हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्यार्थी की पुस्तक “कोविड-19: सभ्यता का संकट और समाधान” प्रकाशित हुई है। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक इस समय चर्चा में है। इस पुस्तक में कोविड-19 महामारी से उपजे ‘सभ्यता के संकट’ के कारणों, परिणामों और समाधानों की विवेचना का प्रयास किया गया है। पुस्तक में महामारी से उपजे संकट के तात्कालिक उपायों के अलावा स्थाई समाधान भी सुझाए गए हैं। ये समाधान भारतीय संस्कृति और दर्शन से उपजे हैं तथा करुणा, कृतज्ञता, उत्तरदायित्व और सहिष्णुता के सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित हैं।
दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित “नोबेल शांति पुरस्कार” से सम्मानित श्री कैलाश सत्यार्थी पहले ऐसे भारतीय हैं, जिनकी जन्मभूमि भारत है और कर्मभूमि भी। उन्होंने त्याग का परिचय देते हुए अपना नोबेल पुरस्कार राष्ट्र को समर्पित कर दिया है, जो अब राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में आम लोगों के दर्शन के लिए रखा है। बचपन से ही गरीब व बेसहारा बच्चों की दशा देखकर उनके लिए कुछ करने की अकुलाहट थी। इसी ने एक दिन उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का अपना बेहतरीन करियर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। जब देश-दुनिया में बाल-मजदूरी कोई मुद्दा नहीं हुआ करता था, तब श्री सत्यार्थी ने सन् 1981 में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की स्थापना की। बाल मजदूरों को छुड़ाने की छापामार कार्रवाई के दौरान उन पर अनेक बार प्राणघातक हमले भी हुए हैं।
वह चार दशकों से बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बच्चों को जबरिया बाल मजदूरी, गुलामी, ट्रैफिकिंग, यौन शोषण और हिंसा से बचाने के लिए वे 140 देशों में काम करते हैं। बच्चों की खुशहाली, शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकारों को बनाए रखने और बाल शोषण के खिलाफ दुनिया भर के आंदोलनों के अलावा वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के मुद्दों को केंद्र में लाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके प्रयासों से देश-दुनिया में बच्चों के हक में तमाम कानून और नीतिया बनी हैं। 67 साल की उम्र में भी वे सड़कों पर उतर कर बाल अधिकारों के लिए दुनियाभर में संघर्ष कर रहे हैं।
यहां प्रस्तुत है उनकी पुस्तक के कुछ प्रमुख अंश-
हम आशा और अपेक्षा कर रहे थे कि इतिहास की सबसे बड़ी साझा त्रासदी से सबक लेकर पूरे विश्व समुदाय में साझेपन की सोच जन्म लेगी, लेकिन इस बात के संकेत अभी तक नजर नहीं आ रहे। असलियत तो यह है कि दुनिया में पहले से चली आ रही दरारें, भेदभाव, विषमताएँ और बिखराव उजागर होने के साथ-साथ और ज्यादा बढ़ रहे हैं। महामारी खत्म होने और कुछ वर्षों में आर्थिक संकट से उबर जाने के बाद भी दुनिया पहले की तरह नहीं रहेगी। मैं कई कारणों से इस त्रासदी को सिर्फ स्वास्थ्य और आर्थिक संकट न मानकर सभ्यता के संकट की तरह देख रहा हूँ।…
जीवन जीने के साझा तौर-तरीकों को सभ्यता कहा जा सकता है। हर बड़े युद्ध या महामारी के बाद लोगों की जिंदगियों में उथल-पुथल होती रही है, जो सभ्यताओं को भी प्रभावित करती है। अब अचानक पूरी मानव जाति पर जो अनजानी, अदृश्य आपदा टूट पड़ी है, उसका बहुत दूरगामी असर होने वाला है, क्योंकि कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से सभ्यता की बुनियादों से लगाकर उसको चलाने और दिशा देनेवाली शक्तियाँ कमजोर होती नजर आ रही हैं। चिंताजनक बात यह है कि इन चुनौतियों का समाधान मनुष्य की भावनात्मक बुद्धि के बजाय मशीन की कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और राजनीतिक नफा-नुकसान से ढूँढ़ा जाएगा। यदि समय रहते हमने उन बुनियादों की हिफाजत नहीं की तो मनुष्यों के रहन-सहन और खान-पान के तौर-तरीके ही नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों के ताने-बाने, नैतिकता के मापदंड, राज्य-व्यवस्थाओं का चरित्र और वैश्विक राजनीति आदि सभी कुछ प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। मेरे विचार से ऐसी परिस्थितियों में मानव सभ्यता के पुनर्निर्माण की संभावनाएँ तलाशी जा सकती हैं।…
जब समाज में अनिश्चितता और अस्पष्टता के बादल छा जाते हैं, तब नए विकल्पों और संभावनाओं का सूर्योदय होता है। आज वही स्थिति है। सामान्य तौर पर सत्ता प्रतिष्ठानों, व्यवस्था के ठेकेदारों, पारंपरिक सोचवाले बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों द्वारा ढूँढ़े गए समाधान यथास्थितिवादी, सुधारवादी या प्रतिक्रियावादी होते हैं। मैं उनकी नीयत पर सवाल नहीं उठा रहा हूँ, लेकिन परिवर्तन के लिए नई सकारात्मक, व्यावहारिक और सृजनात्मक सोच रखनेवालों के लिए यही सबसे अच्छा मौका है, जिसमें मानवीय मूल्यों पर आधारित नई सभ्यता का निर्माण किया जा सके।
चौमुखी पहल
मेरे मन में एक चौमुखी समाधान की परिकल्पना आ रही है। ये समाधान हैं—करुणा (कंपैशन), कृतज्ञता (ग्रैटिट्यूड), उत्तरदायित्व (रिस्पॉन्सिबिलिटी) और सहिष्णुता (टॉलरेंस)। ये चारों अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हें एक चक्र में पिरोकर व्यवहार में लाने से कोविड-19 महामारी के दौरान और बाद में मानव सभ्यता तथा विकास में होनेवाले अपूरणीय नुकसान से बचा जा सकता है। यहाँ मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ। सभ्यताओं की जड़ों में ये चारों चीजें कहीं-न-कहीं पहले से मौजूद हैं। ये हजारों साल के अंतराल में धर्मों, संस्कृतियों, मनुष्य के स्वभाव या जरूरतों से पैदा हुई हैं।…
करुणा का वैश्वीकरण
मैं कई वर्षों से यह कहता रहा हूँ कि जब तक हम दूसरों के दुःख और परेशानियों को अपने दुःख की तरह महसूस करके उनको दूर करने के उपाय नहीं करते, तब तक एक सभ्य समाज की रचना नहीं की जा सकती। यही करुणा है। करुणा का यह भाव हमारी राजनीति, आर्थिकी, धर्मतंत्र और सामाजिक जीवन की रीढ़ होना चाहिए। हम मनुष्यों से ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, नदियों, समुद्रों, पहाड़ों और रेगिस्तानों के साथ करुणा के रिश्ते बनाकर सतत विकास (सस्टेनेबल डवलपमेंट) कर सकते हैं। करुणा को सार्वजनिक जीवन की प्राणवायु बनाना जरूरी है, इसीलिए मैं करुणा के वैश्वीकरण की वकालत करता रहा हूँ।
किसी पर रहम करना, सहानुभूति दिखाना, संवेदना प्रकट करना अथवा दूसरे के दुःख में दुःखी हो जाना अच्छे मानवीय गुण हैं, परंतु करुणा नहीं। दूसरे के दुःख को महसूस करना सहानुभूति होती है। किसी के दुःख में खुद भी दुःखी हो जाना संवेदना है, जबकि किसी के भी दुःख और कष्ट को अपने दुःख की तरह महसूस करते हुए उसी प्रकार से उस दुःख को दूर करने की कोशिश का भाव करुणा होता है। करुणा वह अकेला भाव है, जो अलगाव को खत्म करके खुद की तरह दूसरे से जोड़ता है और उसकी परेशानी का समाधान करने की प्रेरणा, साहस और ऊर्जा पैदा करके मनुष्य को क्रियाशील बनाता है।…
हमारे शरीर के किसी अंग में किसी कीड़े के काटने या चोट लगने से जिस तरह हमारे मस्तिष्क सहित शरीर के सभी अंग खुद-ब-खुद सक्रिय हो जाते हैं, उसी तरह बिना प्रयत्न किए दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति करुणा से आती है। श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में जिस निष्काम कर्मयोग की व्याख्या की है, मेरे विचार से वह करुणा से प्रेरित कार्य ही है। ईश्वर पर भरोसा करनेवाले लोग ऐसे किसी भी कार्य को ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा या उपासना मान सकते हैं, जो निष्काम भाव, यानी फल की इच्छा किए बिना उसकी सृष्टि में किसी अन्य की पीड़ा दूर करने के लिए किया जाए।…
दूसरों की तरह खुद के लिए करुणामय होना भी उतना ही जरूरी है, लेकिन यह काम ज्यादा मुश्किल है। अपने प्रति आसक्त, स्वार्थी और अहंकारी होना आसान है, लेकिन खुद को कष्ट देनेवाले भीतर बसे कारणों को महसूस करके उनका निराकरण करना बहुत कठिन है। कुछ न कर पाना या ठीक ढंग से न कर सकना, करने के बाद भी जैसा चाहा वह हासिल न कर पाना या गलत होने पर पछताते रहना रोजमर्रा के दुःख होते हैं। अपनी असफलता या किसी दूसरे दुःख के लिए खुद को दोषी ठहराना, स्वयं को अलग-थलग कर लेना और अपने आप में घुस जाना मानसिक बीमारियाँ होती हैं। ये स्वयं के प्रति प्रेम के लक्षण नहीं, बल्कि दुःख के ऐसे विषाणु होते हैं, जो मन की शांति के साथ-साथ पूरे व्यक्तित्व को मटियामेट कर देते हैं। पुरानी कहावत है कि हम जितना खुद के दुःख से दुःखी नहीं होते, उतना दूसरों के सुख से दुःखी होते हैं। गुस्सा, बदले की भावना, निराशा, पछतावा, लालच जैसी भीतर बसी बीमारियाँ दुःख का कारण बनती हैं। साथ ही सकारात्मक ऊर्जा को भी नष्ट करती रहती हैं, इसीलिए खुद के प्रति करुणा जगाना जरूरी है।…
निजी जीवन में करुणा के आचरण के साथ-साथ उसे सार्वजनिक व्यवहार बनाना भी जरूरी है। भविष्य की सभ्यता के निर्माण में करुणामय राजनीति (कंपैशनेट पॉलिटिक्स), करुणामय अर्थव्यवस्था (कंपैशनेट इकोनॉमी) और करुणामय धार्मिक संस्थान कंपैशनेट रिलीजियस इंस्टीट्यूशन) बनाना जरूरी है। मतदाताओं, कार्यकताओं, सहयोगियों और अन्य नागरिकों के साथ करुणा का रिश्ता राजनीतिज्ञों को न केवल अच्छा इनसान बनाने में मदद करेगा, बल्कि राजनीति में पारदर्शिता, जवाबदेही, समानता और समावेशिता पैदा करेगा। इसी तरह व्यापार जगत् में उपभोक्ताओं, उत्पादकों, प्रबंधकों और मालिकों के बीच करुणा पर आधारित आपसी रिश्तों से विषमता, धोखाधड़ी और शोषण का दुष्चक्र टूट सकेगा। धार्मिक संस्थानों में करुणा का भाव जगाने से गुरुडम, पाखंड, पोंगापंथी, अंधभक्ति, लूट, भेदभाव और ऊँच-नीच जैसी बुराइयों का अंत हो सकेगा। साथ ही करुणा से भरे धर्मगुरु समाज में नैतिक कल्पना दृष्टि (मॉरल इमेजीनेशन) पैदा कर सकते हैं और बढ़ा सकते हैं।
इन प्रयासों से हम न केवल कोविड-19 से उपजे सभ्यता के संकट से उबर पाएँगे, बल्कि इससे सबक लेकर मानव सभ्यता को और ज्यादा बेहतर तथा मजबूत बना सकते हैं।…
कृतज्ञता की सप्लाई चेन
