मेरी प्राणजा,
मैथिली, जनकदुलारी, वैदेही, जानकी
प्रिय उर्मिले,
ये पत्र तो सीता जीजी के लिए है! मेरे इन संबोधनों को पढ़कर यही विचारा होगा न तुमने! मेरी तनया! ये पाती मैंने मेरी उर्मिला के लिए लिखी है। श्री राम सीता, और सौमित्र के वनगमन के पश्चात् मैं तुझे लेने आया था इस आशा को लिए कि मायके में सखियों के मध्य माता के अंक की छाया में तेरा वनवास प्रसन्नता से कट जाएगा पर तुमने मुझे ये कहकर लौटा दिया कि जिनकी आत्माएं जुड़ी हैं उनके लिए विरह कैसा? मै तो मनोयोगिनी हूँ तात! फिर वियोगिनी कैसे बन जाऊं? मेरे सौमित्र तो मेरे कर्त्तव्य में स्वयं को स्थापित करके गये हैं फिर उन्हें छोड़ आपके साथ कैसे आऊँ?
उस समय तो तेरे नेत्रों पर चित्रित होते भावों को पढ़ने की चेष्टा भी न जुटा पाया था ये तेरा पिता किन्तु आज ये आकाश मुझ पर मानी हुआ जा रहा है, त्याग, बलिदान मेरे सम्मुख नतमस्तक खड़े हैं। मेरा भाल गौरव के भार को वहन नहीं करने पाता है इसलिए इस पिता ने अपनी प्राणजा से प्रश्नों के उत्तर की अभिलाषा के लिए ये पाती लिखी है। मेरी राजदुलारी जबसे सिया गोद में आई हमने तो तुझे मांगा ही नहीं था। तू ईश्वर का बिन मांगा वर हमारे अंक में आई थी। तेरी माता सुनैना जब लोरियां सुनाती थी तब तू सिया के बाद ही आती थी। तेरी माता भी सियामुखी होकर वीरगाथायें गाती थी फिर किस गाथा को तूने अपनी मर्यादा मान लिया! चंद्र सी चंचल, उर्मियों से चपल थी तू इसलिए तो तेरा नाम रखा था उर्मिला, तब मुझे कहाँ पता था त्याग बलिदान और मान समष्टि हो मेरे घर उर्मिला नाम से जन्मा है। आज वो सावन के मेघों सी चपल उर्मिला कैसे मानसरोवर सी धीर शान्त प्रशान्त काया सी घर की सेवा करती है ? विदेह तो मुझे कहता है संसार पर तू कैसे अदेह बनी माताओं की टहल करती फिरती है ?
मैं तो राजर्षि कहलाता हूँ, पर तू सन्यासिनी सी कैसे जी गई मेरी बच्ची? जब मेरे आँगन से बेटियों की डोली उठी थी तो ये विदेहराज भी सदेह हो विलाप कर उठा था, पर मेरी बिटिया! तू कहाँ से लाई इतना साहस? जाते पति को सेवा का धनुष सौंपकर विदा करते हुए अपने लिए अश्रुहीन रहने का अभिशाप सिर्फ इसलिए सहर्ष अंगीकार कर लिया ताकि उस सेवाव्रती लक्ष्मण के पग तुम्हारे अश्रुओं से कहीं क्षण मात्र को भी ना डिग पायें। मिथिला की अल्हड़ राजकुमारी मैथिली अयोध्या की सेविका बनकर खुद पर मानी हो जाती है, कौन है तू मानुषी है? देवी है? या उससे भी वृहद् कोई शक्ति?
लोग कहते हैं सिया नारायणी है पर वो भी तो प्रिय वियोग न सह पाई और तू कर्त्तव्यों की गठरी में प्रिय को बांधे महलों में वनवासी कर्त्तव्य कैसे जिया करती है? वहाँ वन में सेवा का रूप धरे सौमित्र भाई के चरणों में जीते मरते हैं, यहाँ तू सेवाप्रिया बनी नित अपने प्राणों को होम अयोध्या को श्वास दिया करती है। देव भी विह्वल हैं तेरा ये रूप देख, माता तेरी विचलित हैं तेरा बलयोग देख। आज इस आकाश के ध्रुव तले नक्षत्रों की छाया में कहता हूँ, सिया सम्मान होगी तो कुल का गौरव मेरा मान मेरी नन्ही धिया अब तुझसे ही होगी इस वंश की पहचान।
न्याय अन्याय से परे मूक रेखा सी तूने एक शब्द न कहा जब भरत के साथ राम को लाने सब वन को गये थे, तो तू भी हो आती चौदह वर्षों के लिए कुछ श्वांसे तो ले आती लेकिन किसी ने तेरे बारे में कुछ न बिचारा। मैं भी तो था पर मैंने भी तनिक नहीं सोचा, सीता की पीड़ा के समक्ष कुछ अन्य नहीं देखा मैंने। जब लौटकर तेरी ये निरीह निश्रांत आँखें देखी हैं तो खुद पर धिक् करता हूँ कि हा! मैनें ही सोच लिया होता, तुझको संग ले लिया होता।
जब तेरी माँ ने पूछा कैसी है मेरी उर्मिल? तब उनसे बस इतना ही कह सका मैं कि वो वायु के वेग सी तुम्हारी उर्मिल अपने आंचल से ढांक दीपों को जीवन देती दिन रात सौमित्र को शक्ति दिया करती है। अब तेरी धिया महलों में वनवासी होकर जिया करती है। सिसक रही है माता तेरी पर तू व्यथित नहीं होना बेटा, मैंने उन्हें बताया है कि अयोध्या के मौन परकोटों में तेरे वनवासी होने की चर्चा है पर राग रागनियाँ मौन खड़े तेरा वन्दन करते हैं, लक्ष्मण का स्पर्श लिए हवाएं तुझमें श्वासें भर देती हैं। तेरी माता पूछ रही हैं बेटा! फूस के बिछौने पर तू सोती तो है या फिर तू भी निद्रा देवी को रोज नमन कर विदा कर देती है? कंदमूल का भोजन करती है या भोग लगा थाली सरका देती है? तू मेरा गौरव है मेरी बिटिया आज इस पिता के भाल के सम्मुख हिमालय भी झुका जा रहा है। दूर-दूर से आती हैं स्त्रियां तेरी माता की चरणरज लेने, अपने नौनिहालों को क्षीर का अमृत पिलाने। काल तुझको भले भूल जाए पर तू इस रज का अस्तित्व बनी अमरत्व बनेगी, सीता उपमा होगी पर तू अनुपमेय रहेगी। अबसे मान, बलिदान, त्याग तुझसे परिभाषित होंगे ये विदेह का वर है। इतिहास तुझको जानकी कहे न कहे पर तू वैदेही है वैदेही रहे, ये मेरा वरदान है, मेरे अंक का तू ईश्वरीय मान है।
अब और लिखूंगा तो यह पत्र भी बिलख उठेगा, तेरी पीड़ा को लेकर मुझसे झगड़ पड़ेगा। अंत में और क्या कहूँ बेटा! खुश रहे तू ये भी नहीं कह सकता, चिरंजीवी हो ये कामना भी मैं नहीं कर सकता, तेरे लिए आज सभी वर छोटे हैं पर इस पत्र को पढ़कर तू मुझे वरदान देना जब-जब इस धरा पर आना तू मेरी बिटिया बन मुझको सम्मान देना। माता की चिंता नहीं करना अब तेरी माँ नहीं रोती, कहती है यदि एक अश्रु भी बह जायेगा, मेरी जाया का गौरव धुल जाएगा । वो भी दीपक को आड़ किये तेरी रखवाली करती है।
अयोध्या की वधू, सौमित्र की प्रिया को मेरा कोटि-कोटि नमन, मेरी प्राणजा, मेरी बिटिया पर मेरा प्राणसिंचन ।
तुम्हारा मानी पिता
जनकराज, उर्मिलातात विदेह