संस्कृति व्यक्ति और राष्ट्र को दृष्टि देती है। जीवन-शैली एवं जीवन-मूल्यों का निर्धारण करती है और विशिष्ट जीवन-दर्शन का निर्माण करती है। संस्कृति ही मनुष्य को मानवीय स्वरूप और गरिमा प्रदान करती है और उसे विशिष्ट बनाती है। मनुष्य के चिंतन, उसके कर्म और जीवन का निर्धारक तत्त्व संस्कृति ही है। इसलिए राष्ट्र की सबसे बड़ी धरोहर भी संस्कृति ही होती है, जो उसे एक विशिष्ट पहचान देती है। भारतीय संस्कृति विश्वपटल पर अपनी अनूठी विशेषताओं के लिए जानी जाती है। भारतीय जीवन-दर्शन और सांस्कृतिक मूल्य सदियों से मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करते आए हैं। ‘स्वकेंद्रित’ की जगह ‘सर्वकेंद्रित’ भारतीय संस्कृति भौतिक, आत्मिक और आध्यात्मिक संतोष प्रदान करती आई है। यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम से निर्धारित जीवनक्रम अनवरत चलता रहता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’, ‘अतिथि देवो भव:’, सांस्कृतिक आत्मसातीकरण एवं सम्मिलन, प्राकृतिक साहचर्य के साथ-साथ सामुदायिकता, समन्वय और संतोष इसकी आधारभूत मूल्य-सरणि हैं।
भारत अपनी ‘विविधता में एकता’ के लिए जाना जाता है। भारत में अनेक भाषाएँ, जीवन-पद्धतियाँ, धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार, रहन-सहन और ख़ान-पान अपने पूरे वैविध्य और वैभव के साथ जीवन में राग-रंग भरते रहे हैं। भारतीय संस्कृति की सबसे अनूठी विशेषता वह अन्तःसम्बद्धता है जो गहरे स्तर पर समस्त भारतीयों को एकसूत्र में पिरोए रखती है। भारत की भौगोलिक और पर्यावरणीय विविधता भी इसे विशिष्ट स्वरूप प्रदान करती है।
उत्तर-पूर्व भारत अपनी समृद्ध संस्कृति, उन्नत जीवन मूल्यों, प्राकृतिक सुषमा एवं संसाधनों के लिए जाना जाता है। उत्तर-पूर्व भारत का समाज सदियों से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं का ध्वजवाहक रहा है। किंतु वैरियर एल्विन जैसे अंग्रेज मानवशास्त्रियों ने अपनी औपनिवेशिक नीति के तहत इस विशिष्ट भारतीय समाज को असभ्य, जंगली और आदिम बताते हुए साम्राज्यवादी हितों के अनुकूल ‘औपनिवेशिक पाठ’ तैयार किया और मिशनरियों के माध्यम से सचेत और सुनियोजित धार्मिक हस्तक्षेप किया। इससे उत्तर-पूर्व भारत न केवल भ्रांत धारणा का शिकार हुआ बल्कि अंग्रेजों की समाज में ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति की भी प्रयोगशाला बना। हम आज उसी बीज को ‘अलगाववाद’ के रूप में फलते-फूलते देख रहे हैं। “पूर्वोत्तर भारत रंगारंग लोकसंस्कृति का संग्रहालय है। असम तथा पूर्वोत्तर भारत की सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों की अपनी संस्कृति है। इन संस्कृतियों के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति का भी सातत्य है। परन्तु आज शेष भारत के लोगों का पूर्वोत्तर की इन संस्कृतियों के साथ परिचय न के बराबर है, जो भारतीय एकता की अवधारणा को बाधित और विच्छिन्न करता है। इस कारण इनके मध्य भावनात्मक संपर्क का भी अभाव है।”1
पूर्वोत्तर के समाज ने जंगल, जल और ज़मीन के साथ सतत, धारणीय और आत्मीय सम्बन्ध स्थापित किया; भारतीय सांस्कृतिक जीवन का पल्लवन किया और प्राकृतिक संसाधनों का जैसा अनुकरणीय और संयमित उपभोग किया; वह इन्हें मनुष्यता के पैमाने पर बहुत उच्च स्थान का अधिकारी बनाता है। वर्तमान समय की आवश्यकता है कि उस ‘औपनिवेशिक पाठ’ को नकार कर और भारतीय सांस्कृतिक एकात्मता के तत्त्वों को स्वीकार कर हम उत्तर-पूर्व समाज के गौरव को पहचानने और प्रतिष्ठित करने का प्रयास करें। इससे न केवल उत्तर-पूर्व के विभिन्न समुदायों बल्कि सम्पूर्ण भारत और भारतीय संस्कृति की मूल अवधारणा के साथ भी न्याय हो सकेगा।
