हिंदी के वरिष्ठ कवि–आलोचक, कलाविद् एवं संस्कृतिकर्मी श्री अशोक वाजपेयी इस वर्ष 16 जनवरी को 80 वर्ष के हो गए। उनका जन्म 1941 में दुर्ग (छत्तीसगढ़) में हुआ था। साहित्यिक लेखन की दुनिया में वे गत छह दशक से सक्रिय हैं और समसामयिक मुद्दों पर मुखर भी रहते हैं। लेखक–विचारक के रूप में उनकी ख्याति सुविदित है।
श्री अशोक वाजपेयी का लंबा काव्य–जीवन 16 कविता–संग्रहों और हिंदी आलोचना की 7 पुस्तकों में प्रतिफलित हुआ है। घर–परिवार, पूर्वज, प्रेम, प्रकृति, कलाएं, समकालीन सामाजिक परिदृश्य आदि उनकी कविता में चरितार्थ होते रहे हैं। उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार, कबीर सम्मान, फ्रांस और पोलैंड के उच्च नागरिक सम्मान आदि मिले हैं। उन्होंने शास्त्रीय संगीत, सैयद हैदर रज़ा आदि पर अंग्रेज़ी में आलोचना पुस्तकें लिखी हैं। वे भारत भवन के संस्थापक, सचिव और अध्यक्ष, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीयहिंदी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति तथा केंद्रीय ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष रहे हैं। इन दिनों रज़ा फ़ाउण्डेशन के प्रबंध न्यासी हैं।
गत 11 जनवरी को श्री अशोक वाजपेयी से ‘साहित्यिकी डॉट कॉम‘ के संचालक संजीव सिन्हा ने उनकी साहित्यिक सक्रियता, हिंदी भाषा एवं साहित्य तथा विचारधारा पर लम्बी बातचीत की। इस बातचीत को हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। पहला भाग आप पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है दूसरा भाग—
? आप जब युवा थे उस समय मार्क्सवाद का प्रभाव तीक्ष्ण था लेकिन आप इस विचारधारा के हमसफर नहीं बने, तो इसके पीछे क्या कारण रहे?
दो–तीन कारण थे। एक तो यह था कि प्रभाव जैसा सब पर पड़ता है, सो मुझ पर भी पड़ता था लेकिन तब तक यह बात समझ में आने लगी थी कि एक तरह की सार्वजनिकता या एक तरह की सामाजिकता में निजता का हनन होगा या होता है। हमको ऐसी सामाजिकता चाहिए जिसमें निजता की जगह हो, अब वो कैसे होगी, मेरे मन में ये बात धीरे–धीरे आना शुरू हुई। मार्क्सवादी परंपरा के बुनियादी मूल्य हैं–स्वतंत्रता, समता और न्याय। समता पर जब उसने जोर देना शुरू किया तो उसने स्वतंत्रता में कटौती करना शुरू कर दिया और न्याय को हाशिए पर डाल दिया तो मुझे यह लगा कि मार्क्सवादी चिंतन एक तरफ है और साम्यवादी व्यवहार दूसरी तरफ। यह जो फांक है, और इसके बीच दरअसल एक तरह का अंतर्विरोध है, इसको पहचानने की कुछ समझ मुझमें आ गई। लेकिन यह भी समझ में आता रहा कि इनमें से अनेक लोग ऐसे हैं जो अपना एक निजी व्यक्तत्वि बना पाएंगे, या बना पा रहे हैं।
वैसे मुक्तिबोध पर सबसे पहला बड़ा निबंध मैंने ही लिखा। इसका दावा मैं नहीं करता हूं, बहरहाल तथ्य है सो है। धूमिल पर सबसे पहला लेख मैंने लिखा। विनोद कुमार शुक्ल पर सबसे पहला लेख मैंने लिखा। कमलेश पर मैंने लिखा।
