(01.) उदासी की उंगली थाम खुशी की तलाश में
ये संभव है कि
उदास होने के हज़ार बहाने हो हमारे पास
परंतु ये नहीं संभव है कि
बहानों की कठौती में हाथ डाले हम
तो हाथ ना आए खुश होने का एक भी बहाना।
सुबह-सवेरे बढ़ी दाढ़ी, फटे कपड़ों में
बेबस भूखा अपनी आँखें मलता हुआ भिखारी
कंकड़ों को ठोकर मारते स्कूल जाते बच्चों को देख
पल भर के लिए भूल सकता है आपकी बेबसी, अपना भूख।
नर्स का एक प्यार भरा आलिंगन पाकर
सुकून से मर सकता है मरता हुआ मरीज़।
प्यार में सब कुछ हार बैठा
शहर छोड़ने की तैयारी करता युवक
मुस्करा सकता है भीगी आँखों से
सहेज कर रखे किसी शर्ट पर देख चाय का धब्बा।
…कि क्या पता किसी ठंडी रात में
उसकी प्रेमिका के प्याले से उसके शर्ट पर गिरा हो वो चाय!
मेरे दोस्त!!!
देख सको तो ये दुनिया बहुत खूबसूरत है।
तलाश सको तो हज़ार बहाने हैं मुस्कराने के यहाँ।
(02.) रात के दो सात, यादों की बारात
रात के दो सात…
कमरे के एक कोने में जहाँ रोशनी कम है कुछ
एक फतिंगे के साँसों से अपने अँतड़ियों की डोरी जोड़े
घाट लगाए उल्टी लटकी है एक छिपकली।
(पहले खिलखिला उठती थी
एक दुबली पतली-सी लड़की
अक्सर छिपकली के बहाने डरा कर मुझे।)
मेज़ पर पड़ी किताबों के बीच
ऊँघ रहा है नीली टिकिया का एक पत्ता
कहते हैं मेरी नींद के साथ किया है उसने समझौता कोई।
(अरसे पहले पढ़ी गई एक पंक्ति
कौंध जाती है जेहन में मेरे―
मैंने अपनी जिंदगी इसे खत्म कर देने की इच्छा का
प्रतिरोध करते हुए गुज़ारी है।) ***
दूर कहीं से लड़खड़ाते हुए है आती
एक कुत्ते के रोने की उदासी भरी आवाज़।
(अरसे पहले ऐसी ही एक रात
बीच सड़क पर मेरी कार से कुचला गया था एक कुत्ता
‘ऑन द स्पॉट’ मर गया वो बग़ैर किए कोई आवाज़।)
रात के दो सात…
मुझे होता है एहसास
कि जीवन के मामूली चीजों से भी
किस कदर जुड़ें होते हैं अनगिनत यादों के तार।
***फ्रांज़ काफ़्का का एक उद्धरण।
(03.) तुम्हारी बदनसीबी और हम
प्रदर्शनी में लगी हम वो नग्न पेंटिंग थे
जिसे समझा कम निहारा अधिक गया।
एक ऐसे विषय पर लिखी गई किताब थे हम
जिसे पढ़ने के पहले ही बेच दिया गया कबाड़ी को।
हम पियानो के वो बटन थे
जिसे बजाया कम छेड़ा अधिक गया।
काश!
