1.
सर्द मौसम
सर्द मौसम के साथ
सर्द हुई संवेदनाओं से
कैसे लिखे कोई प्रेमगीत
ये उदासी के शोकगीत
किसी धुंध भरी सुबह का पैगाम हैं जैसे
किसी राह से गुजरो
अँधेरे का ख्याल हों जैसे
न उस पार सावन है
न इस पार वसंत
ये सर्द रातों का शहर है
जिसमें विरह्गान से भरती है प्रेम की नववधू अपनी मांग
वाकिफ हैं इस सत्य से
कि प्रेम कोई डिठौना नहीं
जो लगा दे कोई
और नज़र न लगे
और
मैंने प्रेमरस छका है
इसलिए जानती हूँ
विरह की गाँठ मेरे प्रेम की अंतिम अरदास है
उर कलश में नदी सा प्रवाहित प्रेम सांत्वना का रूपक नहीं
2.
छूटना
जाने कितने लोग मुझे छोड़ गए
कितनों को मैं छोड़ रही हूँ
इसी तरह धीरे धीरे छूट रहा है जीवन
जीवन से रंग प्रेम और कविता
अब क्षितिज के किसी छोर पर
ठहरे हुए नहीं मिलते लम्हे
कि कुछ देर उनसे गुफ्तगू करूँ
फिर कबूतर सा उड़ा दूं
रंगों में शामिल केवल रंग ही नहीं
जीवन भी है
उसकी खुशियाँ और गम भी हैं
मैं कर रही हूँ रंगों की पैमाइश
कि किसी रंग का माप जीवन को सुन्दर बना दे
सत्यम शिवम् सुन्दरम केवल प्रेम है
ये जानते हुए भी
हमने बनाए अनगिनत महल दरीचे और कूचे
जहाँ आदमियत जिंदा न थी
जहाँ खौफ की तलवारों से क़त्ल हो जाती थीं शहज़ादियां
ऐसे में कैसे प्रेम को बचाया जा सकता है
छूटना निश्चित है
जैसे देह का छूटना
जैसे संबंधों का छूटना
जैसे देहरी का छूटना
फिर क्या फर्क पड़ता है
आपको छोड़ा या आपने छोड़ा
छूटना बिना पड़ाव की एक बंजारी क्रिया है
3.
अंतिम उपहार
मुझे नहीं मरना ऐसे
कि कोई खिड़की से भी न झांके
कोई दूर खड़ा भी न ताके
स्पर्श के स्वर से भी रहूँ वंचित
मरने के भी अपने ठाठ हुआ करते हैं
हर किसी से मिलकर गले
अंतिम विदाई की रस्म में
देकर आँख में आँसू
मुझे ओढ़नी है पिया के हाथ से अंतिम चुनरी
कि यही तो होगा अंतिम सामान अंतिम यात्रा का साथ मेरे
यूँ नहीं कि चील कौए गिद्ध और कुत्ते नोचें मेरी बोटी
कि बहा दिया जाए गंगा में यूँ ही
जैसे कोई संबंध न हो
मुझे तो हर संबंध से चाहिये अंतिम उपहार
क्योंकि
संबंधों के साथ जीते हुए कैसे मरूँ तन्हा
मर ही जाऊँ तन्हा तो कैसे बिना संबंधों के, बिना चिता के हो जाऊँ विदा
मृत्यु उषाकाल में पदार्पण से पहले का आठवां सुर बन
बने प्रकृति का सुगम संगीत
न कि क्रूरतम रूप
4.
बारहवीं ऋतु में स्नान करो
हाँ, बदलते ही गए मौसम यकबयक
जब तक समझ पाते मौसमों के मिजाज
उम्र की सफेदी से लरज उठा आसमान
बचपन बंदिशों की कालकोठरी में दबा
सपने उम्र की रेहन रखे गए
यकायक बदली ऋतु
और अधर में लटक गयी त्रिशंकु सी
कुल्हड़ में दूध पीने भर से नहीं पायी जा सकती तंदरुस्ती
तुषारापात होता रहा
महल धराशायी होता रहा
और निद्रा थी कि टूटती ही न थी
चेतना के पंख जब उगे
उसने फड़फड़ाये
हिलाया डुलाया जगाया
आँख खुली तो बदल चुकी थी दुनिया
अब किस हथेली पर सरसों उगाऊँ
उम्र का बिस्तर खाली था
अरमानों के डब्बे में भरी राख से तिलक नहीं किये जाते
जब छुट रहा था रेशम पकड़ से
जब सुन्न हो गयी थीं ज्ञानेन्द्रियाँ
जब सुप्त पड़ गयी थीं कर्मेंद्रियाँ
स्पंदनों के सरोकार फीके पड़ ले रहे थे होड़ सितारों से
मैंने चाँद को फाँसी दे दी
स्वयं गरल पीया
और इस तरह जीवन के साथ मृत्यु को भी मुकम्मल अर्थ दे दिया
अब तलाशने को नहीं बचा कोई उपनाम किसी भी डिक्शनरी में
शापित जीवन मेरी अंतिम रागिनी का मद्धम स्वर है
इसे सुनने के कायदे न तुमने पढ़े हैं और न मैंने बताए हैं
आओ बारहवीं ऋतु में स्नान कर करो स्वयं को पवित्र
मेरे मजार की मिट्टी का लो बोसा
अमरत्व का यही है अंतिम विकल्प
अधूरी इच्छाओं अधूरी कामनाओं के साथ देह त्याग करने पर
मोक्ष एक कल्पित विचार है
रुदलियाँ और चुड़ैलों के हिस्से उधार हैं तुम पर
जानते हो न
ये स्त्रियाँ नहीं होतीं जो बख़्श दें तुम्हारे गुनाह
5.