मेरी जो बृहत्त्रयी है–अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध; उनमें से दो तो कम से कम घोषित रूप से मार्क्सवादी हैं। मुझे उनकी सर्जनात्मकता से कभी गुरेज नहीं हुआ। उन्होंने जो किया, उसका हमने एहतराम किया। नामवर सिंह से बहुत विवाद हुए, उन पर मैंने बहुत प्रहार किए हैं लेकिन उन पर पहला विशेषांक मैंने अपनी पत्रिका का निकाला था। तब नामवर सिंह की उम्र पचास के आसपास थी। लेकिन मैंने निर्मल वर्मा पर भी निकाला था। मुक्तिबोध, शमशेर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्र कुमार, अज्ञेय पर भी विशेषांक निकाले।
असल में क्या हुआ है, जो मेरे साथ नहीं है वो मेरा शत्रु है, जब आप एक संगठन का हिस्सा होते हैं तो यह भावना उसमें बद्धमूल हो जाती है। मैंने ऐसा संगठन बनाने की चेष्टा की, जिसमें ऐसा न हो, जिसमें अगर आप मुझसे असहमत हैं, तो भी उनका स्वागत किया। मैंने जिन लोगों को बुलाया, जिन्हें पुरस्कार दिलाने में भूमिका निभाई, उस सब में मेरी सूची में मुझसे अलग मत या मुझसे विरुद्ध मत रखनेवाले व्यक्तियों की बड़ी संख्या है।
मैं किसी मार्क्सवादी को चुनौती देने को तैयार हूं कि आप अपनी सूची बताइए, उनमें उनसे अलग मत वाला एक नाम नहीं मिलेगा। हम बहुलता की बात तो करते हैं लेकिन उसका सचमुच सम्मान या व्यवहार नहीं करते, तो उससे बचने की कोशिश की, जितना बच पाया।
? मार्क्सवाद ने कहा कि हम नई दुनिया और नया मनुष्य बनाएंगे। रूस में लंबे समय तक यह विचारधारा सत्ता में रही। अपने देश में भी पश्चिम बंगाल में साढ़े तीन दशक के वामपंथी शासन के बाद भी इस दिशा में कुछ नहीं हुआ। क्या कारण लगता है, इतनी बड़ी विचारधारा की परिणति इस प्रकार हो रही है?
असल में विचारधारा का व्यवहार उस विचारधारा से विचलन था और अंतत: जब कोई विचारधारा अपने को एकमात्र विचारधारा मानने पर और उस तरह के व्यवहार करने पर बाध्य करती है तो उसमें जो विकृतियां आएंगी वह आईं। मार्क्सवादी चिंतन अभी भी महत्त्वपूर्ण है। मार्क्स ने पूंजी और पूंजीवाद को समझने की जो विधियां दीं और जो विश्लेषण किया, वो अभी भी बहुत प्रासंगिक है, लेकिन उसमें कोई तो खोट है, उसमें कहीं कोई ऐसी बात है कि वह नृशंस और नरसंहार को भी जन्म देता है, समता के नाम पर स्वतंत्रता और न्याय को स्थगित करता है। हमारे यहां जो मार्क्सवादी हैं, बहुत वर्षों बाद अब जाकर उनमें थोड़ा खुलापन आया है। अब परिस्थितियां भी बदल गई हैं, लेकिन अभी भी ऐसे लोग हैं जिनको मुझे ही लेकर दिक्कतें हैं। लेकिन मैं कोई दबे–छुपे सत्ता का अंग थोड़े ही था, मैं तो डंके की चोट पर था।
? आप तो नेताओं से दूरी बरतने का भरसक प्रयत्न करते रहे हैं।
मेरी किसी किताब का लोकार्पण कभी किसी नेता ने नहीं किया। मैंने कभी किसी नेता की मंच पर, सरकारी अधिकारी होने के कारण कई बार मुझे मंच पर होना पड़ता था, प्रशंसा नहीं की। अर्जुन सिंह संस्कृति विभाग में थे, उसके मंत्री थे, मुख्यमंत्री भी थे। वे आते थे तो मैं कहता था कि मुख्यमंत्रीजी को धन्यवाद देना है, यह तो उन्हीं का विभाग है, ऐसा करके टाल देता था। मैं कोई देवता तो हूं नहीं, भूल हुई होंगी लेकिन कोई बदनीयती, कोई भ्रष्टाचार; ये कोई निकाल नहीं सकता। न सिर्फ प्रशासनिक आचरण में, वैसे भी।
? मार्क्सवादी विचारधारा में माओ, स्टालिन, पोलपोट आदि अनिगनत नरसंहार करानेवाले हुए हैं तो क्या मार्क्स पर भी इसका कुछ दोषारोपण आप करेंगे?
