1.
जब तक रहेंगे मुल्क
जब तक बनी रहेंगी सीमाएँ
जब तक दो मुल्कों के बीच होगी
बंदूकों की तैनाती
जब तक परीक्षण को बेताब होंगी हथियारें
तब तक एक रेखा के पार के लोग
नहीं माने जाएँगे मनुष्य
नहीं होंगे उनके कोई भी अधिकार
वहाँ न होगा प्रेम न होंगी भावनाएँ
क्योंकि वैश्विक संबंध
क्रूर स्वार्थों पर टिके होते हैं
निश्चल भावनाओं पर नहीं
जब तक तमाम मुल्कों में चलेंगी
चौधरी बनने की प्रतिस्पर्धाएँ
तब तक परिणति केवल जंग ही होगी
जो मारे जाएँगे
वे अपने महत्वाकांक्षी राजा के स्वार्थ की बलि चढ़ेंगे
और जो बच जाएँगे
वे कई पीढ़ियों तक युद्ध के दुष्परिणामों को भुगतेंगे
***
2.
नफरत की किस हद को पार करना चाहोगे तुम
उस हद तक
जहाँ तुम्हारे चारों तरफ तैरती हुई लाशें मिलेंगी
जहाँ हर एक मजहब दूसरे पर पत्थर बरसाएगा
या फिर मोहल्ले से गुजरते वक़्त
एक जेब में नमाजी टोपी
और दूसरे में पगड़ी और टीका होगा
जहाँ कोई तिरंगा नहीं
बल्कि पृथक हरा और भगवा होगा
क्या तुम फिर से उसी रास्ते पर चलने को आतुर हो
जहाँ से खींचकर लाए थे
इस आज़ाद और अमन के दौर में हमें पुरखे हमारे
क्या भूल गए वो मंजर
जब देखकर सलवार और साड़ी
नोची-खसोटी जाती थीं औरतें
सिर पर टोपी, पगड़ी और टीका
तय करती थीं
किसके गर्दन पर होगी तलवार
भूल गए हो तो याद कर लो
क्या तुम फिर से
भारत के सीने में लगे उन घावों को
कुरेदने चले हो बन निष्ठुर
बनना है तो गांधी बनो
हर नफरत को प्यार में बदलने का हुनर रखो
मैं कहना चाहूँगी
मुल्क की उन तमाम औरतों से
मजहब कभी तुम्हारा पेट नहीं भर सकता
मजहब तुम्हें आजादी नहीं दिला सकता
आज तुम अपने पिता के सिर का बोझ
कल पति नाम की बैसाखी होगी
अगर तुम्हें उड़ना है
तो अपने पैरों पर चलना होगा
अपने मजहब को शिक्षा पर हावी मत होने दो
मजहबी बातें भरे पेट के चोंचले हैं
भूखे का मुल्क और मजहब दोनों ही रोटी होता है
***
3.
लड़कियो
तुम कोई बिजली नहीं गिराती
जिसे देख किसी के हृदय में कंपन उठे
न ही कोई चिकनी चमेली हो
जिसकी महक से कोई बेकाबू हो जाए
न हीं कोई खाने का आइटम
जिसे कोई गटक जाए
न ही कोई भोग की वस्तु
जिससे कोई अपनी भूख-प्यास मिटाए
जरूरी नहीं
तुम अपने पैरों के बाल हटाओ
शॉर्ट्स पहनने के लिए
जरूरी नहीं कि तुम दिखो खूबसूरत
किसी का प्यार पाने के लिए
जरूरी नहीं तुम बनो परफेक्ट
लोगों की बेतुकी तारीफों के लिए
तुम्हारी आबरू तुम्हारे कपड़े नहीं
तुम्हारा काम
तुम्हारा व्यवहार है
तुम घर में सजानेवाली कोई चीज नहीं
धूप से बचकर रहने वाली कोई पदार्थ नहीं
बल्कि अपने अस्तित्व की खोज में
धूल-घाम खानेवाली
हालातों से भिड़नेवाली
एक योद्धा हो
तोड़ दो वो सारे मानदंड
जो तुम्हें बाँधते हो किन्हीं बेतुके नियमों से
तुम्हारा किरदार किसी सभ्यता की प्रगति में
मूकदर्शक बनना नहीं
बल्कि उस मैदान में माहिर खिलाडी़ बनना है!
