आज (10 जनवरी) दुनिया भर में विश्व हिंदी दिवस मनाया जा रहा है। यह दिवस मनाने का विचार प्रस्तुत किया था लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी प्रो. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने इस संबंध में एक आलेख लिखा था, जिसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
अभी हाल की ही बात थी प्रवासी हिन्दी उत्सव में ही तो ‘अक्षरम्’ ने शैलेन्द्रजी को विश्व हिन्दी दिवस की संकल्पना देने के लिए सम्मानित किया था। कार्यक्रम में भाग लेने शैलेन्द्रजी पटना से पधारे थे। साहित्य अकादेमी के सभागार रवीन्द्र भवन में जिस समय उन्होंने प्रवेश किया उस समय विदेशों में हिन्दी शिक्षण पर परिचर्चा चल रही थी। संयोग था कि सूरीनाम के विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी विदेशों में हिन्दी शिक्षण सत्र के अध्यक्ष शैलेन्द्रजी थे। कार्यक्रम की व्यवस्था में शैलेन्द्रजी से व्यक्तिगत बातचीत नहीं हुई पर सोचा कि उनका तो दिल्ली आना लगा ही रहता है, फिर मिलेंगे तो अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर हिन्दी को स्थापित करने के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा होगी। अचानक 12 फरवरी को नीरव प्रधान का भोपाल से फ़ोन आया और हृदय गति रुकने से शैलेन्द्रजी के देहान्त की सूचना मिली। सैकड़ों स्मृतियाँ सजीव हो उठीं और साथ ही एक गहरा अवसाद। शैलेन्द्र श्रीवास्तव ने समाज को बहुत कुछ दिया, उनके पास बहुत कुछ और था देने को।
श्रीमती वीणा श्रीवास्तव, उनकी पत्नी बताती हैं कि हिन्दी के अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर और गम्भीरता से विचार करने लगे जब भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने वर्ष 2002 में लन्दन में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन यूरोप में भाग लिया। यद्यपि हिन्दी के अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में उनकी सक्रियता पहले से थी। दिल्ली में 1984 में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में उन्होंने भाग लिया था। 1999 में लन्दन में आयोजित सम्मेलन में भी गये थे। उस सम्बन्ध में एक रोचक घटना का भी उल्लेख करते हैं हवाई अड्डे पर शैलेन्द्र श्रीवास्तव, विष्णुकान्त शास्त्री खड़े थे। सरकारी वाहन जब स्वर्गीय शास्त्रीजी को लेने आया तो विष्णुकान्त शास्त्री ने पूछा कि आपके वाहन की क्या स्थिति है? उसके आने में कितनी देर है तब तक शैलेन्द्रजी को वह सरकारी प्रतिनिधि समझ रहे थे। उन्हें यह नहीं पता था कि सरकारी आपाधापी में इनका नाम कहीं पीछे छूट गया था यहाँ तो पति-पत्नी हिन्दी के प्रति दीवानगी के चलते अपना एक लाख खर्च कर हिन्दी की अन्तर्राष्ट्रीय यात्रा में भागीदारी करने आये थे। सभी सत्रों में उत्साहपूर्वक भाग ले, रिश्तेदारों की मदद से ब्रिटेन में हिन्दी के भविष्य की योजनाएँ बनाते शैलेन्द्र श्रीवास्तव भारत लौटे।
संयोग से उनके पुत्र पारिजात सौरभ की स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की लन्दन शाखा में नियुक्ति हो गयी। मैं भी वर्ष 2000 में भारतीय उच्चायोग लन्दन में पहुंच चुका था उसके बाद तो उनसे घनिष्ठता बढ़ती चली गयी। घर-परिवार, हिन्दी समाज की घण्टों चर्चा होती। वे विचारों में अत्यन्त उदार थे। धीर-गम्भीर कभी भावावेश में नहीं आते। वर्षों का अनुभव ज्ञान स्वाध्याय हर बात की पृष्ठभूमि में रहता। अत्यन्त विनम्र, अपने पद-स्थिति का जरा सा बोध नहीं, बहुत सहज।
एक बार अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन यूरोप के संकल्पों पर मैं और डॉक्टर पद्मेश गुप्त विचार कर रहे थे। संयोग से शैलेन्द्र श्रीवास्तवजी वहाँ आ पहुँचे। संकल्पों पर उन्होंने गम्भीर सुझाव दिये, तदनुरूप प्रारूप में संशोधन किये गये। वर्ष 2002 की लन्दन यात्रा से शैलेन्द्र श्रीवास्तव के मन में एक विचार जन्म ले चुका था कि भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाता है, उसमें भी विशेष जोर राजभाषा के सन्दर्भ में दिया जाता है परन्तु हिन्दी तो करोड़ों लोगों की भाषा है यह सिर्फ भारत में ही नहीं ब्रिटेन, अमेरिका, मॉरिशस, कनाडा, गुयाना, फीजी, दक्षिण अफ्रीका जैसे कितने ही देशों में बोली जाती है। वहाँ रहने वाले हिन्दी के वैश्विक सन्दर्भ से कैसे जुड़ें। 14 सितम्बर को मनाये जाने वाले हिन्दी दिवस की सीमाएँ हैं। हमें हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के लिए विश्व हिन्दी दिवस की संकल्पना को क्रियान्वित करना होगा।