मैं तो करूंगा। ऐसा तो नहीं हो सकता कि ये सब इसी ने किया। ईसाइयों ने बहुत सारे अत्याचार किए। इस्लाम बहुत अत्याचार कर रहा है। आजकल हिंदू बहुत अत्याचार कर रहे हैं। आप कह सकते हैं कि धर्म इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन धर्म में कोई तो तत्त्व है, धर्म इसको बाधित क्यों नहीं करता? इसके आड़े क्यों नहीं आता? इसलिए ये जो हुआ है इसने कहीं न कहीं यानी ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।’ ये सिद्धांत दबे–छुपे लगा हुआ है कि हम जो हिंसा करेंगे, वो एक उच्चतर लक्ष्य के लिए है।
अभी अमेरिका में हिंसा हो रही है। अमेरिका ने पिछले 50 वर्षों से सारी दुनिया में हिंसक घटनाएं कराई हैं और षड्यंत्र किए हैं। उसका अब हाल देखिए, एक वैध चुनाव को अवैध घोषित करने का प्रयास हो रहा है।
इस समय एक बड़ा भारी खतरा है क्रूरता और नीचता का। पहले क्रूरता होती थी, नीचता शायद नहीं होती थी, लेकिन अब क्रूरता और नीचता एक साथ मिल गए। सत्ताओं को नीच से नीच होने और झूठ से झूठ बोलने में अब कोई संकोच नहीं होता। ये पहले शायद नहीं था। असल में, सारे संसार में अंत:करण के विजड़न का समय है। इसलिए प्रयत्न क्या हो सकता था। संगठनात्मक प्रयत्न तो मैं नहीं जानता कि क्या होगा, संगठनों की स्थिति बहुत गंभीर और खराब हो चुकी है। यह एक तरह के निजी सत्याग्रह का समय है। हम दुनिया तो नहीं बदल सकते पर क्या हम अपनी जिंदगी और अपने आसपास जो लोग हैं, उनकी जिंदगी में कुछ ऐसा फर्क ला सकते हैं?
? लेनिन ने कहा, गैर पार्टी साहित्य मुर्दाबाद, तो यहां भी पार्टी लाइन पर साहित्य लिखे जाने लगे। इस तरह के लेखन पर आप क्या कहेंगे?
लेनिन टॉलस्टॉय को तो खारिज नहीं कर पाए न। दबा गए दोस्तोयेव्स्की को, लेकिन वो भी उभरकर आ गया। पूरे सोवियत संघ के दौरान जो सबसे बड़े लेखक हुए वो वही थे जो उससे असहमत थे। आज उन्हीं को याद किया जाता है। जो उस समय तथाकथित समाजवादी यथार्थ के लेखक थे उनको तो इतिहास ने कूड़ेदान में फेंक दिया। और पूरे पूर्वी यूरोप में जहां सोवियत साम्राज्य था एक तरह का, उसमें भी वही लेखक बड़े हुए और वे बहुत हुए जो असहमत थे।
सहमति से बहुत कम हो सकता है। लेखक का भाग्य या दुर्भाग्य ही यह है कि वो लगभग हमेशा ही सत्ता से असहमत होगा। ‘ये नहीं अभिशाप, ये अपनी नियति है।’ इसलिए कोई सत्ता हो, जहां उसने कुछ अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की, लेखक असहमति जाहिर करेंगे।
? कवि केदारनाथ अग्रवाल का कहना है, ‘‘मार्क्सवादी हुए बिना आप आदमी नहीं हो सकते और अच्छी कविता नहीं लिख सकते।’’ इससे आप कहां तक सहमत हैं?