दूसरा है, व्यक्तिगत रिश्तों, औद्योगिक प्रबंध और शासन व्यवस्थाओं में कृतज्ञता की जीवन-शैली अपनाना। हमें यह भाव भी किसी से उधार लेने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर थोड़ी सी ईमानदारी और विनम्रता उत्पन्न करने से वह अपने आप बाहर आ जाएगा। सामाजिक-आर्थिक संतुलन के लिए ही नहीं, बल्कि सुरक्षा, स्थायित्व और सतत विकास के लिए सभी के प्रति अपनी मानसिकता, व्यवहार और संबंधों में बुनियादी बदलाव कराना होगा। जरा सोचिए कि जिन घरों में हम सुरक्षित बैठे हुए हैं, वे किसने बनाए? उनकी एक-एक ईंट-पत्थर, सीमेंट, रंग-रोगन, लोहा-लक्कड़ और बिजली-पानी जैसी सुविधाओं में आखिर किनका खून और पसीना लगा है? आप जो कपड़े पहने हुए हैं, उनको बनाने की लंबी प्रक्रिया में अलग-अलग स्तरों पर कितने लोगों की मेहनत लगी है? जिन चीजों का भी इस्तेमाल आप करते हैं, वे आपमें से ज्यादातर लोगों ने नहीं बनाईं। आपकी जिंदगी को चलाने के लिए जो भोजन आपकी प्लेट में सजा होता है, उसे यहाँ तक पहुँचाने में ऐसे अनगिनत लोगों की जिंदगियाँ खप रही हैं, जिन्हें आप जानते तक नहीं। उनमें सिर्फ पकानेवाले ही नहीं, खाने में इस्तेमाल होनेवाली हरेक चीज, जैसे अनाज, दूध, तेल, घी, चीनी, मसाले, अंडे, मांस, मछली और सब्जियाँ पैदा करनेवालों और ढोने तथा बेचनेवालों की लंबी शृंखला है। वे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, दलित, महिलाएँ, पुरुष, काले, गोरे आदि कोई भी हो सकते हैं। क्या हम कभी उनका कोई एहसान मानते हैं? उत्पादन, बिक्री और मुनाफे की शृंखला ‘शोषण की शृंखला’ होती है, जबकि उसे ‘कृतज्ञता की शृंखला’ होना चाहिए।
जिन प्रवासी मजदूरों के खून पसीने से शहरों की तरक्की नजर आ रही है, उनके प्रति सभी को कृतज्ञ होना चाहिए था। लेकिन, जिस तरह वे उपेक्षा, अपमान और निराशा के शिकार होकर शहरों से अपने गाँवों की तरफ लौट रहे थे, वह बहुत दर्दनाक था। इसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। प्रवासी मजदूरों के शहरों से सैकड़ों मील पैदल चलकर भूखे-प्यासे अपने घर लौटते देखकर मैंने एक कविता लिखी थी—
बिन मौसम के पतझड़ आया
मेरे दरवाजे के बाहर घना पेड़ था,
फल मीठे थे
कई परिंदे उस पर गुजर-बसर करते थे
जाने किसकी नजर लगी
या जहरीली हो गई हवाएँ।
बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक
बंद खिड़कियाँ कर, मैं घर में दुबक गया था
बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी
कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे।
छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है
फिर वे तो कल के ही जनमे चूजे थे
जिनकी आँखें अभी बंद थीं, चोंचें खुली थीं
उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी
उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें
कौन सुनेगा कोलाहल में।
घर में लाइट देख परिंदों ने
शायद ये सोचा होगा
यहाँ जिंदगी रहती होगी,
इनसानों का डेरा होगा
कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर,
रोशनदानों तक पर
कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे
मैंने उस माँ को भी देखा, फेर लिया मुँह
मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी।
मेरे घर में कई कमरे हैं; उनमें एक पूजाघर भी है
भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है
खिड़की-दरवाजों पर चिड़ियों की खटखट थी
भीतर टीवी पर म्यूजिक था, फिल्में थीं।
देर हो गई, कोयल-तोते,
गौरैया सब फुर्र हो गए
देर हो गई, रंग, गीत, सुर,
राग सभी कुछ फुर्र हो गए।
ठगा-ठगा सा देख रहा हूँ आसमान को
कहाँ गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना
कहाँ गया एहसास मुक्ति का, ऊँचाई का
और असीमित हो जाने का।
पेड़ देखकर सोच रहा हूँ
मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया,
फिर किसने यह पेड़ उगाया?
बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई
जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर
दुर्गम-से-दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में
जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे
चलीं हवाएँ, महकी धरती।
धुँधला होकर शीशा भी अब
दर्पण सा लगता है
देख रहा हूँ उसमें अपने बौनेपन को
और पतन को।
भाग गए जो मुझे छोड़कर
कल लौटेंगे सभी परिंदे
मुझे यकीं है, इंतजार है
लौटेगी वह चिड़िया भी चूजों से मिलने
उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में
सभी खिड़कियाँ, दरवाजे सब खुले मिलेंगे
आस-पास के घर-आँगन भी
बाँह पसारे खुले मिलेंगे।
मैं यहाँ कृतज्ञता के उस जरूरी मानवीय गुण पर जोर दे रहा हूँ, जो व्यक्ति और समाज को बेहतर बना सकता है। यदि हम ईमानदारी से यह महसूस करने लगें कि हमारा वजूद केवल हमारे कारण नहीं हैं, बल्कि इसमें बहुत लोगों की प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी है तो हमारा पूरा व्यक्तित्व और चरित्र ही बदल सकता है। एक-दूसरे के प्रति सम्मान, परस्पर जिम्मेवारियों का एहसास, हर तरह के भेदभाव से छुटकारा, विनम्रता, नैतिक जवाबदेही और समानता जैसे गुण कृतज्ञता से उपजते हैं। कृपा करने में देनेवाले का हाथ ऊपर और लेनेवाले का नीचे बना रहता है, जिससे निजी अहंकार और सामाजिक ऊँच-नीच बढ़ती है। इसी से मिलता-जुलता भाव दया का है। दया के भाव से संतुष्टि और सुख मिलता है, लेकिन दाता होने का अहंकार पैदा नहीं होता। दयालुता, घमंड और क्रूरता को नष्ट करके विनम्रता पैदा करती है। इन दोनों से अलग कृतज्ञता की भावना है, जिसमें मदद या किसी के भी काम आनेवाला खुद को उपकृत मानता है। कृतज्ञ होने और ऋणी होने की भावनाएँ एक जैसी लगती हैं, इसलिए उनमें बड़ा फर्क है। कर्जदार के मन में कर्ज उतारने का दबाव रहता है, परंतु जरूरी नहीं कि कर्जदाता के लिए सम्मान का भाव हो। कृतज्ञता में दबाव नहीं, आत्मिक सुख और दूसरों के लिए सम्मान महसूस होता है। इससे सामाजिक समरसता और आपसी जिम्मेदारी भी बढ़ती है।…
सहिष्णुता का अल्गोरिद्म
मैं सहिष्णुता के संबंध में अल्गोरिद्म की बात इसलिए कर रहा हूँ कि विविधताओं और भिन्नताओं से समझौते किए बिना उनको स्वीकार करते हुए उन्हीं से त्वरित और प्रभावी हल खोजे जा सकते हैं। इसे सहिष्णुता का अल्गोरिद्म भी कहा जा सकता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि असहिष्णुता, यानी विविधता और भिन्नता को सहन न करना, आपसी रंजिशों, हिंसा और मुद्दों से लगाकर सभ्यताओं के टकराव का बहुत बड़ा कारण होती है और परिणाम भी।…
युद्धों, महामारियों या अन्य प्रकार की त्रासदियों के दौरान सहानुभूति और मानवीय संवेदनाओं में एक तरह का उफान आ जाता है। दान-पुण्य, राहत और दूसरों की मदद के कार्यों में बढ़ोतरी होती है, लेकिन उसके बाद में स्वार्थों के दायरे सिकुड़ने लगते हैं। अपनों-परायों का भेद फिर से नागरिकों और सत्ताधारियों को नस्लीय, जातीय, वर्गीय, राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक पहचानों और हितों की तरफ मोड़ देता है। यह प्रक्रिया असहिष्णुता को बढ़ाती है। पहले से ही विचारों, पूजा-पद्धतियों, खान-पान, कपड़ों और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं की भिन्नताओं को सहन नहीं किया जाता, परंतु अब नए दौर में असहिष्णुता और अतिवादिता बढ़ने का और ज्यादा खतरा है।
