अपने आलोचना कर्म के विषय में अशोक वाजपेयी ने लिखा है, “हर आलोचना के, जैसे कि हर रचनाकार के भी पूर्वग्रह होते हैं. आलोचना, समकालीन परिदृश्य में हस्तक्षेप है. वह उदासीन तटस्थ या पूर्वग्रहहीन नहीं हो सकती. हमारी आलोचना में रुचि का केन्द्र प्राय: इन पूर्वग्रहों की पहचान और रचना से सामना होने पर उसमें आए तनाव और परिवर्तन होते हैं. यही आलोचना को उसकी सार्थकता और बुनियादी मानवीयता प्रदान करता है. …कुछ पूर्वग्रह अपनी अर्जित दृष्टि और अनुभव के हैं, कुछ समकालीन रचना से आते हैं और कुछ परिवेश में आज की स्थिति के आकलन से मिले हैं. पर इन सभी के केन्द्र में साहित्य, संस्कृति और समकालीन जीवन है.” ( कुछ पूर्वग्रह, भूमिका )
उन्होंने अन्यत्र लिखा है, “आलोचना का काम सिर्फ पहले की या उसके समकालीन रचनाओं का विश्वलेषण, मूल्यांकन, प्रवृति-निर्धारण ही नहीं है, उससे कहीं आगे जाकर उसकी जिम्मेदारी है समकालीन समाज में रचना के लिए जगह बनाना. उसकी स्वतंत्रता, उसकी स्वायत्तता के लिए संभावना बनाना. उन शक्तियों से लोहा लेना भी जो साहित्य का शोषण करती हैं या करना चाहती हैं. चूँकि, आलोचना एक वैचारिक प्रक्रिया भी है, उसकी जिम्मेदारी साहित्य और विचारों के बीच संबंध खोजना और स्थापित करना है. साहित्यिक -विचार या साहित्य -सिद्धांतों को सिद्धांत-जगत में उचित स्थान और मान्यता दिलाना भी है. सबसे बढ़कर साहित्य को वैचारिक संवाद में अवस्थित करना और उसे वहाँ लगातार बनाए रखना है.” (अशोक वाजपेयी : पाठ कुपाठ, संपादक-सुधीश पचौरी, पृष्ठ-403)
कवि-आलोचकों द्वारा लिखित आलोचना को वे अधिक महत्व देते हैं और इसे ही ‘तीसरा साक्ष्य’ कहकर प्रस्तुत करते हैं. इस आलोचना को ही वे रचनात्मक आलोचना कहते हैं. आलोचकों द्वारा लिखित आलोचना को कभी ‘अकादमिक’ आलोचना कहकर खारिज करते हैं तो कभी ‘धंधई’ आलोचना कहकर.
अशोक वाजपेयी आलोचना में ‘विचारधारा’ की अपेक्षा ‘विचार’ को महत्व देते हैं. वे किसी एक विचारधारा या शिविर में आबद्ध लेखन के पक्ष मे नहीं हैं. उनके अनुसार समकालीन समीक्षा इसीलिए विचार और रचना के भीतरी तनावों और परिवर्तनों को रेखांकित करती है.
