पुस्तक: प्रतिदर्श: कुछ निबंध (निबंध-संग्रह); लेखक: वागीश शुक्ल; प्रकाशक: सेतु प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली; वर्ष: २०२१; पृष्ठ: ५६० (सजिल्द); मूल्य: ११९९/
हिंदी के सबसे गहरे और तीक्ष्ण सिद्धांतकार, आलोचक, अनुवादक एवं उपन्यासकार माने जाने वाले वागीश शुक्ल के पच्चीस निबन्धों का संचयन प्रतिदर्श: कुछ निबंध नाम से सेतु प्रकाशन एवं रज़ा फ़ाउन्डेशन के सह-प्रकाशन से वर्ष २०२१ में प्रकाशित हुआ है। वैविध्यपूर्ण कथ्यों के साथ निबन्धों वाली इस पुस्तक में उनके कुछ लेख, विस्तृत समीक्षाएँ और उनके द्वारा लिखी जा रही रचनाओं के कुछ अंश सजोंये गए हैं। पुस्तक का परिचय देते हुए “आमुख” में अशोक वाजपेयी लिखते हैं: “इस संचियता की सूची पर नज़र डालें तो देखा जा सकता है कि वागीश शुक्ल ने भक्ति, कबीर, गोरखनाथ, आलोचना की वाचिक उपस्थिति से लेकर निराला, रीतिकाल, अभिनवगुप्त, रामचंद्र शुक्ल, बेदिल, विनोद कुमार शुक्ल आदि पर ऐसे लिखा है कि हर बार सम्बंधित विषय का कोई न कोई नया और अक्सर अप्रत्याशित पक्ष उन्मीलित होता है। यह ऐसी आलोचना-वृत्ति है जो सिर्फ़ दिखाती नहीं, उकसाती भी है। समकालीन आलोचना में अप्रत्याशित का ऐसा रमणीय कम है, वागीश जी के यहाँ बहुत है। उनके काम का एक हिस्सा आधुनिकता के दबाव या झोंक में परम्परा की दुर्व्याख्या या कुपाठ को प्रश्नांकित करता है। यह एक जरूरी काम इसलिए है कि यह हमें आधुनिकता की सीमाएँ पहचानने और उसके कुछ अतिचारों की शिनाख्त करने में मदद करता है। वागीश जी के राजनैतिक रुझान को आधार बनाकर उनको लांछित करना आसान है, उनके तर्कों और तथ्यों का सुसंगत प्रत्याख्यान करना कठिन (पृ. १०)।”
इस पुस्तक में भारतीय ज्ञान पद्धति में प्राचीनतम शास्त्रीय ज्ञान की शाखाओं से जुड़कर अनेक लेख वागीश जी द्वारा लिखे गए हैं। इनमें से अनेक बहुचर्चित भी रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक में अध्यात्म एवं दर्शन को केन्द्र में रखकर लिखे गए लेखों की बात करें तो “अनेकधा भक्ति,” “आत्मज्ञान में ‘आश्चर्य’ क्या है?” “अभिनवगुप्त का ‘गीतार्थसंग्रह’” और “गुरु गोरखनाथ और काश्मीर क्रम-दर्शन” विशेष रूप से ध्यान में आते हैं। भारत में भक्ति की भेदगणना को शास्त्रों और परम्परा को आधार बनाकर निबंध “अनेकधा भक्ति” में सरसता के साथ विवेचित किया गया है। भारतीय परम्परा में भक्ति के शास्त्रीय व्यवस्थापन में किस प्रकार से नए आयाम जुड़ते रहते हैं इस बात को उजागर करते हुए लेखक लिखता है: “साहित्यशास्त्रियों ने कुछ तकनीकी तर्कों के आधार पर भक्ति को भाव ही माना था, रस नहीं, किंतु भक्ति के शास्त्रीय व्यवस्थापन में इसे न्यूनता मानते हुए इसका बलपूर्वक निराकरण किया गया और भक्ति का रस तक ‘उच्चीकरण’ किया गया। भक्ति को एक ओर ज्ञान के तत्वविवेचनात्मक गाम्भीर्य से पूरित करने और दूसरे ओर रस के माधुर्य से प्लावित करने के युगपत् प्रयास ने भक्ति-सिद्धांत का ऐसा शास्त्रीय स्वरूप खड़ा किया जिसमें अद्वैत और अद्वैतेतर संप्रदायों की विभाजन रेखाएं धुँधली पड़ गयीं तथा सम्प्रदाय-रक्षा के लिए परस्पर शास्त्रार्थ का कोलाहल देवार्चन की व्यावहारिक घंटाध्वनि से दब गया (पृ. ३२)।”