भारतीय संस्कृति के विशाल कलेवर तथा भारतीयता की मूल आत्मा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए आलोचक नामवर सिंह ने लिखा है– “अखंड भारत की परिकल्पना अनेकता में एकता नहीं है, वरन एकता से निःसृत होने वाली अनेकता है। अर्थात ‘एकोह बहुस्याम’, हम एक हैं, अखंड हैं, एक तत्त्व हैं, शक्ति हैं जैसे आत्मा या ब्रह्म एक है और वह अनेक जीवों में अपने को प्रकट करता है। उसी तरह से अखंड अविभाज्य भारतीय आत्मा है। वह भारतीय आत्मा ही है जो अपने को विविध रूपों में अभिव्यक्त करती है। ये प्रदेश और राज्य और भाषाएँ और संस्कृतियाँ और धर्म उससे उद्धृत होते हैं।“2 सत्य तो यह है कि नामवर सिंह ने ब्रह्म की जो मीमांसा प्रस्तुत की है वह भारतीय चेतना एवं चिन्तन की अवधारणा के विपरीत है क्योंकि भारतीय सन्दर्भ में जिस ब्रह्म को स्वीकार किया गया है वह नामवर सिंह के बहुस्याम: के ठीक विपरीत एकात्मता के ऐसे सूक्ष्म सूत्र से ग्रंथित है जिसके अंतर्गत जहाँ एक ओर दयासागर भगवान शिव की त्रिशक्ति है तो दूसरी ओर, भगवान् विष्णु के अवताररूप में राम, कृष्ण जैसे महामानव हैं। तीसरी ओर, शक्ति स्वरूपा भगवती दुर्गा, काली, सीता आदि की शक्ति की एकात्म अन्विति है। शायद नामवर सिंह की दृष्टि में ब्रह्म की यह अवधारणा समाहित ही नहीं हो सकी। भारतीय संस्कृति की एकात्मता के गूढ़ रहस्य को समझने के लिए भारतीय दृष्टि का आत्मसातीकरण आवश्यक है। भारत की अखंडता के संदर्भ में उन्होंने ऋग्वेद के अग्निसूक्त ‘ओऽम अग्निमइले पुरोहितम होतारं रत्नधातमम’ जैसे पवित्र उद्घोष का उद्धरण तो दिया परन्तु इसकी प्राचीनता, मौलिकता एवं विशिष्टता को देखने-समझने में उनकी दृष्टि असफल रही। विश्व के उपलब्ध प्राचीनतम एवं सर्वसम्मत साहित्य का ‘अग्निसूक्त’; जिससे कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आलोकित और उद्भाषित हुआ है, भारतवर्ष की अखंडता में निरंतर निरूपित एवं स्थापित हुआ है।
वास्तविकता यह है कि उत्तर-पूर्व के समाज का सांस्कृतिक स्वरूप भारतीय संस्कृति का ही विस्तार है। वास्तव में संस्कृति या भारतीयता की अवधारणा पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। भगवतशरण उपाध्याय ने भारतीय संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है–“भारतीय संस्कृति अंतहीन विभिन्न जातीय इकाइयों के सुदीर्घ संलयन का प्रतिफलन है”।3 उत्तर-पूर्व के समाज का निर्माण भी समय के प्रवाह के सापेक्ष विभिन्न जातियों-जनजातियों की पारस्परिक क्रिया के फलस्वरूप हुआ है। अतः उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताएँ अनूठी प्रतीत होती हैं। वास्तव में उनकी सांस्कृतिक अस्मिता अखंड भारत की परिकल्पना की ही परिचायक है। उत्तर-पूर्व समाज और संस्कृति के अध्ययन के क्रम में हमें सर्वप्रथम व्यष्टि और समष्टि के अंतः संबंधों की अवधारणा और सृष्टि और परमेष्टि के पारस्परिक सम्बन्ध-बोध को अन्वेषित करने की आवश्यकता है। व्यष्टि ही समष्टि का मूलाधार है जो सृष्टि के सृजन की इकाई है और वही इकाई समष्टि–परमेष्टि में विलीन होती हुई एक सांस्कृतिक-अध्यात्मिक, ऐतिहासिक एवं भौगोलिक आकार में मिलकर राष्ट्रीय निधि बन जाती है।
इस तथ्य को समझने के लिए उत्तर-पूर्व के समाज की सांस्कृतिक विशेषताओं तथा सम्पूर्ण भारत की सामासिक संस्कृति से पूर्वोत्तर भारत की एकात्मकता को स्थापित करने वाले तत्वों, विचारों और भावों का अध्ययन आवश्यक है। तभी वर्षों से औपनिवेशिक कूटनीति के तहत भ्रांत धारणा के शिकार रहे उत्तर–पूर्वी समाज के साथ न्याय किया जा सकेगा। अंग्रेजों ने उत्तर-पूर्व भारत को ‘फूट डालो और शासन करो’ की कूटनीति के तहत भौगोलिक रूप से भारत के अन्य राज्यों से अलग कर दिया था। इस कूटनीति के दूरगामी प्रभाव के फलस्वरूप उत्तर-पूर्व भारत शेष भारत से राजनैतिक और भौगोलिक रूप से अलग हो गया। भारत के अन्य क्षेत्रों में भी यह सामान्य धारणा घर कर गयी कि उत्तर-पूर्व के निवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य-चेतना और जीवन-शैली भिन्न है। लेकिन हमारे पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक ग्रंथ तथा पुरातात्विक साक्ष्य सिध्द करते हैं कि वैदिक काल से ही उत्तर-पूर्व भारत का अभिन्न अंग रहा है। व्यापक स्तर पर भारतवर्ष की ऐतिहासिकता, पौराणिकता, धर्म परायणता और मानवता की कहानी एक ऐसे सुगन्धित पुष्प की तरह है जिसकी पंखुड़ियों के रूप में अफगानिस्तान, सुमात्रा, जावा, पाकिस्तान, बांग्लादेश, तिब्बत, बर्मा आदि सुवासित थे। यह सत्य भारत के प्राचीन वैदिक साहित्य से सिद्ध होता है।
‘ॐ नमः परमात्मने, श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याध श्री ब्राह्मणों द्वितपरार्द्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमवंतरेषटाविंशतितमे कलयुगे प्रथमचरणे जम्बुद्विपे भारतवर्षे भरतखंडे आर्यावर्तान्तेर्गतब्रह्मावतैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने यथानामसंवत्सरे अमुकायने महामांगल्यप्रदे मासनाम उत्तमे ।।
विष्णुपुराण में भी भारत की सीमा का उल्लेख कुछ इस प्रकार मिलता है–
“उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम।
वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति:।।”4
अर्थात् समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण का भू-भाग भारत कहलाता है और वहां के निवासी भारतीय कहलाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि एक ओर जहाँ भारतवर्ष के दक्षिणी राज्य धन-धान्य के साथ-साथ सारस्वत एवं सांस्कृतिक चेतना से परिपूर्ण हैं। वहीं, उत्तरी भाग धन-धान्य से परिपूर्ण होने के साथ प्राकृतिक संपदा से समृध्द, अध्यात्म, वैदिक चिंतन तथा वेदांत के उद्गाता के रूप में प्रकट होता है। क्या उत्तर, क्या दक्षिण, क्या पूरब, क्या पश्चिम; सर्वत्र जो एक स्वर निनादित होता है; वह है भारतीय एकात्मवाद का स्वर। अतः भारतीय सन्दर्भ में किसी प्रकार के विलगाव के सिद्धांत को प्रतिपादित करना या स्वीकार करना औपनिवेशिक मानसिकता को बढ़ावा देना ही कहा जाएगा।
इसके साथ ही दुर्गा सप्तशती, विष्णु-पुराण, या कालिका पुराण जैसे महत्वपूर्ण प्राचीन धार्मिक साहित्य में भारत के जिस भौगोलिक विस्तार का उल्लेख मिलता है, उस पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। भारतीय सभ्यता के उन सूत्रों को पुनः बुनने की आवश्यकता है जिन्हें पाश्चात्य सभ्यता ने स्वयं को स्थापित करने के उद्धेश्य से बड़ी निर्दयता से तितर–बितर कर दिया था। सौभाग्य से एकता के ये तंतु विखंडित किये जाने के बावजूद भारतवासियों के जीवन में सूक्ष्म सांस्कृतिक तत्त्वों के रूप में जीवंत रहे हैं। भारत की भौगोलिक एकता और सभ्यता के संबंधों पर विचार करते हुए निर्मल वर्मा ने लिखा है– “इसीलिए देश की भौगोलिक अखंडता सनातन काल से एक सभ्यता के स्मृति-संकेतों से जुड़ी रही है। भारत के प्राकृतिक परिवेश को भारत के सभ्यता बोध से अलग नहीं किया जा सकता। यूरोप ने जहाँ इकोलॉजी के महत्त्व को आज समझा है, वह हमेशा से भारतीय संस्कृति का अविभाज्य अंग रहा रहा है।”5 अतः आवश्यकता इस बात की है कि विदेशी सभ्यता ने हमारा जो विध्वंसक विद्रूपण किया उससे हम छुटकारा पाने का प्रयास करें और अपनी भारतीय सभ्यता के आत्म-बोध का विस्तार करें जो अनेक देशी-विदेशी झंझावातों को सहते हुए, समस्त अवरोधों और ऐतिहासिक विसंगतियों के बावजूद भारतीयता को एक समग्र रूप और अर्थ देता रहा है।
उत्तर-पूर्व भारत में संस्कृतियों को जोड़ने वाले अंतःसूत्रों जैसे- उनके रीति-रिवाज, शादी-विवाह और अन्य धार्मिक-सांस्कृतिक आग्रहों पर विचार करने की आवश्यकता है। इस क्रम में सर्वप्रथम यदि हम पूर्वोत्तर राज्यों के प्रादुर्भाव को देखें तो असम हो या अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा हो या फिर मणिपुर–पूर्वोत्तर के प्रत्येक राज्य से संबंधित तमाम महत्वपूर्ण पौराणिक आख्यान हैं। भारत के प्राचीन साहित्यिक, धार्मिक ग्रंथों में असम के दो नाम ‘प्रागज्योतिषपुर’ और ‘कामरूप’ मिलते हैं। ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ नॉर्थ ईस्ट इंडिया’ में कर्नल वेदप्रकाश ने विष्णु-पुराण तथा कालिका पुराण में कामरूप से सम्बंधित आख्यान मिलने की चर्चा की है। अतः पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक प्रमाणों से अनुमान होता है कि असम प्राचीन काल से ही भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है। इस संदर्भ में बापचंद्र महंत ने लिखा है– “असम के प्रामाणिक इतिहास का प्रारंभ ई० चौथी शती के गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त के प्रयाग अभिलेख में मिलता है। असम के कई स्थानों में तत्कालीन गुप्त काल के कुछ नमूने खंडहर के रूप में अब भी मौजूद हैं”।6
किसी भी समाज के इतिहास, संस्कृति और अभीष्ट आकांक्षा को समझने के लिए उस समाज में प्रचलित लोककथाएँ और आख्यान महत्वपूर्ण स्रोत हो सकते हैं। उत्तर-पूर्व के समाज में प्रचलित विभिन्न धार्मिक और पौराणिक आख्यान भारतीय सांस्कृतिक एकता के महत्वपूर्ण सूत्र हैं। असम के नामकरण से सम्बंधित एक आख्यान के अनुसार– “असम में राजर्षि जनक को हल चलाते समय मनुष्य की खोपड़ी में ‘नरक’ नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ था। इस बालक को माता की जिज्ञासा हुई तो गंगा किनारे वसुमति ने दर्शन दिए। अपनी माता से जब नरक ने पिता के बारे में पूछा तो वसुमति ने उसका हाथ पकड़ कर गंगा में डुबकी लगा दी। जब वे पानी से बाहर निकले तो वे प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान असम) में थे”।7
- मनुस्मृति में भी असम के प्राचीन नाम का उल्लेख मिलता है–
“ सरस्वती दृषइत्योदेवनधोर्यदन्तरम।
तं देवनिर्मितं देशम ब्रह्मवर्त प्रचक्षते।।”8
- अग्रिम श्लोक में मनु कहते हैं कि उस देश में लोगों का आचार सदाचार कहलाता है–
“तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्तभागत:।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते।।”9
मणिपुर के एक आख्यान के अनुसार– “मणिपुर के राजा चित्रवाहन की एक बेटी थी जिसका नाम चित्रांगदा था। चित्रवाहन ने चित्रांगदा को बेटे की तरह पाला। एक दिन उसने पांडव अर्जुन को देखा और वह उसके प्रति प्रेममोहित हो गयी। इस बात से डरकर कि अर्जुन कहीं उसके पुरुषों जैसे तौर तरीके को पसंद न करे उसने देवताओं से यह प्रार्थना की कि वे उसे एक सुंदरी बना दें। देवताओं ने उसकी इच्छा को पूरा कर दिया। जब उसने सुना कि अर्जुन मणिपुर इसलिये आये हैं जिससे वह उस राजकुमारी से मिल पाएं जो लड़कों की तरह लगती थी, उसने एक बार फिर से देवताओं का आवाहन किया कि वे उसे एक बार फिर से अपने पूर्व रूप में वापस ला दें। देवताओं ने उसकी यह इच्छा भी पूरी कर दी और अर्जुन से मिलने के लिए गयी जो उसके शारीरिक सौष्ठव को देखकर तत्क्षण उसपर मुग्ध हो गए। इसके फलस्वरूप उन्होंने चित्रवाहन से चित्रांगदा का हाथ मांग लिया”।10
अरुणाचल प्रदेश की लोककथाओं और पुराणों के अनुसार पिता की आज्ञा से माता की हत्या करने के कारण परशुराम को मातृ-हत्या का पाप लगा था। अरुणाचल प्रदेश से कुछ दूरी पर स्थित परशुराम कुंड में स्नान करके परशुराम माता की हत्या के पाप से मुक्त हुए थे। शिव की पत्नी सती के शरीर का एक अंश विष्णु के सुदर्शन चक्र से खंडित होकर त्रिपुरा में भी गिरा था। ये सभी धार्मिक स्थान भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। भारतीय संस्कृति में मिथकों का अपना महत्त्व है। एक सामान्य भारतीय, प्रायः पौराणिक आख्यानों और मिथकों के सहारे अपनी संस्कृति का निर्माण करता है और उससे अपने जीवन का संबंध और सार्थकता खोजता है। इसीलिए जब वामपंथी इतिहासकार राहुल सांकृत्यायन ‘भारतीय इतिहास की कसौटी परंपरा नहीं पुरातत्त्व है’ जैसी घोषणा करते हैं तो कहीं न कही भारतीय संस्कृति की अवधारणा के साथ न्याय नहीं कर पाते।
भारत में मिथकों और परम्पराओं के महत्व पर विचार करते हुए निर्मल वर्मा ने लिखा है– “हम संस्कृति को उन बिम्बों, प्रतीकों और मिथकों से अलग करके नहीं देख सकते, जो हमारे जीवन के साथ अन्तरंग रूप से जुड़े हैं। इनके माध्यम से न केवल हम अपने को पहचानते हैं। बल्कि ये वह आईना हैं, जिसके द्वारा हम बाहर की दुनिया को परखते हैं। ये बिम्ब और मिथक एक अदृश्य कसौटी हैं जिनसे हम धर्म और अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता के बीच भेद करते हैं। संस्कृति मनुष्य की आत्मचेतना का प्रदर्शन नहीं, उस सामूहिक मनीषा की उत्पत्ति है, जो व्यक्ति को एक स्तर पर दूसरे व्यक्ति से और दूसरे स्तर पर विश्व से जोड़ती है”।11 उत्तर-पूर्व ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति एक समान मिथकों और परम्पराओं की वाहक है। उत्तर-पूर्व की संस्कृति अभिन्न रूप से रामायण और महाभारत से जुड़ी हुई है। वहां रचित साहित्य रामकथा और कृष्णकथा का आधारभूत उपजीव्य है। कहा जाता है कि रामायण काल में जब लक्ष्मण मूर्छित हुए तो हनुमान जी लंका से आकाश मार्ग से आकर ‘तूरा’ के धौलगिरी पर्वत को संजीवनी बूटी सहित लेकर लक्ष्मण के उपचारार्थ सुषैण वैद्य के सम्मुख उपस्थित हुए। कुम्भकरण के पुत्र भीष्मक ने अपनी माता ज्वाला के साथ नीलांचल पर्वत की घाटी में आकर तपस्या की। आज भी गोरचुक में भीमा शंकर के नाम से एक प्रसिद्ध मंदिर है।
विभिन्न पुरातात्त्विक एवं साहित्यिक स्त्रोतों से यह ज्ञात होता है कि उत्तर-पूर्व के निवासी विभिन्न महत्वपूर्ण हिन्दू देवी-देवताओं के अलावा गणेश, इंद्र, लक्ष्मी, सरस्वती, जैसे देवी-देवताओं की भी आराधना करते रहे हैं। कालिका-पुराण तथा विष्णु-पुराण जैसे पौराणिक ग्रंथों में असम की तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों का उल्लेख मिलता है। बापचन्द्र महंत ने कालिका–पुराण की विषय–वस्तु का विस्तृत विवरण देते हुए लिखा है-“ यह ई. 10वीं/11वीं शती में लिखित कालिका-पुराण नामक संस्कृत ग्रन्थ है। अब तक प्राप्त तथ्यों के आधार पर कहा जाये तो यही असम में रचित प्रथम ग्रन्थ है। शाक्त-सम्प्रदाय के आधार-अनुष्ठानों का वर्णन इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है। स्थानीय शक्ति पूजकों की विधि-व्यवस्थाओं को तथा शक्ति के स्थानीय विविध रूपों को भारतीय शाक्त सम्प्रदायों से समेकित करना ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है ।”12
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में मनाये जाने वाले उत्सवों के मूल में प्रकृति के प्रति आस्था का महत्वपूर्ण भाव देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति-देवता सूर्य की देवशक्ति के रूप में उपासना भारत के प्रत्येक राज्य में प्रचलित है। मेघालय में ‘सल्जोंग’ (सूर्य देवता) की आराधना को समर्पित, पूरे उल्लास के साथ मनाया जानेवाला वाला त्योहार ‘वानशाला’, अरुणाचल प्रदेश के त्योहार ‘मोपिन’ और ‘सोलुंग’, मेघालय में खासियों के पर्व ‘शाद मिनसी’ के मूल में, ईश्वर की पूजा और प्रकृति-पूजा ही है। इन त्योहारों के अवसर पर पशुओं की बलि चढ़ाने की प्रथा काफी प्राचीन है। फसल की अच्छी पैदावार की प्रार्थना इन त्योहारों की केंद्रीय प्रेरणा है। इस संदर्भ में यह ध्यान देने की बात है कि दक्षिण भारत के पोंगल तथा उत्तर भारत के त्योहार मकर–सक्रांति का सम्बन्ध फसलों की नई पैदावार से है। पालतू पशुओं की बलि देने की प्रथा बिहार में काफी प्रचलित है। उत्तर-पूर्व भारत की सांस्कृतिक विशेषताओं पर अपने एक लेख में विस्तारपूर्वक बताते हुए पत्रकार प्रांजल धर ने अरुणाचल प्रदेश की उत्सव संस्कृति के विषय में लिखा है–“ यहाँ फरवरी के महीने में मनाये जाने वाले ‘तमनाडु’ पर्व में ‘मिथुन’ नाम के जानवर की बलि चढ़ाई जाती है। ‘तमनाडु’ में पुजारी अच्छी पैदावार के लिए पूजा करते हैं”।13
उत्तर-पूर्व भारत का सांस्कृतिक परिदृश्य अपनी सांस्कृतिक सम्बद्धता, विविधता और जीवन्तता के साथ-साथ भारतीय लोकचित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। चाहे मणिपुरी और सत्रीय जैसा शास्त्रीय नृत्य हो; साना लामोक, साइकुती जई, लाई हारओबा त्योहार के गीतरूप में क्षेत्रीय संगीत हो या भाओना आदि परंपरागत नाटय शैलियाँ–सभी एक ही सांस्कृतिक एकात्मता के अन्तःसूत्र में आबद्ध पाई जाती हैं। मणिपुरी नृत्य का उद्भव प्राचीन समय से माना जा सकता है, जो लिपिबद्ध किए गए इतिहास से भी पूर्ववर्ती है। मणिपुर में नृत्य धार्मिक और परम्परागत उत्सवों के साथ जुड़ा हुआ है। मणिपुर में नृत्य कला का विकास और उद्भव मूलतः देवमन्दिरों में हुआ है। यहाँ शिव, पार्वती के नृत्य तथा अन्य देवी-देवताओं, जिन्होंने सृष्टि की रचना की थी, की दंतकथाओं के संदर्भ मिलते हैं। वैष्णव काल के आगमन के साथ राधा-कृष्ण के जीवन की घटनाओं को इसके माध्यम से प्रस्तुत किया जाने लगा। मणिपुरी गायन की शास्त्रीय शैली को ‘नट’ कहा जाता है। जयदेव द्वारा रचित ‘गीत गोविन्द’ की अष्टपदियाँ इस गायन में विशेष प्रचलित हैं जो वस्तुतः प्रकृति के प्रति भारतीय दृष्टिकोण की परिचायक कही जा सकती हैं।
पंद्रहवीं शताब्दी ई. में असम के महान वैष्णव संत श्रीमंत शंकरदेव द्वारा सत्रीय नृत्य को वैष्णव धर्म के प्रचार हेतु एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में प्रचलन में लाया गया। परम्परागत नाट्य-शैली भाओना, असम के अंकिया नाट का विस्तार है। इस शैली में असम, बंगाल, उड़ीसा, वृन्दावन-मथुरा आदि की सांस्कृतिक झलक मिलती है। इसका सूत्रधार दो भाषाओं में अपने को प्रकट करता है– पहले संस्कृत, बाद में ब्रजाबली अथवा असमिया में; नृत्य–संगीत की इस समृध्द और सतत परंपरा में भाषाई एकता के सूत्र देखे जा सकते हैं। यह सांस्कृतिक आवाजाही एकता के सूत्रों की पुष्टि करती है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में दो सौ बीस से अधिक नस्लीय-समूहों के लोग निवास करते हैं। जैसाकि हम जानते हैं कि कुल देवता और ग्राम देवता का अस्तित्व भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण अभिप्राय रहा है। उत्तर-पूर्वी समाज की जनजातियों की अपनी विशिष्ट जीवन-शैली और परंपराएँ हैं जो एक तरह से भारतीय संस्कृति का ही विस्तार हैं। सभी जातियाँ-जनजातियाँ प्रायः किसी न किसी ग्राम-देवता या लोक देवता की उपासक हैं। उदाहरण के लिए त्रिपुरा की जमातिया, बराक गुफ़ा की प्रमुख जनजातियों में एक है। इसके द्वारा लगभग चार सौ सालों से गौरिया नामक लोकदेवता की पूजा की जा रही है। हर साल चौदह से इक्कीस अप्रैल की अवधि में की जाने वाली इस साप्ताहिक पूजा की पद्धति भारत की प्राचीन और वर्तमान पारंपरिक पूजा पद्धतियों से पूरा सादृश्य रखती है।
उत्तर-पूर्व के समाज में अंतर्निहित भारतीय सांस्कृतिक तत्वों पर विचार-विमर्श के क्रम में भाषा एक महत्वपूर्ण कड़ी है। भाषा जीवन और संस्कृति का मूल आधार है। निर्मल वर्मा ने भाषा और संस्कृति के सह-सम्बन्ध पर विचार करते हुए लिखा है “भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होने के साथ–साथ संस्कृति की भी वाहक होती है। किसी देश की संस्कृति, ऐतिहासिक झंझावातों द्वारा क्षत-विक्षत भले ही हो जाए, उसका सत्य और सातत्य उसकी भाषा में बचा रहता है”।14 यह एक रोचक तथ्य है कि जब कई देशों में सिर्फ़ एक भाषा बोली जा रही है, तब भारत जैसे विशाल देश में चार भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं – ऑष्ट्रिक भाषा परिवार, तिब्बत-चीनी भाषा परिवार, द्रविड़ भाषा परिवार और भारोपीय भाषा परिवार।
यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उत्तर-पूर्व भारत में बोली जाने वाली ख़ासी भाषा हो या उड़ीसा, बिहार, झारखंड प्रांत के छोटा नागपुर क्षेत्र में बोली जाने वाली मुण्डा शाखा की भाषाएँ, या फिर मध्य प्रदेश की ‘कोरकू’ भाषा, ये सभी भाषाएँ एक ही ऑष्ट्रिक भाषा परिवार से हैं। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली लाहुली, कन्नौरी भाषाएँ हों अथवा उत्तर-पूर्व की बोडो,गारो भाषाएँ; ये भाषाएँ एक ही तिब्बती-चीनी भाषा परिवार की भाषाएँ हैं, जो गहरे स्तर पर उत्तर-पूर्व भारत और शेष भारत के बीच भाषिक एकात्मता को स्थापित करती हैं। भाषिक एकात्मता स्थापित करने के क्रम में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि असमिया भाषा तो भारोपीय भाषा परिवार की ‘भारतीय आर्य उपशाखा’ वर्ग की भाषा है ही, इसकी लिपि भी देवनागरी लिपि का ही एक रूप है जो बांग्ला से विकसित है। असमिया भाषा का प्राचीनतम साहित्यिक रूप हमें चर्यापदों में मिलता है। इस प्रकार भाषिक और सामाजिक इकाइयों के मूल में विद्यमान एकात्मता के कारण समूचे भारत को एक भाषिक क्षेत्र (लिंग्विस्टिक एरिया) के अंतर्गत भाषा वैज्ञानिकों ने रखा है।
उत्तर-पूर्व भारत की भूमि मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन के प्रभाव से भी अछूती नहीं रही है। हम जानते हैं कि भक्ति-आंदोलन एक अखिल भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है। एक ओर, उत्तर भारत में कबीर, तुलसी,सूरदास और मीरा जैसे साधकों ने भक्तिभावना का प्रसार किया। वहीं, असम की धरती पर जन्मे श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव ने अपनी नई भक्ति पद्धति से असम ही नहीं वरन् सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में अपने नव-वैष्णव धर्म आंदोलन का प्रचार किया। “उनका दर्शन विशेष रूप से भागवत पुराण पर आधारित है। शंकरदेव ने भी अपने पदों में भागवत अनुरूप अद्वैत मत का प्रतिपादन किया है”।15
