एक आलोचक से यह अपेक्षा होती है कि साहित्य-समीक्षा के सम्बन्ध में उसकी एक दृष्टि होगी। परम्परा से प्राप्त और बाहर से आयात दृष्टियों से टकराने के उपरांत उसकी ढली हुई विवेक-दृष्टि पुरातन और नवीनतम रचनाग्रहों से संवाद करने में सक्षम होगी। एक आलोचक रचना के परखने की यदि अपनी कसौटी नहीं रखता तो वह भाड़े की, उधार-बाढ़ी की, चोरी की, यानी मूलतः अपने स्वामित्व से बाहर की किसी कसौटी का सहारा लेता है, वह तब आलोचक या आचार्य नहीं रह जाता। मेधावी, मेहनती या नकलची विद्यार्थी भर रहता है। दरअसल आलोचक को भी रचनाकार की तरह अपनी मौलिक छाप छोड़नी चाहिए। किसी कृति की अर्थ-व्याख्या भर करना आलोचना नहीं है। कृति में सामाजिक-आर्थिक पहलू देखना उस तरह से देखना नहीं है जिस तरह सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षणों की रपटों में देखा जाता है। आलोचक रचना के सौन्दर्य-साधक और बाधक पहलुओं की गम्भीर पड़ताल करता है। रचना में निहित विचार-पद्धति की भी वह जांच करता है, उसके स्रोत और विकास पर भी ध्यान देता है। रचना की सम्प्रेषणीयता, मार्मिकता और औचित्य-सामंजस्य पर भी विचार करता है। कथ्य की उदात्तता या पतनशीलता पर भी वह यथारुचि सिर धुनता है।
वास्तव में एक कुशल और सिद्ध आलोचक कृति के प्रभाव के बहाव में बह नहीं जाता। बल्कि वह निर्मम भाव से अपनी सत्यदृष्टि से रचना की ऐसी परीक्षा करता है कि रचना का तिलभर दोष भी उससे छिपा नहीं रह सकता। यह भी कि कृति के व्यक्तित्व से, जिसमें कृतिकार का कृती व्यक्तित्व भी शामिल है, आलोचक का व्यक्तित्व घटा नहीं होना चाहिए। घटा होने पर वह महान् कृतियों के साथ न्याय नहीं कर पायेगा। उससे दब जाएगा या या बगले झांकने लगेगा। निजात पाने के लिए समीक्षा के अखाड़े के नियम को धता बताते हुए रचना के साथ चलती हुई कुश्ती को अखाड़े के बाहर लड़ने का प्रयास करेगा। मिट्टी का अखाड़ा हो तो हाथ-पैर टूटने की नौबत भी आ सकती है। कहने का मतलब है कि रचना यदि सूर्योपम है तो उसकी आलोचना दीपकोचित नहीं हो सकती। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ.रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह आदि जैसे आलोचकों ने इस बात को प्रमाणित किया है। आचार्य शुक्ल के सूर, तुलसी और जायसी पर, आचार्य द्विवेदी के कबीर और सूरदास पर, रामविलास शर्मा के निराला पर और नामवर सिंह के हजारी प्रसाद द्विवेदी पर किये गये कार्य इस बात के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
आजकल जैसे दशक-दशक के कवि होते हैं, कथाकार होते हैं वैसे ही आलोचक होते हैं। जैसे भाग्य-गति या काल-गति से बहुत से कवि कथाकार साहित्य के मेले में हेराए हुए रहते हैं या ईदगाह कहानी के बालक हमीद की तरह चिमटा खरीदने में व्यस्त रहते हैं उसी तरह बेचारे आलोचक भी होते हैं। तुनकमिजाजी, नाज़ुकमिजाजी और शोशेबाजी में भी वे कवि-कथाकरों से पीछे नहीं रहते बल्कि उनके कान काटते होते हैं। कविता-कथा-गीत आदि की बहुतों की जीवन-अवधि भर की रचना-यात्रा जैसे दशकीय काल के गाल में समा जाती है वैसे ही आलोचकों की। इसे अच्छा ही कहा जाएगा कि हर श्रेणी और आकार के साहित्यकार अपने बराबर के आलोचक पा जाते हैं और रसिक पाठक