“आत्मज्ञान में ‘आश्चर्य’ क्या है?” निबंध में श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के उनतीसवें श्लोक को केन्द्र में रखकर आत्मज्ञान में आश्चर्यवत् होना क्या है की सविस्तार दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इसी क्रम में “गुरु गोरखनाथ और काश्मीर क्रम-दर्शन” नाम से लिखे गए आलेख में नाथ-दर्शन और काश्मीर के क्रम-दर्शन के नैकट्य पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए हठ-योग, षडंग-योग, गोरक्ष-संहिता, योगिनी-कौल, महार्थमंजरी आदि को व्याख्यापित किया गया है।
प्रतिदर्श में वागीश जी द्वारा परवीन शाकिर पर लिखी जा रही पुस्तक से लिया गया अंश तथ्यों और तर्कों पर आधारित ऐतिहासिक एवं राजनैतिक अन्तर्कथाओं से भरा हुआ है। निबंध रूप में छपे इस आलेख का शीर्षक “पाकिस्तान में ‘प्रतिरोध की कविता’” है। प्रगतिशील साम्प्रदायिकता और सैनिक तख्तापलट, अहमद अली के आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ट्वीलाईट इन देल्ही के बहाने दिल्ली से पाकिस्तान तक की उनकी साम्प्रदायिकता के परत दर परत रहस्य खोलती यात्रा, १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मजहबी कट्टरता के रंग, प्रगतिशील लेखक संघ के पीछे के जहरीले सच, प्रथम काश्मीर युद्ध आदि विषय सुचिंतित दृष्टि के साथ निबंध में लिए गए हैं। उदाहरणार्थ १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान की मजहबी कट्टरता से जुड़ा रोचक प्रसंग उल्लेखनीय है: “बहुत सारे लेखकों ने इधर यह साबित करना चाहा है कि १८५७ में घोषित जिहाद अंग्रेजों, यह हद-से-हद ईसाइयों, के खिलाफ था और इससे एक विचित्र सी ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ का निष्कर्ष निकालते हैं। जो आँकड़े सामने आए हैं वे निरपवाद ढंग से यह बताते हैं कि मुजाहिदीन और गाज़ी कुल मिलाकर ‘अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई’ को साम्प्रदायिक गृहयुद्ध में बदलने की ही कोशिश में थे… ‘हज़ार वर्षों के सह-अस्तित्व’ के बाद इतना भोला तो कोई न बच रहा था जिसे यह न मालूम हो कि गोवध से हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ेगा फिर दिल्ली में टोंक से आए गाज़ी गाय की कुर्बानी पर क्यों तुले हुए थे? आजुर्दा और सरफराज़ अली के बीच बातचीत के बाद किसी तरह यह मामला आगे नहीं बढ़ पाया किंतु खुद बहादुर शाह ज़फर को दिल्ली की गायों को अपनी कोतवाली के सीधे संरक्षण में लेना पड़ा था ताकि यह तनाव गृहयुद्ध में न बदले। गोवध के माध्यम से ऐसे तनाव पैदा करने की कोशिशें कानपुर और लखनऊ में भी की गयीं और वहाँ भी नाना साहब तथा बेगम हज़रत महल को बहुत सी उर्जा इन तनावों से निपटने में खर्च करनी पड़ी (पृ. ५२९)\”