***
4.
मर्दानगी की असल परिभाषा
वे चुनिंदा मर्द देते हैं
हाँ वही मर्द
जिन लड़कियों के सोच से उन्हें समस्या होती है
वे सबसे पहले उनके शारीरिक ढाँचे पर ताने कसेंगे
उनके चरित्र का विश्लेषण करेंगे
वे बेचारे उन औरतों को अपनी बातों से डराने की कोशिश करेंगे
पर वो बदचलन लड़कियाँ कहाँ माननेवाली हैं
बेशर्मों की तरह बेबाक आगे बढ़ती ही जाती हैं
पर वो भूल जाते हैं एक बात
जब वो किसी औरत को
अपने शब्दों से नंगा करने की कोशिश करते हैं
तब वे खुद
अपनी ही घटिया सोच का
नंगा प्रदर्शन कर रहे होते हैं!
***
5.
क्या कभी उन मलिन बस्तियों से
कोई सरकारी गाड़ी नहीं गुजरी होगी
क्या उन कूड़े के ढेर में पड़े लोगों से
कभी कोई नेता वोट माँगने नहीं गया होगा
क्या उन्होंने नहीं सोचा
एक स्वच्छता अभियान
इस गंदगी से भरे बियाबान में भी होना चाहिए
क्या हमारे नेताओं को नहीं पता
स्वदेश सिर्फ रोजगार के लिए ही नहीं
बल्कि भीख माँगने के लिए भी छोड़ा जाता है
क्या इस विकास के चकाचौंध में
उन्हें धूमिल होती जिंदगियाँ
सच में नहीं दिखाई देती
क्या वो उन रास्ते से कभी गुजरे ही नहीं
या फिर उनके काले चश्मे को
चकाचौंध राजा के देश में
अँधेर नगरियाँ दिखाई नहीं देती
कहीं राजा के आने पर
उन बदसूरत बस्तियों के सामने
कोई सुंदर सी दीवार तो नहीं उठा दी जाती
ये सवाल कौन पूछेगा
जिस देश के प्रधानमंत्री की सुरक्षा पर
रोजाना करोड़ों खर्च होते हैं
उस देश में आखिर एक आम आदमी की क्या कीमत होगी
आखिर इस उजड़े चमन का जिम्मेदार कौन है
वो मीडिया जो चौबीस घंटे तैयार रहती है
टीआरपी मसाला के साथ
वे लोग जो
लोक सेवा की परीक्षाएँ देकर
अब सरकारी सेवक बन चुके हैं
जो लोग सरकारी तलवे चाटते हैं
दरअसल वो अपने ही लोगों के
पेट पर लात मारते हैं
जब तक एक भी जिंदगी रौशनी से दूर है
तब तक ये सवाल कौन पूछेगा उनसे???
***
6.
देखकर स्थिति वर्तमान की
याद आ रही एक पंक्ति धूमिल की
यहाँ लोकतंत्र एक तमाशा है
जिसमें बंदर की जान मदारी की भाषा है
जब फैलेगी चुनावी सनसनी
तब नापेंगी वीआईपी गाडियाँ
संसद से लेकर गाँवों की गलियाँ
चौथे स्तंभ की तो बात ही निराली
जलवायु हो या बेरोजगारी
अशिक्षा हो या महामारी
सारे ज्वलंत मुद्दे झोला लेकर चल दिए
बाकी चैनलों पर तो है
सीटों की मारा-मारी
जन सूचना अधिकार का
न जाने क्या आलम यहाँ
हम लोकतंत्र हैं
या बस एक भीड़ हैं
हम स्वतंत्र हैं
या चराए जा रहे झुंड में
इस बात का भी इल्म नहीं
बस राष्ट्रवाद का तंबू ताने
अतीत का गुणगान करके
हम विश्व गुरु बनते यहाँ
यहाँ सचमुच लोकतंत्र एक तमाशा है
जिसमें बंदर की जान मदारी की भाषा है