प्रेमचंद के जीवन, साहित्य, विचार के अध्ययन और दुर्लभ अनुसंधान के लिए अपना जीवन समर्पित कर चुके हैं कमलकिशोर गोयनका। इन दिनों वे ‘मानसरोवर ‘ के आठ खंडों की नवीन प्रस्तुति में जुटे हैं। इसके अलावा, प्रवासी साहित्य पर भी उनकी लेखनी अनवरत चलती रहती है।
इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं?
प्रेमचंद पर बड़ा ही महत्वपूर्ण कार्य कर रहा हूं। ‘मानसरोवरÓ के आठ खंडों में उनकी 203 कहानियां हैं। मेरे द्वारा इस पर काम करने के बाद इनकी संख्या 299 हो गई है। अब यह’नया मानसरोवरÓ के नाम से प्रकाशित होगा। हर कहानी के स्रोत की सूचना दी जाएगी। इसके अलावा, लगभग160 कहानियां जिन पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, उनके प्रथम पृष्ठ का फोटोस्टेट उस कहानी के साथ जोड़ा जाएगा। ये कहानियां कालक्रम से लगी होंगी। पाठक देख पाएंगे कि सौ वर्ष पहले ये कहानियां किस तरह प्रकाशित हुई थीं। उनकी कहानी यात्रा का विकास किस तरह हुआ था?
प्रेमचंद और अन्य की कहानियों में क्या अंतर पाते हैं आप?
प्रेमचंद पराधीन भारत के स्वाधीनता कामी कथाकार थे। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से अपने दो उद्देश्य बताए। पहला, देश को स्वराज मिले। दूसरा, भारतीय आत्मा की वे रक्षा करना चाहते थे। इसके आधार पर यदि हम उनके पूरे साहित्य का अवलोकन करते हैं, तो पाते हैं कि चाहे कहानी गांव के जीवन की हो चाहे हिंदू-मुस्लिम एकता के समन्वय की या पश्चिम के सांस्कृतिक दबाव की हो या फिर गांधी के साथ स्वाधीनता संग्राम की, सारी कहानियां इन्हें ही केंद्र में रखकर लिखी गई हंै। भारतीय आत्मा की रक्षा का विचार उस समय के ज्यादातर विचारक रख रहे थे। पश्चिम से आने वाले विचारों के साथ जो द्वंद्व चल रहा था, इस संदर्भ में मैथिलीशरण ने लिखा, ‘हम क्या थे और क्या हो गए। क्या होंगे कभी।Ó वास्तव में ये तीनों चीजें देखने की एक भारतीय दृष्टिï विकसित हो रही थी। इसे ही लोगों ने नवजागरण काल कहा। यही हमारा स्वाधीनता संघर्ष का भी काल था। और यही प्रेमचंद का काल (1880-1936) था। आजादी से पहले का जो 50 वर्ष है, इसे ही प्रेमचंद के संघर्ष का युग माना जाता है। लोग यह आत्मबोध करने में लगे थे कि हम क्या हैं? पश्चिम ने हमें बताया था कि भारत साधुओं और सर्पों का देश है। नासमझ लोगों का देश है, इसलिए हम उन्हें समझदार बनाने के लिए यहां आए हैं। इन सारे पश्चिमी विचारों के विरुद्ध एक जागृति का भाव दिखाई देता है।
प्रवासी हिंदी साहित्य पर काम करने का विचार कहां से आया?
एक कार्यक्रम के तहत भारत सरकार की ओर से मैं 1980 में पहली बार मॉरीशस गया। वह वर्ष प्रेमचंद की जन्म शताब्दी का वर्ष था। वहां कई हिंदी लेखकों से मेरी मुलाकात हुई,जिसमें अभिमन्यु अनत तब तक काफी लोकप्रिय हो चुके थे। मैंने लौटते वक्त लगभग 35 वर्ष पहले यह संकल्प लिया कि प्रेमचंद के साथ-साथ मुझे प्रवासी साहित्य के विकास पर भी काम करना है। इसके बाद मॉरीशस पर आधारित मेरी कई किताबें -‘अभिमन्यु अनत : एक बातचीतÓ, ‘अभिमन्यु अनत : प्रतिनिधि रचनाएंÓ आईं। ब्रजेंद्र कुमार, भगत मधुकर की रचनावली को संपादित किया। कई पत्रिकाओं के प्रवासी विशेषांक निकलवाए। ‘हिंदी का प्रवासी साहित्यÓ किताब का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो रहा है। साहित्य अकादमी जो हिंदी साहित्य का इतिहास प्रकाशित कराने जा रहा है, उसमें भी मैंने प्रवासी साहित्य पर पचास पन्नों में आलेख लिखा है। साहित्य अकादमी ने भी स्वीकार कर लिया है कि प्रवासी साहित्य हिंदी साहित्य की एक धारा है। अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरीशस के अलावा, हॉलैंड, सूरीनाम, फिजी में भी बहुत काम हुआ है।
यह साहित्य भारतीय साहित्य से कितना अलग है?
प्रवासी साहित्य की दुनिया को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसकी संवेदना भारत से भिन्न है। वे जिस तरह का जीवन जी रहे हैं, वह यहां से बिल्कुल भिन्न है। अमेरिका की एक कहानी का उल्लेख कर रहा हूं।
‘एक लड़की और उसकी मां दोनों अपने-अपने डेट पर जाने की तैयारी कर रही हैं। बेटी मां से कहती है- मां यह जो ड्रेस आप पहन रही हैं, वह आपके ब्वॉय फ्रेंड को पसंद नहीं आएगी।Ó इसकी कल्पना हम भारत में नहीं कर सकते। इस तरह का जो जीवन चक्र है, इससे नए दृश्य हमारे सामने उपस्थित हो रहे हैं। हमें यह जानकारी मिल रही है कि वहां के भारतीय लोगों पर किस तरह पश्चिम की संस्कृति का प्रभाव पड़ रहा है। उनके जीवन मूल्य बदल रहे हैं। संबंधों की परिभाषा बदल रही है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। हरेक विश्वविद्यालयों में इस पर शोध हो रहा है। कहानियां बताती हैं कि उन्हें जीवन जीने के लिए किस तरह परिश्रम करना पड़ रहा है?
प्रवासी साहित्य कहना कितना उचित है?
जब मॉरीशस में हिंदी साहित्य रचने की शुरुआत हुई, तो उन्हें प्रवासी साहित्य नहीं कहा गया। जब अमेरिका और ब्रिटेन के साहित्य प्रकाशित होने लगे, तो वहां के लेखकों ने अपने-आपको प्रवासी लेखक घोषित किया। उन्होंने जब अपने आपको मान लिया कि वे प्रवासी लेखक हैं, तो यह मुहावरा हिंदी में चल निकला। अब जो लेखक स्थापित हो गए हैं, वे कहने लगे कि हम हिंदी की मुख्यधारा के लेखक हैं। अगर किसी लेखक की किताब पर लिखा है ‘प्रवासी साहित्यÓ, तो आपका ध्यान स्वत: उस ओर चला जाएगा। उसे पढऩे की जिज्ञासा होगी। प्रवासी साहित्य कहने से अपमान नहीं, बल्कि विशेषता उद्धृत होती है। स्त्री विमर्श साहित्य, दलित साहित्य, पुराने जमाने में छायावाद, प्रकृतिवाद साहित्य कहा जाता था, उसी अर्थ में प्रवासी साहित्य कहा जाता है। यह न तो हाशिए का साहित्य है और न ही द्वितीय कोटि का। यह एक अच्छा साहित्य है। इसकी अपनी धारा है।
कौन-से प्रवासी साहित्यकार बढिय़ा लिख रहे हैं?
अमेरिका में हरिशंकर आदेश, सुधा ओम ढींगरा, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, विजय मेहता के अलावा, इंग्लैंड में तेजेंद्र शर्मा, उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर, उषा वर्मा आदि हैं। हॉलेंड की पुष्पिता अवस्थी बहुत बढिय़ा लिख रही हैं। ये हमारे सांस्कृतिक दूत हैं। हिंदी साहित्य के विकास के लिए ये साहित्यकार निरंतर काम कर रहे हैं। यहां के हिंदी समाज के भीतर उनके प्रति उत्सुकता पैदा हो रही है।
उनके लेखन पर क्षेत्र विशेष का प्रभाव दिखता है?
यह तो हिंदी में भी है। रेणु के ‘मैला आंचलÓ और प्रेमचंद के ‘गोदानÓ में देसज शब्दों का बराबर प्रयोग हुआ है। भाषा के विकास के लिए यह बहुत जरूरी है। मॉरीशस के अभिमन्यु अनत के उपन्यासों में कई संवाद फ्रेंच या क्रिओल (लोकल डायलेक्ट) में आते हैं। कई बार कैरेक्टर अपनी भाषा बोलने लगता है। हालांकि जो लोग उस भाषा को नहीं जानते हैं, उनके लिए व्यवधान उत्पन्न होता है। पर इसे हमें उस भाषा का सौंदर्य मानना चाहिए।
आपने हाइकू कविताएं भी लिखी हैं।
मेरे मित्र प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा एक हाइकू अंतर्देशीय पत्रिका निकालते थे। इसके लिए उनकी सलाह पर मैंने 20-25 हाइकू लिखे। मैं अपने-आपको हाइकूकार नहीं मानता, क्योंकि मैंने लगातार हाइकू नहीं लिखा। यह एक कठिन विधा है, लेकिन कुछ हाइकूकारों ने इसे सस्ता बना दिया है। हाइकू में प्रकृति का जो तत्व है वह प्रधान है। जापान में बड़े प्रसिद्ध हाइकूकार हुए हैं पाशो। उन्होंने कहा है कि जीवन भर में यदि आप 3-4 बढिय़ा हाइकू लिख पाते हैं, तो आप महाकवि बन जाते हैं। इसे लिखने के लिए बहुत बारीक दृष्टिï चाहिए। वैसे भी कविता में भावों का उद्दाम आवेग होता है, जिसे पढ़ते ही आप महसूस करने लगते हैं।
आप कहते हैं कि प्रेमचंद गरीब नहीं थे!