उत्तर-पूर्व भारत के समाज में सांस्कृतिक एकात्मता को रेखांकित करने वाले शंकरदेव ने अपनी साहित्यिक रचना के लिए ‘ब्रजाबली’ अथवा ‘बृजबुलि’ भाषा का प्रयोग किया है। वह वस्तुतः असमी भाषा और ब्रज भाषा के सम्मिलन से बनने वाली सम्मिश्र भाषा है। “हिंदी के सधुक्कड़ी रूप, बांग्ला की जननी, ‘ब्रजबुली’ और ‘अंकियानाटों’ की भाषा में बड़ा साम्य है। यहाँ असमिया भाषा हिंदी के बहुत निकट है। कुछ उदाहरण देखिये-
“1.सहस्त्र वयने गुण गावत भिन्न-भिन्न, वचने करत बखाना, 2.मोहन कनक वेणु उरि धरे हाते”।16
उत्तर-पूर्व समाज का शेष भारत के साथ कैसा नाभिनाल संबंध है, इसका प्रमाण ‘वृंदावनी चीर’ भी है जिसका उल्लेख शंकरदेव के साहित्य में है। आज भी इसका प्रयोग सत्र-नामघरों में किया जाता है। शंकर देव ने जिस सांस्कृतिक एकता को प्रतिष्ठित किया है, उसमें बरगीत, भाओना, अंकिया नाट के साथ-साथ सत्रों और नामघरों की विशेष भूमिका रही है। भारत की सांस्कृतिक चेतना बरगीतों में प्रकट होती है। ‘भाओना’ और ‘अंकिया नाट’ भारतवर्ष की जातीय संस्कृति को बड़ी सजीवता से प्रस्तुत करते हैं। उल्लेखनीय है कि शंकरदेव ने दो बार सम्पूर्ण भारत की पैदल यात्रा की। उन्होंने भारत भूमि के अधिकांश धर्मस्थलों की तीर्थयात्रा में 12 वर्ष का समय लगाया। शंकरदेव के ऐतिहासिक योगदान पर प्रकाश डालते हुए साहित्यकार प्रभाकर माचवे ने लिखा है- “उन्होंने उस समय हिन्दुओं की और सीमांत की आदिवासी जाति-उपजातियों की आध्यात्मिक भावनाओं को एकसूत्र में गूँथा। यह ऐतिहासिक नवजागरण का कार्य था। उन्होंने एक श्रेष्ठ कवि के नाते उदार और व्यापक मानवतावादी दृष्टि अपनाई”।17
इसी क्रम में यह देखना महत्वपूर्ण है कि उत्तर-पूर्व समाज मे स्थापित ‘सत्र’ केवल धार्मिक गतिविधियों के ही केंद्र नहीं थे, अपितु संगीत, कविता, नृत्य, नाट्य एवम् चित्रकला का विकास और अभिव्यक्ति करने वाले विशेष स्थल थे। इसी प्रकार ‘नामघर’ केवल प्रार्थना घर ही नहीं थे अपितु यहाँ समाज के विभिन्न समुदाय के लोग एकत्र होते थे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा एक निष्कर्ष/निर्णय पर पहुँचते थे। इसप्रकार उत्तर-पूर्व भारत में प्रचलित ‘सत्र’ और ‘नामघर’ की संकल्पना वस्तुतः प्राचीन भारत में पाणिनी और बुद्ध के काल में फैले शाक्य, लिच्छिवी, क्षुद्रक और मालव आदि गणराज्यों की प्राचीन परम्परा और विरासत का ही अधुनातन विस्तार है।
भक्ति–आन्दोलन और नवजागरण जैसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं के प्रभाव से उत्तर–पूर्व की धरती अछूती नहीं रही। अंग्रेजी सत्ता और साम्राज्यवाद के विरुद्ध भी वहाँ के निवासियों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। यह दुखद तथ्य है कि उन महानायकों का उल्लेख भारतीय इतिहास में न के बराबर है। परन्तु पूर्वोत्तर का पूरा लोक साहित्य उन महानायकों की शौर्यगाथाओं से भरा पड़ा है। तिरोत सिंह, नंगबाह, पा तागेम संगमा,कुशल कुंवर, टिकेन्द्रजीत सिंह, रानी गाइदिन्ल्यू और रानी रुप्लियानी जैसे वीरों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया। इस संदर्भ का हवाला देते हुए रमणिका गुप्ता ने लिखा है– “अंग्रेजों से सबसे पहला युद्ध 1774 में शुरू हुआ जब मेजर हैनिकर ने जयन्तिया पर हमला किया। 1826 तक ऐसे ही चलता रहा। जब 1824 में बर्मा ने कछार पर आक्रमण किया तब अंग्रेजों को जयन्तिया राज्य का महत्व समझ में आया। अंग्रेजों ने बर्मा की सेना के विरुद्ध राजा से अपनी सेना की टुकड़ी भेजने की मांग की, पर वहाँ के राजा ऐसा कोई भी समझौता नहीं करना चाहते थे जिससे उनकी स्वतंत्रता को आघात पहुंचे। उन्होंने अंग्रेजों की मदद के लिए अपनी सेना नहीं भेजी”।18 “मिजोरम की रानी रुप्लियानी ने भी अंग्रेजों को अपने क्षेत्र में न घुसने देने की कसम खाई। अंग्रेजों द्वारा मिज़ो जनों को जबरन बेगारी कराने ले जाना उन्हें स्वीकार न था। रानी ने इसका सख्त प्रतिकार किया जिसके फलस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन इसके साथ ही चारों ओर से अंग्रेजों की शासन प्रणाली व ईसाइयत के कठमुल्लेपन को चुनौतियाँ मिलने लगीं”।