सौभाग्य से सूरीनाम के विश्व हिन्दी सम्मेलन की सलाहकार समिति में उनका नाम था। सूरीनाम के विश्व हिन्दी सम्मेलन में जब अध्यक्षता और सत्रों में बोलने के लिए आपाधापी मची हुई थी, तो वे जैसे कहीं और थे, सिर्फ एक चिन्ता में। उन्होंने औपचारिक रूप से विश्व हिन्दी दिवस मनाये जाने का प्रस्ताव रखा, अनुमोदन किया श्री भगवान सिंह ने, पर प्रस्ताव तो हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने का वर्षों से पारित हो रहा था, प्रस्ताव को लागू भी करवाना था।
फिर उनके मन में विचार शुरू हुए कि कौन-सी तिथि को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में प्रस्तावित किया जाए। क्या प्रवासी हिन्दी दिवस को ही विश्व हिन्दी दिवस घोषित किया जाए? क्या पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन की तिथि को यह दिवस मनाया जाए? कार्यक्रम को क्या स्वरूप दें? कहाँ और किस रूप में मनाया जाए। अपने विचारों को कलमबद्ध करते हुए उन्होंने तत्काल विदेश मन्त्री यशवन्त सिन्हा को 11 जुलाई, 2003 को एक लम्बा पत्र लिखा :
सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने एक प्रस्ताव रखा था जिसे एक मत से पारित किया गया कि वर्ष में एक दिन विदेश मन्त्रालय द्वारा विश्व हिन्दी दिवस का आयोजन कर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान हिन्दी के महत्त्व की ओर आकृष्ट किया जाए। यू.एन.ओ. यूनेस्को एवं भारत सरकार ने किसी विशेष महत्त्वपूर्ण बिन्दु की ओर व्यापक विश्व समुदाय का ध्यान आकृष्ट करने के लिए पहले भी ऐसे दिवसों की घोषणा की है- अन्तर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस, विश्व नाट्य दिवस, साक्षरता दिवस, प्रवासी दिवस आदि, अतः यदि हम किसी एक दिवस को विश्व हिन्दी दिवस घोषित कर उस दिन सारे विश्व में अपने दूतावास और उच्चायोग एवं वाणिज्यिक संस्थानों के माध्यम से इसकी ओर उन देशों का भी ध्यान आकर्षण होगा, जिनके हमारे साथ राजनयिक सम्बन्ध नहीं हैं, पर भविष्य में हो सकते हैं।
जहाँ तक इसके लिए तिथि निर्धारित करने की बात है मैंने 10 जनवरी का सुझाव दिया था क्योंकि 10 जनवरी, 1975 को प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ था जिसके बाद ही विश्व स्तर पर हिन्दी की व्यापक चर्चा होने लगी। ‘अपने पत्र में शैलेन्द्रजी ने विश्व हिन्दी दिवस के भावी स्वरूप आयोजन के तरीकों के बारे में भी विस्तृत सुझाव दिये।
विदेश मन्त्रालय में विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रस्ताव के अनुवर्ती कार्यवाही के सम्बन्ध में समिति के भी वे सदस्य थे। इस विषय को उन्होंने लगातार उठाया और अन्ततः ‘ विश्व हिन्दी दिवस’ की संकल्पना भारत सरकार द्वारा स्वीकार कर ली गयी। वर्ष 2006 में पहली बार 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस मनाया गया।
उन्हें सन्तोष था कि विश्व हिन्दी दिवस के प्रस्ताव को कार्यान्वित किया गया परन्तु भारत में आधिकारिक कार्यक्रम का आयोजन सम्भवतः उसकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं था। मथुरा के किसी सांस्कृतिक दल की प्रस्तुति का कार्यक्रम था, वे चाहते थे इस अवसर का उपयोग कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए चल रहे उद्देश्यों पर विभिन्न उच्चायोग दूतावासों में कार्यक्रम पूरे उत्साह से मनाया गया। में कार्यक्रम हुआ। लन्दन के दूतावास में हिन्दी व संस्कृति अधिकारी राकेश दुबे के संयोजन में कार्यक्रम हुआ। जिसमें श्री रजत बागची, अतुल खरे, श्री भारद्वाज, डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव, गौतम सचदेव आदि हिन्दी के लेखक उपस्थित थे। इसी प्रकार की रिपोर्ट अन्य दूतावासों से भी आयी। ‘अक्षरम्’ ने इस महत्वपूर्ण योगदान को पहचाना और भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, साहित्य अकादेमी और ‘अक्षरम्’ के संयुक्त आयोजन में उन्हें सम्मानित किया। यद्यपि वह सम्मानों वाली मानसिकता और आयु से उबर चुके थे।
उन्होंने एक विचार बीज को जन्म दिया और उसे फल के रूप में परिवर्तित होते देखा। उन्होंने एक विचार की प्रसव पीड़ा को भोगा। यह उनकी हिन्दी भाषा और समाज को महत्त्वपूर्ण देन है परन्तु हम अपनी भाषा के प्रति समर्पित विद्वानों का कहाँ योग्य सम्मान करते हैं। शायद मैं ज्यादा अपेक्षा कर रहा हूँ। हम अपनी भाषा का ही सम्मान कहाँ करते हैं। इस पर बहस फिर कभी। आइए हिन्दी दिवस के प्रणेता का सम्मान करते हैं, उनकी कविता से–
ऐसे भी कोई जाता है / बिना कहे यूँ सोए-सोए / एक साथ सब डूब गये / कहकहे ठहाके / एक साथ सब सुन्न हो गये नाद धमाके / कभी भूल पाऊँगा तुमको अरे/ यायावर / रहेगी याद / यूँ ही बाद के भी बाद / शब्द पके मन आँच में-
डॉक्टर शैलेन्द्र श्रीवास्तव