(तुलसी के निजी जीवन के अनुभवों के आलोक में उनके साहित्यिक जीवन की पड़ताल)
तुलसी की पत्नी से नहीं बनी। मतलब उनका पारिवारिक जीवन सफल नहीं रहा। कहते हैं वे अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे लेकिन पत्नी ने कद्र नहीं की शायद। दोनों का विरह हो गया।
तुलसी के पूरे व्यक्तित्त्व को इस प्रसङ्ग के आलोक में भी देखना चाहिए। इसी से मिलते-जुलते कुछ बेहद गम्भीर प्रसङ्ग और भी हैं, मसलन उनकी ग़रीबी। उनका अनाथ होना। दर-दर भीख माँगकर खाना।
मैं तुलसी को बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की रूढ़ परिभाषा से भिन्न देखने की अपील करूँगा।
तुलसी को उनके निजी जीवन के अनुभवों बल्कि कहना चाहिए कटु अनुभवों से अलग करके देखने से सही निष्कर्ष नहीं निकलेंगे।
तुलसी का पूरा जीवन अभावों का जीवन रहा। वे बेहद उपेक्षित एवं अभावग्रस्त रहे। उनका जीवन एकांत से भरा बेहद अकेला जीवन था।
जिसने उन्हें इनसिक्योर कर दिया होगा। उनका पूरा साहित्य उसी इनसिक्यूरिटी का रिफ्लेक्शन है।
इस कदर आशावादी, आस्थावादी, सकारात्मकतावादी होना असल में उनकी मंशा, उनकी जन्म भर की इच्छा थी।
उन्होंने जीवन में जो नहीं पाया उसे साहित्य में पाना चाहा। उनके पात्र, उनकी रचना का पूरा कलेवर उसी मंशा, उसी इच्छा का प्रकटीकरण है।
उन्होंने आदर्श परिवार की कल्पना की होगी। आदर्श पत्नी की कल्पना की होगी। आदर्श भाई, आदर्श माँ, आदर्श पिता कुल मिलाकर कह सकते हैं कि एक आदर्श समाज की कल्पना की होगी।
आप रामचरितमानस को इस तरह देखें। इस तरह पढ़ें। आप उस पुस्तक से नई चीज़ें पाएँगे।
मेरे लिए तुलसी सत्ता(शक्ति) के नहीं, जनता(लोक) के कवि हैं। मैं मार्क्सवादी आलोचकों से सहमत नहीं कि तुलसी किसी रूढ़ सत्तावादी व्यवस्था के पोषक थे। तुलसी आमजन की पीड़ा को व्यक्त करने वाले लोक कवि थे। उनकी लोकप्रियता की मुख्य वजह यही है कि लोक ने उन्हें अपना जाना। उनके साहित्य को, उनके साहित्य में अपने को पाया। अपने लिए रास्ता देखा। उन्हें जीने का तरीका देखा। तुलसी यहाँ आकर बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
पत्नी उस एकांत, उस मंशा की पूर्ति दिखी होगी, लेकिन उसने भी निराश किया। तुलसी की आशा मर गयी। तुलसी का प्रेम आम लोगों का प्रेम नहीं है। इतिहास में उनके प्रेम की जो कथा, जितनी कथा प्रचलित है वह सामान्य प्रेम, साधारण प्रेम नहीं है।
उनका प्रेम बेहद तीव्र था। असल में तुलसी का प्रेम अपने अभावों और एकांत को पत्नी के साहचर्य से भरने का प्रेम था। तुलसी इसलिए साधारण प्रेमी नहीं हैं।
मुझे यह प्रसङ्ग बेहद समस्यामूलक(प्रोब्लेमेटिक) लगता है। आखिर उनकी पत्नी ने तुलसी को क्यों नहीं समझा? यह इतनी आसान व्याख्या कैसे हो सकती है कि तुलसी को फटकार लगा दी और तुलसी विरत हो गए।
क्या पत्नी ने तुलसी के प्रेम को नहीं समझा होगा? क्या इससे पहले उन्होंने पति के इस प्रेम, इस तरह के प्रेम को नहीं देखा था? नहीं जाना था? बिलकुल जानती होंगी।
तो क्या ऐसे ही चिढ़ में, लज्जा में फटकार दिया होगा?
लेकिन ऐसी फटकार के इंटेंशन को तुलसी ने क्यों नहीं समझा? है न समस्या(प्रॉब्लम) वाली जगह?