जब मैंने प्रेमचंद पर काम करना शुरू किया, तो कई नई चीजें मिलती चली गईं। इलाहाबाद में जब 1975 में मैं उनके छोटे बेटे अमृत राय से मिला, तो कई चीजें जो मिलीं, उनमें से एक था उनका सर्विस बुक। उसमें उन्नीस सौ से लेकर 21 सौ रुपये तक की सैलरी का रिकॉर्ड है। उनके देहांत से चौदह दिन पहले के एक पासबुक में 4 हजार 4 सौ रुपये धनराशि होने की सूचना है। उनकी दो इंश्योरेंस पॉलिसी थी। मुंबई में संवाद और कहानियां लिखने के लिए उन्हें 8 सौ रुपये महीना सैलरी मिलती थी। 1936 में जब दिल्ली ऑल इंडिया रेडियो के लिए उन्होंने दो कहानियां पढ़ीं, तो सौ रुपये मिलने की बात उन्होंने एक डायरी में लिखी है। रुपये का जो उस समय मूल्य था, इसके आधार पर उन्हें गरीब लेखक कतई नहीं कहा जा सकता। उनके पास सरस्वती प्रेस था और 25 -30 हजार किताबों का स्टॉक। तो क्या हम कह सकते हैं कि मरने के बाद उनके पास अपने कफन के लिए पैसे नहीं थे। हमारे प्रगतिशील लेखकों ने उन्हें गरीब बताया है। एकाध जगह उन्होंने लिखा है कि मैं मजदूर हूं। जो लेखन से कमाता हूं, उससे रोटी चलती है। डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा प्रेमचंद गरीबी में जिंदा रहे और गरीबी में मर गए, तो मैंने इसका विरोध किया। यह तथ्यों पर आधारित नहीं है। उनके जमाने में एक परिवार का पालन-पोषण 5 रुपये में होता था, जबकि प्रेमचंद को पहली नौकरी में 20 रुपये माहवार मिलती थी। बड़े पुत्र श्रीपत राय ने कहा है उनकी पिता कभी गरीब थे ही नहीं। 1928 में बेटी की शादी में उन्होंने सात हजार रुपये खर्च किए,फिर वे गरीब किस तरह हुए?
क्या प्रेमचंद ने कविताएं और लघुकथाएं भी लिखी हैं?
‘रंगभूमिÓ में सूरदास एक गीत गाते हैं, वह प्रेमचंद ने लिखा है। कुछ कहानियों में उन्होंने महादेवी वर्मा की कविताओं की कुछ पंक्तियां और सूरदास को उद्धृत किया है। ‘गोदानÓ में कुछ अंशों को पढ़कर लगता है जैसे उन्हें जयशंकर प्रसाद ने लिखा है। भाषा का यह अचीवमेंट अनोखा है।
वे लघुकथा के जनक हैं। उनकी कई छोटी कहानियां लघु कथाओं सरीखी हैं।
युवा लेखकों से क्या कहना चाहेंगे?
युवाओं को खूब पढऩा चाहिए। पढऩे से बुद्धि का विकास होता है। आप कितने ही प्रतिभासंपन्न क्यों न हों, दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी आपको अवश्य होनी चाहिए। दूसरी बात कि शॉर्टकट में न जाएं। इससे सारे जीवन में उपलब्धि हासिल नहीं हो पाएगी। आपके काम में निरंतरता और निष्ठा, दोनों होनी चाहिए। मैं 45 साल से लगातार काम कर रहा हूं। दूसरी बात यह कि यश की आकांक्षा न करें। काम करने पर यश आपके दरवाजे खुद चलकर आएगा। बुनियाद मजबूत होने पर कोई आपको हिला नहीं सकता। साहित्य खूब पढ़ें। पढऩे के बाद जब लगे कि लिखे बिना नहीं रह सकते, तो लिखना शुरू करें। (दैनिक जागरण से साभार)