
रोज़ वहीं ढूंढने पर भी न दिखाई देने वाले
जगमाते हुए दिखे बाथरूम से बाहर आते ही
जहां खड़े होकर ब्रश करते हुए ही
प्रार्थना के कोमल स्वरों की गोली
चला दी थी उसने आसमान की ओर
भरोसा था उसे
कि लगी थी यह आसमान के दिल पर
जीवन से भरे रहने का भरोसा उसे आख़िर
उसके जीवन की विकट, अप्रत्याशित, घोर कलयुगी विपत्तियों ने दिया था
(दो)
अधूरी कविता
रात वहां खिड़की पर एक दिया जलता है
उम्मीदों का ऊंचा वलय उसकी आँखों में
हर दिन इसी तरह अपने पंख फैलाते हुए
होता है प्रविष्ट
पारलौकिक ऊर्जा जिसे देखते ही
बदल देती हैं अपना स्वरूप –
ऋणात्मक से धनात्मक में
लेकिन यह क्या!
मेरी अधूरी कविता
शर्माते हुए इशारा करती है मुझे
ईद के चांद की ओर देखने का
(तीन)
लेखक या मनुष्य
विश्व कविताओं को पढ़ता
उनका अनुवाद करता
आम आदमी की बात करता
धनाढ्यों पर, अहंकारियों पर, सच के मुखौटों के पीछे छुपे झूठों पर, सत्ताधारियों पर तंज करता,
सौंदर्य का उपासक
समकालीन कवियों की बेहतरीन कविताओं का मीमांसक
अपने नैन नक्श को सामने लाने में सकुचाता
हीनताबोध से ग्रस्त
हरफ़नमौला होने का भरम पाले
अपनी कविताओं के प्रकाशन को अस्वीकृत किए जाने से बौराया
संपादकों को गरियाता
बेशक वह एक असाधारण लेखक है।
उपरोक्त पंक्तियों के समूल नष्ट हो जाने पर
जो बचा रहता है
वही उसमें नहीं मिलता
होना- ‘मनुष्य और सिर्फ़ मनुष्य’
(चार)
पीड़ा एक दृष्टिदोष है
क्यों पीड़ा दी
रात अपनी आंखों को मैंने
बिना चश्मा पहनाए
ये जानते हुए भी
कि
पीड़ा की आंखें नहीं होतीं
न ही होता है उसका अपना विवेक…
जो सोच समझकर
हृदय में उतरे,
तो आंखों में नहीं
और आंखों में उतरे
तो आत्मा में नहीं
पीड़ा एक दृष्टिदोष है।
(पांच)
वे चेहरे जो मिट गए लगते थे
जो चेहरे मिट गए वो कहाँ जाते हैं?
क्या डाल से गिरे पत्तों के पीछे छिपे होते हैं?
क्या उनकी पीठ पर सवार होकर
झील या नदी, समंदर, पहाड़, हवा में
समा जाते या उनमें रूपांतरित हो जाते हैं?
