(1) यह बहुत बार होगा
यह बहुत बार होगा
जो आप सोचते हैं
वह जरूरी नहीं कि पूरा ही हो
हो सकता है वह अधूरा हो
अधूरा ही बना रहे
इस अधूरेपन में भी जीवन को
तराशा जा सकता है!
यह बहुत बार होगा
कि जो आप चाहते हैं
जरूरी नहीं कि वह पूर्ण हो
हो सकता है कि वह चाहना
चाहत ही बनी रहे
इस चाहते रहने पर भी जीवन को
तराशा जा सकता है!
यह बहुत बार होगा
कि जो आप माँगते हैं
वह आपको मिले ही
हो सकता है कि आपको वह मिले
जो आपके लिए जरूरी हो
उम्मीद के मुताबिक भी नहीं मिले
पर, उम्मीद नहीं टूटनी चाहिए
उम्मीद के रहते जीवन को तराशा जा सकता है!
(2) शब्द का मजदूर!
मैं एक मजदूर हूँ
शब्द का
कलम की स्याही का
कलम की दवात का
कागद कारे करने वाली कलम का!
पर, अब न कलम बची
न स्याही-दवात-कागज़
अब आ गया है
एनरोल्ड फोन
उसका की-बोर्ड
लेपटॉप
उसका की-बोर्ड और माउस
जो हुआ, सो हुआ
कलम, पेन, बॉलपेन से की-बोर्ड
तक की यात्रा में
शब्द वही है
बस, उसे लिखने-कहने का ढंग बदल गया।
मैं मजूरी करता हूँ
फोकट की नहीं खाता
दिन-रात रहता हूँ
क्लास, मीटिंग, कॉपी-किताबों के बीच
आजकल तो ऑनलाइन भी
खपता हूँ समय-बेसमय
फोन-लेपटॉप के साथ।
रोज नये-नये आदेशों को
सुनता हूँ, झेलता हूँ
चाहकर भी नकार नहीं सकता
भलमानसियत का लबादा ओढ़
शब्दों से नाता जो जोड़ चुका हूँ!
ये इबारत यूँ ही नहीं लिखी जाती
हथौड़े की तुलना में
वजन भी कम होता है
पर, एक-एक शब्द की चोट
कीमती होती है बहुत!
मूल्य चुक नहीं सकता शब्दों का
शब्द की चोट सीने में लगती है
न दिखती है, न लहू निकलता है
शब्द का मजदूर ही
चुका सकता है शब्द की कीमत!
मजदूर हूँ शब्द का
शब्द की जितनी निष्ठा से मजूरी करूँगा
दाम भी उतना ही बढ़िया मिलेगा
यही छैनी, यही हथौड़ा है मेरा
इसी की कारीगरी से
जिंदगी की नैया पार लगेगी!
(3) मैं गाँव हूँ
मैं गाँव हूँ
भारत देश का
मैंने कभी नहीं दिया
‘देश निकाला’
अपने लोगों को!
लोग खुद ही निकल-निकलकर
जाते रहे शहर
नगर, महानगर, परदेश
तलाशते रहे नई जमीन
अपनी जमीन छोड़कर!
कोई फ्लैट में बसा
कोई डुप्लेक्स विला में
कोई अपार्टमेंट हाउस में
कोई किराये पर खोजता रहा
कोई झुग्गी-झोंपड़ी में
ढूंढ़ता रहा अपना आशियाना!
सब बस गए
अपनी मर्जी के मालिक बन गए
पर, शहर भी शहर ही ठहरा
अपनी तासीर नहीं छोड़ी
लौटा दिए बसे हुए लोग
अपने-अपने गाँव को!
जो गए थे शहर में बसने
रोजगार की तलाश में
वे आज लौट रहे हैं अपने गाँव
अपनी जमीन पर
अपने पुश्तैनी घर
अपनी बची जिंदगी को बचाने!
सब बदल गए
शहर बदल गया
लोग बदल गये
जीवन के मानक बदल गये
नहीं बदला तो सिर्फ गाँव
भारत देश का गाँव!
मैं गाँव हूँ
भारत देश का
मैं कभी नहीं देता ‘देश निकाला’
मैं तो बसाता हूँ लोगों को
‘मिनख’ बने रहने के लिए
मिनख बचे रहे तो
यह जीवन भी बचा रहेगा!