तत्कालीन मजहबी कट्टरता की पराकाष्ठा की बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं कि १८५७ में कुछ ऐसा हो रहा था जो मुल्ला बदायूनी के उस कथन से तुलनीय है जिसमें वह कहता है कि “हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर की ओर से लड़ते हुए उसने इसकी परवाह नहीं की कि उसकी तलवार स्वपक्ष के राजपूत पर पड़ती है या विपक्ष के राजपूत पर क्योंकि आखिर थे तो दोनों ही काफिर (पृ. ५२९)|”इसी क्रम में प्रगतिशील लेखक संघ के बारे में चर्चा करते हुए वो जिस दृष्टि के साथ विषय रखते हैं उस कारण से उनके कथन चौकाने वाले खुलासे जैसे प्रतीत होते हैं: “मुख्यतः सज्जाद ज़हीर के प्रयासों से और मुख्यतः उर्दू के कुछ लेखकों का एक सम्मलेन १० अप्रैल १९३६ को लखनऊ में कांग्रेस के इसी अधिवेशन में हुआ।… इसे Progressive Writers Association of India का पहला सम्मलेन कहा जाता है। इस Progressive Writers Association of India का नाम यहाँ ‘अंजुमन+ए+तरक्कीपसंद-मुसंनिफीन+ए+हिंद’ भी रखा गया और इस प्रथम सम्मलेन के उद्घाटन-भाषण में किसी भारतीय भाषा की कोई रचना नहीं उद्धृत थी यद्दपि अल्लामा इकबाल के चार फ़ारसी शेर पढ़े गए थे। चूँकि सम्मेलन का यह उद्घाटन-भाषण प्रेमचंद जी ने दिया था जो उस समय तक हिंदी के लेखक के रूप में अधिक यश:-प्राप्त थे (यद्दपि उन्होंने उर्दू में लिखना और छपना चालू रखा था) इसलिए जब हिंदी आलोचना में इस सम्मलेन का उल्लेख होता है तो इसे ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ का नाम दिया जाता है (पृ. ५४१)।”
हिंदी, फ़ारसी, संस्कृत आदि भाषा-साहित्य के वरिष्ठ विद्वान होने के कारण साहित्यिक विषयों पर लिखे गए निबन्धों का तो कहना ही क्या? हाल ही में अकादमिक जगत में अत्यधिक ख्याति पा रहे तुलनात्मक अध्ययन के सुन्दर उदाहरणों के रूप में वागीश जी के इन निबन्धों को पढ़ा जा सकता है। इस दृष्टि से “अपसंस्कृति एक अपशब्द है,” “स्कर्ट में शकुंतला,” “क्यों शाहिद-ए-गुल बाग से बाज़ार में आवे?” “बेदिल: हुस्न और नकाब,” “बेदिल की एक गज़ल” आदि प्रमुख हैं।
समकालीन भारतीय भाषा-साहित्य पर भी “अपने वधिक के मित्र की कविता,” “लीक छाँड़ि: कबीर पर पुरुषोत्तम,” “आधुनिकता में योजक-चिन्ह,” “फिर ग़ज़ल गाकर नहीं, हमने सुनायी सोचकर?” “आलोचना की ‘वाचिक’ उपस्थिति,” “कहता हूँ मैं कि तुम कहो नौकर नहीं हूँ मैं,” “निराला जी की दृष्टि,” आचार्य शुक्ल का भाव-चिंतन” आदि पठनीय हैं।
कुल मिलाकर पाठक के मानस को विस्तार देने में पूर्ण रूप से समर्थ निबन्धों की यह संचयिता प्रतिदर्श को भारतीय निबंध साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत केंद्रित समकालीन आलोचकीय दृष्टि संपन्न साहित्य को न केवल भारतीय पाठक बल्कि भारत से बाहर के विद्वान पाठक भी पढ़ना और समझना चाहते हैं और यह वागीश शुक्ल जैसे वरिष्ठ आलोचकों द्वारा संभव हो पा रहा है। आवश्यकता है कि ऐसे लेखन का सतत प्रकाशन और प्रसारण जारी रहे।