निहारने के बजाय समझा गया होता हमें,
पढ़ा गया होता बेचने से पहले
या किसी चाँदनी रात प्यार से रखी गई होती उँगलियाँ हम पर
तो मेरे दोस्त, तुम जान सकते थे कि दरअसल हम कौन थे।
(04.) प्रेम और उसके बाद
कई दिनों तक बाप रोया, माई रही उदास
कई दिनों तक छुटकी बिटिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी दुआरे बिरादरी की गश्त
कई दिनों तक भाई की भी हालत रही शिकस्त।
नाक कटाकर लड़की आई कई दिनों के बाद
भाई ने मर्दानगी दिखाई कई दिनों के बाद
छिड़ी घर में बियाह की बातें कई दिनों के बाद
जाति के प्रेत की हुई रौशन रातें कई दिनों के बाद।
(05.) प्रेम और समाज
सुबह-सवेरे गाँव वालों को
नदी किनारे वाले महुए से लटकती दोनों की लाश मिली थी।
पिछली रात वो घर से निकल आये थे
मुमक़िन है कि चौखट से लगी ठोकर की आवाज़ सुनकर
बगल में सोई छुटकी नींद में करवट बदली होगी,
मुमक़िन है कि सिटकनी को खोलने के लिए हाथ उठाते वक़्त
दिल दहल गया होगा उसका बाबा के खाँसने की आवाज़ सुनकर।
जब प्रेम के नियम बनाने वाले प्रेत सो रहे होंगे
तब ठाकुर के पम्पीसेट पर मिले होंगे वो
लड़के ने अपने काँपते हाथ में लिया होगा लड़की का आँसुओं से तर हाथ
और उनके कदम नदी की तरफ़ बढ़ चले होंगे,
छाती पीटता चाँद चला होगा पीछे उनके,
भुतहे जामुन को किसी अनहोनी की ख़बर मिल गई होगी।
नदी किनारे उगे कुश के आड़ में घण्टे-दो घण्टे लेटे होंगे वो
किए होंगे याद उन दिनों को
जब परम्पराओं के दीवार को चीर
पीपल की मानिंद उग आया था प्रेम उनका
नम आँखों में मुस्कराहट की एक लहर दौड़ पड़ी होगी,
याद आए होंगे वो सपने उन्हें
जिन्हें उन्होंने एक दूसरे की आँखों में सजाया था,
उनकी नम आँखों के पोखरे में उतर आए होंगे वो तमाम हाथ
जो उठते रहते थे उनके प्यार पर पोतने को कालिख़।
चाँद को अपने पास बुलाकर
उन्होंने उसे अपने प्रेम का साक्षी होने के लिए धन्यवाद कहा होगा,
नदी की हर लहर से आख़िरी दफ़ा पूछा होगा उनका हालचाल,
एक करैत उन पर तरस खाता उनके पास से चुपचाप सरक गया होगा।
महुए पर चढ़कर लड़के ने मौत की तैयारी की होगी,
कड़ी मशक़्क़त से लड़की को खिंचा होगा ऊपर,
एक दूसरे के काँपते होंठो को काँपते हुए चूमने के बाद
उन्होंने अपना-अपना गला फाँसी के फंदे में फँसाया होगा और…
लरज़ती पुरवाई उनके लिए मर्सिया गायी होगी,
हज़ारों उल्का पिण्ड पृथ्वी पर कूदकर किए होंगे आत्महत्या,
महुए उनके शोक में चुए होंगे रातभर,
चकोरा चाँद के काँधे अपना सिर टिकाकर रात भर रोया होगा,
कोई छात्र पढ़ रहा होगा कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है,
मेरा समाज अपनी महानता का नंगा नाच देख रहा होगा।
(06.) काफ्का, तुम और मैं
काफ्का―
पंछी की तलाश में एक पिंजड़ा थे।
मैं काफ्का नहीं,
काफ्का के दुःख से जन्मा उनका वंशज हूँ;
तुम्हारा हूँ।
दरअसल मैं वो पिंजड़ा हूँ
जिसमें एक नन्ही गौरैया-सी कैद हो तुम
ताउम्र चलती रह सकती हैं साँसे मेरी
तुम्हारे फेफड़ों के सहारे।
(07.) रात के दो तेईस : एक श्रापित कवि का स्वयं से वार्तालाप
एक रोज़―
जब पश्चिम की चुड़ैल निगल चुकी थी सूरज को
अपनी ज़ख्मी उँगलियों में कैद करके चंद प्रेम के जुगनू
तुम ले गए कमरे तक उसके और वहाँ कर दिया आज़ाद उन्हें
और उसने किया ये
कि अपने कमरे के कोनों में दुबके अंधकार को
चुपके से छुपा आई डायरी में तुम्हारे।
प्रत्येक रात सोने से पहले
बालों के लट को सावधानी से हटाकर
जिसका माथा चूमते थे तुम
एक रोज़ वो सो गया अपने माथे पर ज़हर पोतकर।
जेठ की दुपहरी– लगभग सूख चुके पोखरे में एक
देखा था तुमने जल बिन एक मछली को छटपटाते
उसे दी ज़गह तुमने नदी में अपनी
पर भादो की एक बरसाती रात, छलपूर्वक
तुम्हारी नदी पर जमा लिया उसने आधिपत्य अपना।
और भी बहुत कुछ हुआ तुम्हारे साथ
और किसी के पास नहीं है उस जादुई संदूक की चाभी
प्रेत ने छुपाया है जिसमें उनके घटित होने का रहस्य।
आत्महत्या समाधान नहीं
समाधान का चोला ओढ़े स्वयं को दिया गया धोखा है
और जीवन सत्य है जिसकी आँखों में टिमटिमाते हैं सितारे।
जियो मेरे शत्रु! जियो अभी कुछ बरस और
कि दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत कविता लिखी जानी शेष है अभी।
(08.) तुम्हारे लिए, यदि तुम संभाल सको तो
मैं मुस्कराते हुए दिख सकता हूँ
पर तुम कभी नहीं देख पाओगे
कि मेरे ख़ून से लथपथ आत्मा पर घाव है कितने
जिन पर भिनभिनाती हैं दुःख की अनगिनत मक्खियाँ।
मैं दिख सकता हूँ सुनसान रास्ते पर तन्हा चलता हुआ
पर तुम कभी नहीं देख पाओगे
कि एक अरसे से मेरे जूते के घुप्प अंधकार में
कैसे फचफचाता रहा है मेरी ज़ख्मी एड़ी से रिसता खून
मैं दिख सकता हूँ अपनी कविताओं की तारीफ़ों के बदले
शुक्रिया, धन्यवाद, आभार जैसे शब्दों को दुहराता
पर तुम कभी नहीं देख पाओगे
आधी रात अंगड़ाई लेती चाँदनी की नंगी पीठ पर
अपनी ख़ून रिसती उँगलियों से लिखते हुए कविता मुझे।
(सच तो ये है कि कविता लिखने के लिए श्रापित हूँ मैं।)
दरअसल,मेरे दोस्त!
अरसे पहले―एक सुनसान रात, काली पहाड़ी के शीर्ष पर
अपने ख़्वाबों के बदले अंधकार से किया था
अपने हक़ीक़त को तुमसे छुपाए रखने का सौदा मैंने।
(09.) दुःख में सना एक सवाल
तपती दुपहरी―
छाँव की तलाश में भटकते-भटकते
एक अंधे के हाथ लगा पेड़ का तना।
पर हाय रे किस्मत! सूख चुका था पेड़ वो।
एक उम्र गुज़ारी है उस अंधे के रूप में मैंने।
हमारे दौर का इतिहास लिखने वाले लिखेंगे
चीजों की उपयोगिता का एहसास सदा देर से हुआ हमें।
प्रेमियों की नियति है रेलगाड़ी की पटरियाँ,
सात हज़ार महीने तनख्वाह में कटती भी नहीं
बल्कि कुत्ते की लाश सरीखा घिसटती है ज़िन्दगी,
एक पगलाई-मरियल बुढ़िया रो-रोकर
अपनी ज़ख्मी उँगलियों से खटखटाती है मौत का दरवाजा―
ऐसे ही हज़ारों सत्य जब घेरकर हुए खड़े मुझे
तब मैंने जाना कि लाशों से भरे गोदाम में कितना सुखद है अंधकार।
बुद्ध, बुद्ध तुम्ही कहो,
क्या इच्छा की ही भांति ज्ञान दुःख का स्रोत नहीं?
(10.) चाँद पर मेरे ख़ून के धब्बे हैं
चाँदनी रात―
मेरे दुःख के नीले तालाब में
मरी मछली-सी उतर आती है आत्मा मेरी।
उजली चाँदनी के परदे के पीछे
परावर्तन, अपवर्तन जैसे हज़ार वैज्ञानिक कारणों का
होगा अस्तित्व तुम्हारे लिए, मेरे दोस्त।
मेरे लिए चाँदनी महज़
रात के ज़ख्मों को सितारों को दिखाने की
एक प्रेत की घिनौनी साज़िश है।