मन का अंतरिक्ष निद्रारत है
स्त्री निर्वस्त्र घूम रही है आज
लाल चींटे कर रहे हैं अट्टहास
वेणियों में लगे हैं पलाश
हथेलियों पर उगी हैं खराश
और समय का बिजूका नृत्यरत है
आकाश में धान की फसल लहलहा रही है
ये उम्मीदों की धधकती छाती पर जलती चिता का अंतिम प्रारूप है
कि संखिया खाने पर ही ज़िन्दगी लगाती है गले
जिस्म के गलने पर ही खिल उठता है आसमान का चेहरा
खुशियों की छाती चीर कर, नमक भरने पर ही उबासियों को आती है नींद
पलायनवाद आज के दौर का स्वर्णिम अध्याय है
निरंकुश स्त्रियाँ फैला रही हैं छूत का रोग
कोरोनकाल अवसरों के इतिहास में दर्ज हुआ है स्वर्णिम अध्याय के रूप में
नीम बेहोशी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में सुरक्षित है
दंतपंक्तियों से सजा हुआ है देश और काल
कीजिये अब आरंभ शिव तांडव स्त्रोत
रागिनियों ने बांध लिए हैं पाँव में घुँघरू
थाप से दहल उठे हैं तीनों लोक
आश्वासनों की समितियों ने कर दिया है सुरक्षित दरबार
वंदे मातरम से जय हिंद तक बना दी गयी है सुरंग
जिसमें राम हो गए हैं पूर्ण रूपेण सुरक्षित
अब विधवा विलाप से पोंछ लो चेहरे का पसीना
यह कृष्ण लीला का अंतिम अध्याय है
बांसुरियों के बजने से सम्मोहित है जनता
हे ध्रुवस्वामिनी करो आगाज़ कीर्तनों का
माँ गंगे प्रतीक्षारत है
लास्य आज के समय की फडकती बायीं आँख है
दाएं कपोल पर बैठी तितली फड़फड़ा रही है पंख
और अनुभूतियों ने भर ली उड़ान
भैरवी का खप्पर भरा है रक्त से
और मन का अंतरिक्ष निद्रारत है
6.
आवाज़
मुझ तक पहुँच रही हैं अनसुनी आवाजें
मैं नहीं जानती
कौन चीख रही है
कौन हँस रही है
कौन गा रही है
और कौन रो रही है
कर्णभेदी शोर से आहत हैं मेरे कर्णपटु
मैंने अपने कान बंद नहीं किये हैं
मुझे सुननी नहीं, समझना है विलाप
करनी है उनकी व्याख्या
समय की पदचाप सुन रही हूँ साथ साथ
गडमड नहीं है कुछ भी
सबकी अपनी पीड़ा है, अपनी व्याख्या और अपने स्तम्भ
मैं नींद में नहीं हूँ
जो कहे कोई स्वप्न है यह
खुली आँखों का स्वप्न भी नहीं
यह सुनने की वो कूवत है
जहाँ पृथ्वी की धडकनों से बजता है संगीत
तो हरिया जाती है कायनात
मैं रहूँ न रहूँ
जिंदा रहूंगी अनंत काल तक
हो गया है भरोसा
करती हैं आवाजें परिक्रमा अनंतकाल तक इस ब्रह्माण्ड की
सुनेगा मुझे भी कोई – कभी न कभी
समझेगा मुझे भी कोई – कभी न कभी
और उस दिन
कण और क्षण हो जायेंगे निराकार
हो जाऊंगी मैं मुक्त
हो जाऊंगी विदेह
आवाज़ संज्ञा है न सर्वनाम
और क्रियाएं नहीं हुआ करतीं समानुपाती