कभी ख़ाक तो कभी धुआँ मिलता है
यहाँ आदमी मुक़म्मल कहाँ मिलता है
चारासाजों की बातों में बहुत पहले था,
अब तो उनका बस कहकशाँ मिलता है
मैं जहाँ घूम कर जब भी घर जाता हूँ
नई जमीं इक नया आसमाँ मिलता है
अज़ब की ये चाहत है जिस्मो जान की
न तो ना मिलता है न तो हाँ मिलता है
मैं क्या समझूँ मोहब्बत में तुम्हारे ‘तेज’
जो दरो दीवार पे नामो निशाँ मिलता है