तुलसी को जरूर पता होगा कि यह साधारण फटकार नहीं है। मुमकिन है यह सब पहले से चलता रहा होगा। आखिर इस कदर प्रेम करने वाला एक बरगी भी क्यों नहीं सोचेगा? पत्नी जिसके जीवन में इस की मुख्य वजह हो।
पत्नी जिसके एकांत और जीवनभर के अकेलेपन को दूर करने की दवा हो, माध्यम हो आखिर उसकी एक फटकार से व्यक्ति उससे अलग कैसे हो सकता है? जाहिर है यह इतना सरल मामला नहीं है।
तुलसी फिर खुद को उपेक्षित समझने लगे।
लेकिन तुलसी ने अपने व्यक्तिगत दुःख, व्यक्तिगत पीड़ा को सृजनात्मक रूप दे दिया। यह तुलसी का महान पक्ष है। उनकी पीड़ा विध्वंसात्मक नहीं हुई। वह बेहद विन्रम और सृजनशील हो गयी।ऐसा ही अनुभव लोक के दुःख को समझ सकता है। उसे आवाज़ दे सकता है।
उन्होंने उपेक्षित लोगों को सहारा दिया। उन्होंने कमज़ोर लोगों को बल दिया। उनका पूरा साहित्य आमजन को ताकत देता है। तुलसी बजरंगबली हैं।
मैं उनके पात्र हनुमान को उनका ही साहित्यिक रूप कहना चाहूँगा। बजरंग, बल को अर्जित करते हैं। आप देखें हनुमान की शक्तियाँ लोककल्याण के लिए ही उपलब्ध होती हैं। हनुमान तभी बलशाली होते हैं जब कल्याणमूलक होते हैं।
तुलसी भी कल्याणमूलक हैं। उनका पूरा साहित्य ऐसा ही है।
उनकी पत्नी की फटकार बेहद मारक रही होगी।
तुलसी टूट गए होंगे। एक कथा है कि तुलसी जब पत्नी से मिलने गए तो उन्होंने उनकी बेइज्जती कर दी। देह-प्रेमी। कामुक। और न जाने क्या-क्या कह दिया।
पुरुष धिक्कार की वस्तु नहीं। पुरुष प्रेमी होता है।
उसकी भावनाएं नाजुक होती हैं। वह स्त्रियों से ज्यादा सेंसिटिव होता है। तुलसी का प्रेम पत्नी के कटुवचनों से आहत हुआ होगा। उसने खुद को अपमानित महसूस किया होगा।
वह पत्नी से, स्त्री से विरत हुआ और खुद को कला को समर्पित कर दिया।
तुलसी से बड़ा कवि हिंदुस्तान में कोई नहीं। उनकी लोकप्रियता उनकी सर्वप्रियता उनकी सर्वग्राहिता आज एक सत्य है।
तुलसीदास को कवि और महात्मा के तौर पर अवतार समझने की जगह इस प्रसङ्ग के आलोक में समझने की कोशिश करें तब उन्हें समझ पाएंगे। जान पाएंगे।
तुलसी की लोकप्रियता के मूल को समझ पाएँगे।
हिन्दुस्तान जैसे देश में एक उपेक्षित, शोषित, पीड़ित ही लोकप्रिय होगा।
एक ऐसा व्यक्ति जिससे लोग खुद को रिलेट कर सकें। तुलसी हर तरह से एक आम आवाज़ थे।उनकी पीड़ा ओरिजिनल थी। उनका अकेलापन ओरिजिनल था। उनकी दुनिया को देखने की दृष्टि आमलोगों की थी। वे एक आम साधारण गरीब को रिप्रेजेंट करते हैं।
उनकी कविताएँ इसलिए लोगों को अपील कर पाईं। आज भी कर रही हैं।
लोकनायक वही हो सकता है जो लोक के कष्टों को, उसकी आशा आकांक्षाओं को, उसकी आवश्यकताओं को प्रकट कर सके। समझ सके।तुलसी ऐसे कवि थे।
हनुमान चालीसा पढ़ने से, सुनने से ताकत मिलती है। राम शक्ति(ताकत) की पूजा करते हैं। रावण शक्ति की पूजा करता है।
तुलसी ने असल में अपने हर अभाव को पहले जीवन में, पत्नी में भरना चाहा होगा, जब वहाँ से उपेक्षा मिली होगी तब विरत हुए होंगे, वैरागी हुए होंगे और राम तथा बजरंगबली में आश्रय पाया होगा।
राम ही पिता हो गए, और बजरंगबली मित्र, सहारा, सहायक। तुलसी को दुनिया से इतनी उपेक्षा मिली कि वे पूरी तरह भगवान में खो गए। सोचिए तुलसी को हाथ में घाव हुआ,गठिया हुआ तो ‘हनुमानबाहुक’ नामक पुस्तक लिख दी।
कौन करता है ऐसे, वही न जिसने दुनिया को छोड़ दिया हो और जिसके लिए भगवान ही सबकुछ हो गए हों।
तुलसी की पत्नी ने महान तुलसी की क़द्र नहीं की। उनके मन को नहीं समझ सकने वाली वह एक साधारण स्त्री निकली। तुलसी का पूरा जीवन अभावों का जीवन था, उनकी पत्नी साधारण दुनियायवी निकली।
तुलसीदास को ब्राह्मणवादी और व्यवस्था का पोषक/शोषक कहने वाले आलोचक धूर्त हैं वे यह नहीं देखना चाहते कि तुलसी सा सताया हुआ दूसरा कोई नहीं था। जिसे ‘मांग के खइबो, मसीत में सोइबो’ लिखना पड़ा हो अंदाज़ा लगाइए उस कवि को मार्क्सवादी आलोचकों ने शोषक कहा।
तुलसी की पीड़ाएँ आम भारतीय, एक निर्धन, अनाथ, एक कमज़ोर व्यक्ति की समस्याएं हैं। तुलसी ने ऐसी स्थिति में भी समाज को शुभ और सकारात्मक दिया।
उन्होंने अपने पूरे साहित्य में शुभ संगति की बात की है। यह शुभ संगति भौतिक और मानसिक दोनों है। आपको अच्छे संत मित्रों की संगति करनी चाहिए तो साथ ही मस्तिष्तक को सद्साहित्य की संगति करानी चाहिए।
तुलसी का समस्त साहित्य सकारात्मक जीवन दृष्टि से भरा हुआ है। समाज ने उन्हें गालियाँ दीं, मारा, उपेक्षित किया, अपमानित किया, नकारात्मक वातावरण दिया और उन्होंने समाज को ‘रामचरितमानस’ दिया। शुभ दिया, सकारात्मक दिया।
मेरे लिए तुलसी जैसा लोक साहित्यकार और कोई नहीं। प्रेम के बड़े-बड़े नारों के आलोक में फैसले सुनाने वाले आलोचकों को तुलसी को इस तरह भी देखना चाहिए।