खैर, इसका तो उत्तर यह है कि मार्क्सवादी हुए बिना संसार भर में महान् साहित्य लिखा गया है। अभी हाल में मृत्यु हुई शम्सुर्रहमान फारूकी की। मेरे हिसाब से वो इस समय भारत के दस सबसे बड़े लेखकों में थे। वो मार्क्सवादी नहीं थे। बल्कि उन्होंने तो नई तहरीर को आगे बढ़ाया और मार्क्सवादी तरक्कीपसंद ट्रेंड से अपने को अलग किया। ऐसे बहुत लेखक हैं। विभिूति भूषण मुखोपाध्याय, यू.आर. अनंतमूर्ति, जीवनानंद दास, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती आदि, आदि।
? ‘पहल’ पत्रिका का भी ऐसा आग्रह रहा है कि किसी खास मतवादी विचारधारा के लेखकों की रचनाएं छापेंगे। दूसरों की नहीं छापेंगे।
एक संपादक क्यों अपनी पत्रिका निकालता है, कैसे निकालता है; ये उसका अधिकार है। मैंने उनकी संपादकियों का अपने संपादकीय में जवाब भी दिया है। किसी पत्रिका को बहुत ज्यादा निष्पक्ष होने की जरूरत नहीं है। पत्रिका तो एक तरह की पक्षधरता से ही निकलती है, सिवाय इसके कि उसको दूसरों के प्रति खुला रहना चाहिए। हमने ‘पूर्वग्रह’ में ये अपनी नीति बनाई थी कि हम अपने पक्ष में या अपनी प्रशंसा में कोई पत्र नहीं छापेंगे। दूसरा कि, जो हमारे विरुद्ध लिखेगा हम उसको जरूर छापेंगे। हमने लगातार इसका पालन किया। सौ अंकों तक इसका पालन किया था। इसलिए आप क्या करें, यह आप तय करें संपादक के नाते। संपादक का काम मतवादी होना नहीं है, दृष्टिवान होना जरूरी है।
? आपने इतना महत्त्वपूर्ण काम सब किया है, जैसे शास्त्रीय संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगमंच को प्रतिष्ठित करने का काम किया लेकिन मतवादियों की तरफ से आप पर सत्ता का व्यक्ति, कलावादी, ऐसा लेबल चिपका दिया जाता है, जबकि आपने भारत भवन में, पूर्वग्रह में बहुत स्पेस दिया है इन्हें।
अब इसका कोई ईलाज तो है नहीं। जो भी मताग्रही होगा वो संकीर्ण होगा। और दुर्भाग्य यह है कि संकीर्ण ही नहीं होगा वो कृतघ्न भी होगा। आप किसी को बुलाते हैं कोई उपकार तो नहीं करते, लेकिन आपने अपने मंच पर अगर कभी कोई संकीर्णता नहीं बरती है तो आप इतनी तो अपेक्षा करते हैं कि दूसरा भी आपका आकलन करते समय, विश्लेषण करते समय कोई संकीर्णता नहीं बरतेगा। तो वो संकीर्णता न बरतने का सौभाग्य मुझे अपनी ओर से मिला। मैंने कभी इस तरह की संकीर्णता नहीं बरती, इसका मैं दावा कर सकता हूं, और इसको सिद्ध कर सकता हूं। लेकिन दूसरी तरफ मुझे इस संकीर्णता से मुक्त होकर मेरे काम के आकलन करने का सौभाग्य बहुत कम मिला। तो नहीं मिला तो क्या करिएगा, ‘ये नहीं अभिशाप, ये अपनी नियति है।’
? लेकिन आपका एक वक्तव्य देख रहा था, जिसमें आपने कहा है कि धर्मांध और संकीर्ण लेखकों से आपने दूरी बरती।