19 प्रतिरोध के ऐसे अनेक उदाहरणों से उत्तर–पूर्व भारत का इतिहास जगमगाता है। इन वीरों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करने में अपनी जान की बाजी लगा दी। उत्तर-पूर्व की संस्कृति और वहाँ के निवासियों के सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि कला, वास्तुकला, सम्प्रदायों के विकास की दृष्टि से भी उत्तर-पूर्व भारत और शेष भारतीय राज्यों के बीच एकता और अनवरत आदान-प्रदान के सम्बधसूत्र प्रकट होते हैं। विभिन्न कलारूपों, धार्मिक विषयों, सामाजिक संबंधों (रोटी-बेटी संबंधों) और व्यापारिक वस्तुओं का पारस्परिक आदान-प्रदान भारत के अन्य राज्यों और उत्तर-पूर्व के राज्यों में निरंतर हुआ। असम और त्रिपुरा के मंदिर भारतीय धार्मिक कला का परिचायक कहे जा सकते हैं। भारत की सांस्कृतिक एकता, अखंडता,सार्वभौमिकता और निरंतरता के संदर्भ में पंडित नेहरू के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है– “मैंने तुम्हें बताया है कि सारे इतिहास में संस्कृति के लिहाज़ से भारत एक रहा है- राजनैतिक लिहाज़ से चाहे इस देश में कितनी ही आपस में लड़ने वाली रियासतें क्यों न रही हों। जब कोई भी महापुरुष पैदा हुआ या बड़ा आन्दोलन उठा, वह राजनीतिक सीमाओं को लांघकर सारे देश में फैल गया”।
निष्कर्ष यह है कि उत्तर-पूर्व समाज का शेष भारत के साथ यह अटूट जुड़ाव न केवल भाषिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्तर पर दिखलाई पड़ता है, अपितु जनजीवन के दैनन्दिन क्रिया-व्यापार में भी अभिव्यंजित होता है। अब तक उत्तर-पूर्व भारत की संस्कृति और सभ्यता को अलगाववाद की दृष्टि से देखा गया है। समस्या यह है कि भारतीय इतिहासकारों का अध्ययन औपनिवेशिक दृष्टि के पुरोधा बैरियर एल्विन जैसे लोगों से प्रभावित रहा है। इसके फलस्वरूप वर्षों से उत्तर-पूर्व का समाज नस्लीय हिंसा,उग्रवाद, हिन्दूकरण की आरोपित सैद्धान्तिकियों जैसी राजनैतिक समस्याओं को झेलने के लिए अभिशप्त रहा है। इस ऐतिहासिक सम्मिलन और आत्मसातीकरण में सबसे बड़ी बाधा औपपनिवेशिक नीतियों द्वारा अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए पोषित ‘पृथक्कीकरण की संकल्पना’ रही है। जबकि सच्चाई यह है कि उत्तर-पूर्व के समाज की सांस्कृतिक पहचान भारतवर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता का ही उज्ज्वल पक्ष है।
सन्दर्भ–सूची
- माता प्रसाद, पूर्वोत्तर भारत के राज्य, पृ० सं- ४, नेशनल पब्लिशिंग हाउस
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- भगवतशरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, प्रस्तावना, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस।
- विष्णु–पुराण, गीताप्रेस, गोरखपुर
- निर्मल वर्मा, पत्थर और बहता पानी, पृ० सं०-१२२, वाग्देवी प्रकाशन।
- बापचन्द्र महंत, असम के बरगीत, पृ० सं०-४, नेशनल बुक ट्रस्ट
- प्रांजल धर, पराया नहीं पूर्वोत्तर, जनसत्ता, १९ नवम्बर, २००६
- मनुस्मृति, श्लोक २/१७, भाष्यकार –डॉ सुरेन्द्र कुमार, आर्ष साहित्य प्रचार इस्ट, दिल्ली
- मनुस्मृति, श्लोक २/१८, भाष्यकार –डॉ सुरेन्द्र कुमार, आर्ष साहित्य प्रचार इस्ट, दिल्ली
- देवदत्त पटनायक, भारत में देवी- अनंत नारीत्व के पांच स्वरुप, पृ०सं- १४५, राजपाल प्रकाशन
- निर्मल वर्मा, पत्थर और बहता पानी, पृ० सं०- ६८, वाग्देवी प्रकाशन।
- बापचंद्र महंत, असम के बरगीत, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत
- प्रांजल धर, पराया नहीं पूर्वोत्तर, जनसत्ता, १९ नवम्बर, २००६
- निर्मल वर्मा, पत्थर और बहता पानी, पृ० सं०-९० वाग्देवी प्रकाशन।
- बापचंद्र महंत, असम के बरगीत, पृ० सं०-२३, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत
- बापचंद्र महंत, असम के बरगीत, पृ० सं०-२२, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत
- बापचंद्र महंत, असम के बरगीत, दो शव्द, नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत
- रमणिका गुप्ता (संपादक), पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर, पृ०सं-८
- रमणिका गुप्ता (संपादक), पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर, पृ०सं-९