ग्राहक भी। दुनिया की जैसी गति है और औसत बौद्धिकता का जैसा साहित्यिक स्तर है, उसमें कुछ ही बदनसीब ऐसे गरीब रचनाकार होते होंगे जिन्हें अनुकूल आलोचक और पाठक नहीं मिलते होंगे। कभी-कभी तो जासूसी, सनसनीखेज और सस्ती रूमानी कथा लिखने वाले उथले लेखक पाठकीय लोकप्रियता के मामले में बहुत आगे निकले देखे जाते हैं। उन्हें आलोचक की जरूरत नहीं पड़ती। वास्तव में आलोचक की जरूरत उस साहित्य को पड़ती है जिसमें कुछ मूल्य-भार होता है, जिसे पहले खोलना पड़ता है।
इस तरह के जो दशक-आधारित आलोचक निकलते हैं वे वास्तव में मेहनती विद्यार्थीनुमा या अध्यापकनुमा होते हैं। वे स्वरूपत: आलोचक या आचार्य नहीं होते क्योंकि उनकी अपनी कोई दृष्टि नहीं होती। वे बस कामचलाऊ होते हैं। और सैकड़ों, हजारों रचनाकारों की दशकीय दुनिया को बड़ी कुशलता से सँभाल लेते हैं। यह दैनंदिन कार्य-व्यापार के जैसा समीक्षा-कार्य भी कोई हँसीखेल भी नही है। लेकिन एक बार जब चलती आलोचना की भाषा पकड़ में आ जाती है तब ये छात्र-अध्यापक या रिपोर्टरनुमा आलोचक बड़े-बड़े दिग्गज ठेलने में भी समर्थ हो जाते हैं। छुटभैए, दरमियाना या कद्दावर कवि-लेखक ठेलना उनके लिए सधे हुए दर्जी की तरह नाप का और फैशन का कपड़ा सिलने की तरह का एक ढर्रे पर चलता काम हो जाता है। वह इतना मंँज जाता है कि झोलाछाप डॉक्टर या भूत-प्रेत-चुड़ैल झाड़ने वाले ओझा-सोखा की तरह रोगी-रूपी रचना के बिना आर-पार गये ही, उसे देखने मात्र से उसपर एक फड़कती समीक्षा लिख सकता है। किसी पत्रिका का मूढ़, गूढ़ या मिट्टी का माधो संपादक उसे, आंख को बिना कोई कष्ट पहुंचाए, छाप भी सकता है। साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादकीय स्तर कितना गिर चुका है, इसे यहां कहने की जरूरत नहीं।
दशकीय या जुगुनू या टिटिहरी सरीखे आलोचकों की एक पद्धति यह भी देखने में आती है कि वे कभी आचार्य शुक्ल, कभी द्विवेदी, कभी शर्मा, कभी सिंह जैसे गजराजों से उनकी पृथ्वी पर शारीरिक शिथिलता या अनुपस्थिति देखकर यानी मौका आया देखकर भिड़ जाते हैं। जिसका परिणाम मुंह की खाने के अलावा दूसरा नहीं निकलता। उसी तरह ये आलोचक किसी फैक्टरी से निकले हू-ब-हू मिलते उत्पादों की तरह गोलबंद होकर प्राय: कबीर और तुलसी के पीछे पड़ जाते हैं, एक ही प्रकार की जबान और तीर-कमान साधे। मज़े की बात यह कि दोनों सन्त-भक्त कवियों के आराध्य राम हैं। एक के निर्गुण हैं तो दूसरे के सगुण ही नहीं नर भी हैं। ये आलोचक उनके बीच और उनके रामों के बीच कुश्ती कराते हैं। यानी उन्हें अपने हठ, कुण्ठा, और प्रेम-घृणा से बने, पक्षपाती इरादों के सूत्रों से कठपुतली की तरह नचाते हैं, फिर एक को जिताकर हा-हा अट्टहास करते हुए प्रमत्त की तरह धन्य होते हैं। हिन्दी में आलोचना की रस्म इस तरह भी निभाई जाती हुई आगे बढ़ती है।
इसलिए सच्चे अर्थों में आलोचक वह है जिसका साहित्य-विवेक अपने बल पर खड़ा होता है। और स्वतंत्रतापूर्वक वह उसका सहारा लेने में समर्थ होता है। आलोचना के क्षेत्र में तभी वह मौलिक होता है। सिद्धांत-प्रवर्तन की शक्ति रखता है। वह मौलिक सिद्धांतकार न हो तो भी उसकी व्याख्यात्मक और अनुसंधानात्मक दृष्टि बड़ी व्यापक होती है। पैनी और गहरी होती है।