कई माह गुज़र गए
मैं ईश्वर से ये सवाल पूछ रही हूँ लगातार
हर बार रहा है वो निरुत्तर
आज अंततः बहुत धीमे स्वर में
फिर उछाला है मैंने वही सवाल हवा में
खड़ी हूँ सूरज को घूरते हुए
और हवा बेहद ठंडी होकर मेरे कानों को छू रही है
एक अनजानी ख़ुशबू मेरे नथुनों में घुसी जा रही है
अचानक झील के पानी में हिलोर तेज़ हो गयी है
मैं झांक रही हूँ इसमें और देखती क्या हूँ-
कि
पुतलियों की जगह सूरज मेरी आंखों में कब्ज़ा कर बैठा है
अपनी आंखों को रगड़ते हुए मैंने गर्दन ऊपर उठाई
तो पीक डिस्ट्रिक्ट पर खिले बैंगनी फूल
अचानक अपनी गर्दन आगे झुलाते नज़र आए
इन दृश्यों ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया
मैंने फुर्ती से कदम पास खड़ी अपनी कार की ओर बढ़ाने शुरू किए
तीव्रता से गाड़ी चलाते हुए
मैंने उसका रुख़ समन्दर तट की ओर कर दिया
मुझे यकीन था
समंदर अपनी मौसिक़ी की महफ़िल से
मन की दुविधा के हल की थपकियाँ लगाएगा
जब बैठी इसके किनारे तो लहरें बड़े चाव से कर रहीं थी अपना शृंगार
सीगल बहुत ज़ोरों से गाते और फुदकते वहीं मंडरा रहे थे
रेत की दरी पर लेटकर
कुछ क्षणों के लिए मूंदी मैंने आंखें
तो अगले दृश्य में सीढ़ी लगाकर
मेरे अवचेतन की गहराइयों तक
उतरते दिखे सारे जवाब
वे चेहरे जो मिट गए लगते थे
प्रकृति की हर शय पर दोगुने सौंदर्य के साथ
कबसे मुझसे बातें कर रहे थे
लेकिन आज…
मेरी नासमझी के शंख से घोंघे बाहर निकल आए थे
आख़िरकार फ़िज़ाओं के संगीत को
तैराकी का प्रशिक्षण देने
शंखों की नियुक्ति हो चुकी थी।
*सीगल- समुद्री पक्षी
* पीक डिस्ट्रिक्ट- इंग्लैंड में पहाड़ों से घिरे इलाके का नाम, जो बैंगनी फूलों की झाड़ियों से भरा रहता है
(छह)
अकेलेपन का उत्सव
अपने अकेलेपन का उत्सव कभी नहीं मना सकी वह
अन्य रश्क़ करते गए
उसे आज़ाद एकांतवासी समझते हुए
बचपन में उसे रहा अपने अकेली सन्तान होने का ग़म
शादी के बाद उसे सिखाई गई अजनबियत के पकवान बनाने
और उसे तल्ख़ी की थाली में परोसने की कला
जिसमें पारंगत शेफ था उसका जीवनसाथी
मसलिन में लिपटी कुलीन सी लगती घृणा और
युद्ध विराम के बाद
उपेक्षा के शस्त्रों की रंगोली
उसे हर शब्द की देहरी पर मिली
जिस पर शंकाओं का एक अमिट दिया
जलाया गया था
जिसे डरते हुए छूकर देखा उसने
कि
शायद कल बनाएगी वह
इससे भी कहीं बेहतर
तो सुन्न पड़ गईं उसकी उंगलियां
फिर उसके हाथ, गर्दन और पीठ और
मस्तिष्क को हुआ पक्षाघात
देह ने अपना नाम बदल कर
सीखने से पहले ‘हारे योद्धा का आत्मसमर्पण’ कर लिया
उसे नहीं मालूम थी अपनी जेनेटिक संरचना
इसलिए अनन्त चुप्पी के डरावने काले बादलों को
वह पश्चाताप से उत्पन्न शीतल छाया,
अपमान के कंटक को
मंद हवा की स्नेहिल छुअन
और क्रोध के ज्वालामुखी को ऊर्जा का स्त्रोत
समझती रही आजीवन।
नादानी की संरक्षक वह नहीं समझी
कि उसकी झुकी पीठ को
विनम्र गृहस्थी की नींव नहीं
बल्कि घमंड को आसमान तक ले जानेवाली
कच्ची सीढ़ी भर समझा गया
फिर आसमान के मंच पर पहुंचकर
घर के राजा के पंख उग आए,
जिसकी गालियों की हथौड़ी के
ज़बरदस्त आघात से
धराशायी हो गयी वह कच्ची सीढ़ी
हद तो तब हो गयी जब
गुज़री वहां से
बांस से बनी उसकी सहेली
जिसे टुकडों के सन्तुष्ट चेहरों पर
नहीं दिखी जीवन समाप्ति की एक भी खरोंच
और
फिर से जोड़े जाने की लालसा
बल्कि दिखा एक अनाम शहीद
जो अपने देश के मुखिया के पैर
अपने अश्रुओं से धोने की अपूर्ण इच्छा लिये
वहीं मंडरा रहा है,
जबकि मुखिया इतनी ऊंचाई पर है कि
पैर के नीचे भी उसे आसमान दिखता है