दूरी इस अर्थ में कि जो बिल्कुल ही कट्टरपंथी है, उनसे मैं दूर रहा हूं। क्योंकि मेरा एक पूर्वग्रह है शायद कि मतांधता से सृजनात्मकता और बौद्धिकता दोनों दूर तक नहीं जा सकती। यानी विचारशीलता भी दूर तक नहीं जाएगी और सृजनशीलता भी दूर तक नहीं जाएगी। मतांध तो गिरेगा। उनकी जो आपत्ति है वो एक मानी में शायद सही भी हो।
मैंने जो शमशेर बहादुर सिंह और मुक्तिबोध का विश्लेषण किया है वो ये भी बताने के लिए किया है जब इन्होंने स्वयं अपनी विचारधारा की जकड़बंदी का अतिक्रमण किया है तभी वो बड़े हुए हैं। मुक्तिबोध ‘अंधेरे में’ कह रहे हैं कि तलाश क्या है? आत्मसंभवा परम अभिव्यक्ति की तलाश है। आत्मसंभव और परम अभिव्यक्ति; ये शब्द तो मार्क्सवादी शब्दावली के ही नहीं हैं। इसी ‘कविता के तीन दरवाजे’ में एक भूमिका है–कविता में साहचर्य। मैं इन तीन कवियों को सहचर कवि इसीलिए मानता हूं कि ये एक–दूसरे से बिल्कुल अलग हैं लेकिन ये एक–दूसरे के विलोम नहीं हैं। जो भी किसी सीमा का अतिक्रमण करेगा, वही बड़ा हो पाएगा। किसी क्षेत्र का हो, वाहे वो शिल्प में करे, चाहे भाषा में करे।
मुक्तिबोध, शमशेर और अज्ञेय–ये तीन कवि हैं। वो कहते हैं कि विचारधारा के कारण ये बड़े हैं, मैं कहता हूं, विचारधारा के अतिक्रमण के कारण बड़े हैं। हममें सहमति तो इस पर है कि वे बड़े हैं। कारण अलग–अलग हैं। अब वो कारण नहीं मानते तो हम क्या करें। और कैननाइजेशन देखिए जरा, हिंदी में जो कैनन्श बने हैं कि कौन बड़े हैं, कौन महत्त्वपूर्ण हैं, उसमें ऐसे कौन से कवि हैं जिनके कैननाइजेशन में क्या भूमिका निभाई, वो जरा बताएं। तो उसके लिए भी हमने अभी सोचा है, दस–बारह निबंध गैर मार्क्सवादी लेखकों के, जो मुक्तिबोध पर लिखे हैं उनको हम एकत्र कर रहे हैं। उनकी एक कविता है, ‘एक अंतर्कथा’, जिसमें वो मां है जो बेटे को, जो कवि है संभवत:, उसको उलाहना देती है, उससे कहती है कि ‘पहचान अग्नि के अधिष्ठान’, इसी को हम शीर्षक बना रहे हैं। हम अग्नि के अधिष्ठान ऐसे पहचान रहे हैं।
यह कहना कि सिर्फ मार्क्सवादी होने के कारण गजानन माधव मुक्तिबोध एक बड़े कवि हैं, ऐसा नहीं है। उनकी बाकी मार्क्सवादियों ने भी व्याख्या की है। रामविलास शर्मा ने तो उन पर पूरी किताब ही लिख दी थी। नामवर सिंह सहित औरों ने भी लिखा है, तो उसका महत्त्व हम कम नहीं करते, लेकिन हम यह भी बताना चाहते हैं कि हमने कैसे पढ़ा है एक बड़े लेखक को, औरों ने कैसे पढ़ा है। हमारा कोई मतवादी आग्रह नहीं है और हमें इससे भी कोई दिक्कत नहीं है कि वो मार्क्सवादी हैं।
? भारत में लंबे कालखंड से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव बना हुआ है। इसकी तरफ बड़ी संख्या में युवा आकर्षित हुए। आप इस संगठन के भी साथ नहीं गए?
हमारे घर में, हमारे मोहल्ले में जब गांधीजी की हत्या की खबर आई, हमारा छोटा सा मोहल्ला था लेकिन फिर भी उसमें तीन सौ–चार सौ परिवार तो रहते ही थे, उस दिन खाना नहीं बना और बच्चों को पूरी–सब्जी बांटी गई। जितने वयस्क लोग थे उन्होंने खाना नहीं खाया। मैंने इस पर ‘हिंदू’ में एक छोटा सा लेख लिखा था–डेथ इन एवरी फैमिली। मतलब हर परिवार में एक मृत्यु हुई हो, ऐसा माहौल था। उस अनुभव के बाद जिंदगी में दूसरा ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि हर परिवार में एक मृत्यु हो। उस समय यह स्पष्ट था कि इसके पीछे आरएसएस का हाथ है। हमारे यहां कंपनीबाग था, वहां हनुमानजी की मढि़या थी, उसके बगल में आरएसएस की शाखा लगती थी। उस पर हम पत्थर फेंकते थे। हम उसको डिसरप्ट करते थे। वो गलत था। वो नहीं करना चाहिए था, लेकिन हमलोगों के मन में रोष था। तो ये मेरे मन में शुरू से था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुद्ध रूप से एक यूरोपीय उत्पाद है। वो भारत की यूरोपीय समझ से पैदा हुआ और उसकी विधियों को इस्तेमाल करनेवाला उत्पाद है। उसका भारतीय परंपरा और भारतीय संस्कृति से कुछ लेना–देना नहीं है।
? महात्मा गांधी हत्या मामले में न्यायालय ने संघ को दोषमुक्त कर दिया था।
अब तो सारा सच सामने है। अब इसको लेकर कोई दुविधा तो है नहीं। मैं समझता हूं कि इसको यूं कहना चाहिए कि संकीर्णताओं से बचने की कोशिश में मैं इनसे अलग रहा। और फिर मेरी ये समझ विकसित हुई और अब भी है कि आरएसएस की विचारधारा से कुछ सर्जनात्मक रूप से महत्त्वपूर्ण या श्रेष्ठ निकल ही नहीं सकता, क्योंकि वो घृणा पर आधारित है। दूसरी तरफ, वामपंथ की मूल्य व्यवस्था से कोई असहमति नहीं हो सकती है, यानी स्वतंत्रता, समता और न्याय से, और ये अकारण नहीं है इसलिए कि वामपंथ ने तो महान् साहित्य भी पैदा किया है, विकृतियां उसकी छोड़ दीजिए। इसने महान् साहित्य पैदा किया है इसलिए इसने जो नरसंहार किए हैं, उनका औचित्य नहीं हो जाता, लेकिन ये सही है कि बड़े लेखक हुए हैं जो मार्क्सवाद से प्रेरित हैं। ठीक उसी तरह से ऐसे बहुत सारे भी लेखक हुए हैं जो मार्क्सवाद से प्रेरित नहीं थे, उसके विरोधी भी थे। दोनों ने बड़े लेखक पैदा किए, तो जाहिर है कि विचारधाराओं को एक ही पलड़े में नहीं रखा जा सकता।
किस विचारधारा से मुक्ति मिलती है, नहीं मिलती है, यह अलग बात है, मुक्ति का स्वप्न वो देखती है क्या? और वो स्वप्न किन मूल्यों पर आधारित है? इससे अगर आप तुलना करेंगे तो आरएसएस में तो कोई मुक्ति का स्वप्न है ही नहीं, वो तो एक हिंदू पादशाही है। उसमें कुछ परिवर्तन नहीं होगा सिवाय इसके कि हिंदू बन जाएगा। हिंदू भी वो नहीं होगा, बल्कि विचारधारात्मक हिंदू होगा।
? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का सबसे बड़ा जनसंगठन है और इससे जो प्रेरित संगठन हैं वो विद्यार्थी क्षेत्र में, मजदूर क्षेत्र में, राजनीति में प्रथम क्रमांक के संगठन बन गए हैं। इसके बहुत सामाजिक सेवा के प्रकल्प भी चलते हैं, जैसे अट्ठाइस हजार विद्यालय हैं, सेवाबस्तियों में समाजकार्य चलते हैं, लेकिन इसके बावजूद आप हमेशा संघ का विरोध ही करते हैं?
क्योंकि मैं उनकी संकीर्णता, घृणा और उनकी सांस्कृतिक नासमझी को दरकिनार नहीं कर सकता। अंबानी और अडानी के भी संगठन बड़े ही सुनियोजित और बड़े सक्षम होंगे। लेकिन उसका मतलब ये थोड़ी है कि हम उसमें भागीदारी करने लगें या उसकी प्रशंसा करने लगें कि हां, किसी भी तरह से सही लेकिन दौलत अच्छी बना रहे हैं। ये तो नहीं हो सकता न।
? आपकी दृष्टि से संघ में क्या सुधार होना चाहिए?
उसको तो पहले अपने को विघटित कर देना चाहिए। आज तक उन्होंने यह नहीं बताया है कि हिंदू राष्ट्र क्या होता है? इस पर भी बहस होना चाहिए न।
? हिंदू राष्ट्र के बारे में कई लेख–पुस्तिकाएं प्रकाशित हैं। उनका कहना है कि भारत हिंदू राष्ट्र है, इसको बनाना नहीं है। हजारों वर्षों पुरानी इसकी विशिष्ट पहचान है, वह अक्षुण्ण रहे। हिंदू राष्ट्र मजहबी राज्य नहीं हो सकता।
उनका अपना इतिहास देखिए, कोई संगठन अपने इतिहास से अलग नहीं जा सकता। जिस इतिहास के आधार पर हम मार्क्सवाद की आलोचना करते हैं, ठीक उसी इतिहास के आधार पर हम इसको अविश्वसनीय मानेंगे कि वो इससे हट जाएंगे।
? आपकी मार्क्सवाद और संघ से तो दूरी रही। आप इनकी सख्त आलोचना भी करते रहे लेकिन आपको कभी कांग्रेस की आलोचना करते नहीं देखा गया?
नहीं, मैंने कांग्रेस की भी आलोचना की है। जब मैं सरकार में था तो किसी की भी आलोचना नहीं कर सकता था, लेकिन 2002 में जब गुजरात में दंगे हुए, तब मैं एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति था तो मैंने उस समय जो वक्तव्य दिए, उनमें मैंने भारत सरकार, उसको लेकर संसद में जो वाद–विवाद हुए थे, उसकी निंदा की थी, कि ये तो हाईस्कूल का डिबेट है। बाद में मैं जो अपना एक स्तंभ लिखता हूं ‘कभी कभार’, उसमें मैंने कांग्रेस की बहुत आलोचना की है। संस्थाओं को लेकर, जो मेरा क्षेत्र है, कांग्रेस की बहुत सारी मूर्खताएं रही हैं, ये तो है ही, मैंने कभी उसको जस्टिफाई करने की कोशिश नहीं की।
मैंने एक बार अर्जुन सिंह से पूछा था, आपको तो यह पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आपका असली राजनैतिक शत्रु है तो उसकी बरक्स कांग्रेस ने हिंदुओं का कोई अधिक प्रातिनिधिक संगठन बनाने की चेष्टा क्यों नहीं की? थोड़ी देर वो चुप रहे, फिर उन्होंने कहा, ‘‘बात तो आपकी ठीक है लेकिन हम ऐसे समय में हैं, जिसमें लोग प्रेम से कम घृणा से ज्यादा संचालित होते हैं।’’ सो, यह भी एक समझ थी।
? वर्तमान भाजपा सरकार पर आपने असहिष्णुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था। आपने गुजरात दंगे पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, लेकिन पूर्व में कांग्रेस शासन में जैसे आपातकाल लगा, चौरासी के दंगे हुए या कम्युनिस्ट शासन में सिंगूर–नंदीग्राम की हिंसक घटनाएं हुईं, आपने प्रतिरोध नहीं किया?
नंदीग्राम की मैंने आलोचना की थी। सख्त आलोचना की थी। चौरासी के दंगे के समय मैं सरकारी सेवा में था तो मैं किसी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकता था।
? अब लेखन के माध्यम से तो प्रतिरोध कर सकते हैं, अब आप सेवानिवृत्त हैं।
हां, हां। सीधे–सीधे लिखने का मौका तो मुझे अब आया है।