जिम्मेदारी की तरह सहिष्णुता को भी अच्छे और बुरे अर्थों में प्रयोग में लाया जाता रहा है। सहमत हुए या समझौता किए बिना किसी अलग या विपरीत असलियत को स्वीकार करना सहिष्णुता का मानवीय गुण है, लेकिन अन्याय, अत्याचार और बुराई को चुप्पी साधकर सहते रहना सहिष्णुता नहीं, बल्कि कायरता होती है। मानव सभ्यताओं को ये दोनों ही प्रभावित करते हैं। संस्कृत भाषा में दो मिलते-जुलते शब्द हैं, ‘समज’ और ‘समाज’। समज का मतलब है ‘भीड़ या जानवरों का झुंड’ और समाज का अर्थ है, ‘सह-अस्तित्व में शांतिपूर्वक रह सकने वाला मानव समूह’। ‘म’ के साथ लगनेवाली आ की मात्रा में सारा रहस्य छुपा है। यहाँ इस ‘आ’ का अर्थ है ‘विवेक’। जरूरी नहीं कि बुद्धिमान व्यक्ति विविधता और असहमतियों के बीच एक-दूसरे के साथ प्यार से रह सके, किंतु विवेकवान व्यक्ति ऐसा कर सकता है, क्योंकि वह असलियत को पसंद न करते हुए भी स्वीकार करता है।
मनुष्य की खंडित पहचानें सहिष्णुता में सबसे बड़ी बाधा हैं। सैकड़ों सालों में अलग-अलग मत-पंथों के अनुयायियों ने आस्था और पूजा-पद्धतियों के साथ-साथ अपनी ऐसी बाहरी पहचानें बना रखी हैं, जो एक-दूसरे को नहीं सुहातीं। उनमें पूजास्थल, पवित्र ग्रंथ, पुजारी, तीर्थ और शरीर पर सजाए गए चिह्न, जैसे पहनावा, चोटी, दाढ़ी, तिलक, जनेऊ, क्रॉस आदि शामिल हैं। ये पाँचों पहचानें बाहरी होते हुए भी पूरी मानवजाति को भीतर से बाँटे रखती हैं। पंथों के अनुयायी ईश्वर और मनुष्य के प्रति आस्था को भूलकर बाहरी पहचानों को ही धर्म मान बैठे हैं। यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करते हुए मत, मजहब पंथ और धर्म शब्दों का एक-दूसरे के लिए इस्तेमाल कर रहा हूँ; हालाँकि धर्म की परिभाषा बाकी शब्दों से अलग है। इनके अलावा दुनिया भर में राजनीतिक पार्टियाँ अपने फायदे के लिए वैचारिक असहिष्णुता को बढ़ावा देती हैं। आजकल मीडिया तो सबसे आगे है। खासकर सोशल मीडिया से बिना किसी खर्चे के पलक झपकने से पहले झूठ और नफरत फैलाई जाती है।…
कोविड-19 के श्राप को वरदान में बदलें
भारतीय पौराणिक कथाओं में सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा के चार मुँह बताए गए हैं। ये चारों दिशाओं में साथ-साथ सृजन, संरक्षण, उन्नति और परिवर्तन के प्रतीक हैं। वर्तमान संकट से उबरने और भविष्य में सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों पर आधारित सभ्यता की रचना के लिए ऊपर लिखी गई चारों बातें उपयोगी हो सकती हैं, क्योंकि वे अपने आप में सार्वभौमिक मूल्यों का ही व्यवहारीकरण (एप्लीकेशंस ऑफ यूनिवर्सल वैल्यूज) है। हजारों साल पहले जीवन के परम सत्य का साक्षात्कार करनेवाले वेद के ऋषियों ने पूरे विश्व को एक परिवार मानकर ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, यानी सभी के कल्याण की कामना की थी। केवल अपने लिए नहीं। उन्होंने हमको ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’, यानी हम सब की बुद्धि को साथ-साथ प्रकाशित करने का मंत्र दिया था। हमारे ऋषियों ने हमें वेदों के द्वारा साथ-साथ चलने, साथ-साथ बोलने, साथ-साथ विचार करने और साथ मिलकर ज्ञान का सृजन करने का संकल्प कराया। यहाँ तक कि प्रकृति को माँ मानते हुए उससे जो कुछ भी प्राप्त किया जाए, उसे साथ मिलकर उपयोग करने का संदेश दिया था, इसलिए फिर दोहरा दूँ कि मैंने इस पुस्तक में जिन उपायों की चर्चा की है, वे सब भारत तथा दुनिया के दूसरे भागों के प्राचीन संतों और मनीषियों के संदेशों से ही उपजे हैं।
हम करुणा का वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन ऑफ कंपैशन), कृतज्ञता आपूर्ति की शृंखला (सप्लाई चेन ऑफ ग्रैटिट्यूड), उत्तरदायित्वों का ताना-बाना (इंटरनेट ऑफ रिस्पॉन्सिबिलिटी) और सहिष्णुता का अल्गोरिद्म (अल्गोरिद्म ऑफ टॉलरेंस) अपनाकर कोविड-19 के श्राप को नई सभ्यता के निर्माण के वरदान में बदल सकते हैं।