वाजपेयी जी की दृष्टि में, “सजग आलोचना वह है जो किसी भी समाज में व्याप्त वैचारिक एकरूपता का लगातार, रचना के साक्ष्य से और अपनी निरंतर विचारशीलता से परीक्षण करे और उसे विचलित करती रहे. उसका अध्यात्म शायद हमारे समय में, इस समाज में यही है कि वह कविता के लिए कम होती जाती जगह को बचाने और बढ़ाने के लिए और उसकी स्वतंत्रता और स्वाभिमान को, उसे मनुष्य की अंतरात्मा के एक अक्षय साक्ष्य के रूप में सुरक्षित रखने का संघर्ष कभी भी शिथिल न होने दे.- सारे शोरगुल के बीच कविता की आवाज दब न पाए और अलग और स्पष्ट सुनाई देती रहे, यही आलोचना की चेष्टा का अचूक लक्ष्य हो सकता है.” (अशोक वाजपेयी : पाठ कुपाठ, सं. सुधीश पचौरी, पृष्ठ-409)
अशोक वाजपेयी की आलोचना के कुछ बीज शब्द हैं. –आलोचना का जनतंत्र, कला की स्वायत्तता, पुनर्वास, एकरूपता की तानाशाही, रचनात्मक बहुलता आदि. मगर मधुरेश के शब्दों में, “अशोक वाजपेयी के जनतंत्र की राह बहुत सँकरी है और उसमें रचना की सामाजिक भूमिका के लिए तो कोई जगह है ही नहीं. वे हमेशा अपने निकट के आठ-दस लेखकों, कवियों के नाम दोहराते हैं और उसके माध्यम से ही देश और विदेश में समूचे हिन्दी साहित्य की पहचान का आग्रह करते हैं.” (हिन्दी आलोचना का विकास, पृष्ठ- 249) अशोक वाजपेयी की समीक्षा के बारे में सुधीश पचौरी की टिप्पणी है, “ अशोक वाजपेयी अपनी आलोचना को आतंककारी और रहस्यात्मक बनाने में अधिक विश्वास करते हैं (अशोक वाजपेयी : पाठ कुपाठ, पृष्ठ- 265) और गोपाल राय के शब्दों में, “ अशोक वाजपेयी की आलोचना को कविता के बारे में एक कवि का इलहाम कहा जा सकता है, जो तर्कातीत होती है.” (वही, पृष्ठ –268)
अमूमन कवियों पर की गई उनकी टिप्पणियाँ सूत्रवाक्यों की तरह हैं जो व्याख्येय हैं. वे अपने पाठकों से इतनी बुनियादी समझ की उम्मीद करते हैं. जैसे “मुक्तिबोध एक ऐसे कवि हैं जो अपने समय में अपने पूरे दिल और दिमाग के साथ, अपनी पूरी मनुष्यता के साथ रहते हैं.” (फिलहाल, पृष्ठ-109). “धूमिल मात्र अनुभूति के नहीं, विचार के भी कवि हैं. उनके यहाँ अनुभूतिपरकता और विचारशीलता, अहसास और समझ एक दूसरे से मिले हुए हैं.” ( फिलहाल, पृष्ठ-24) . “माचवे का काव्य-संसार कुछ- कुछ गोदामों जैसा है जहाँ जाने क्या-कुछ भरा लदा पड़ा है.” (फिलहाल, पृष्ठ-69) आदि.
बहरहाल, अशोक वाजपेयी की समीक्षा में अंतर्विरोध भी कम नहीं है. उनकी आलोचना पर रूपवाद का प्रभाव अधिक हैं. वे ‘जनसत्ता’ के अपने ‘कभी कभार’ कालम के लिए खास तौर पर जाने जाते हैं. भोपाल में भारत भवन की स्थापना तथा रजा फऱाउंडेशन के माध्यम से कला और संस्कृति के क्षेत्र में उन्होंने जो योगदान किया है उसके लिए भी वे हमेशा याद किए जाएंगे.
गोपेश्वर सिंह ने अशोक वाजपेयी के साहित्य की अच्छी समीक्षा लिखी है. उनका निष्कर्ष है, “उनका (अशोक वाजपेयी) राजनीतिक विश्वास गाँधी और लोहिया के आस -पास निर्मित हुआ है. धार्मिक सहिष्णुता, जाति निरपेक्ष और भेदभाव रहित समाज व्यवस्था में उनका भरोसा है. उनका भरोसा भारत की बहुलता में है. वे मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य -चिंतन के आत्यंतिक रूप से कायल नहीं हैं. वे किसी भी तरह की वैचारिक तानाशाही के खिलाफ हैं. विश्व सहित भारत में उदार-दृष्टि पर हो रहे हमलों से वे चिन्तित हैं. वे मानते हैं कि साहित्य को किसी पार्टी में शामिल हुए बिना राजनीति की निगरानी का काम करना चाहिए.” ( likhat-padhat.blogspot.com , 15 जनवरी 2021 की पोस्ट से)
अशोक वाजपेयी की प्रतिष्ठा कवि के रूप में अधिक हैं और उनके लगभग दो दर्जन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं.