1.
कैसे लिखूँ?
प्रेम लिखूँ! हठ बौराया है
कैसे शब्दों का टोकना लिखूँ?
उपमा उत्प्रेक्षा का रूठना
कैसे स्मृतियों में ढ़ूँढ़ना लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
मनोभावों के झोंके को
ठहरे जल में उठती हिलोरों को
कैसे कुहासे-सी चेतना लिखूँ?
अकेलेपन के अबोले शब्द
अधीर चित्त की छटपटाहट
उफनती भावों की नदी को
कैसे अल्पविराम पर ठहरना लिखूँ?
इक्के-दुक्के तारों की चमक
गोद अवचेतन की चेतना
अकुलाहट मौन हृदय की
कैसे रात्रि का सँवरना लिखूँ?
निरुत्तर हुई व्याकुलता
अंतर्भावना वैराग्य-सी
प्रेमी प्रेम का प्रतिरूप
कैसे मौन स्पंदन में डूबना लिखूँ?
2.
विरह
समय का सोता जब
धीरे-धीरे रीत रहा था
मैंने नहीं लगाए मुहाने पर पत्थर
न ही मिट्टी गोंदकर लगाई
भोर घुटनों के बल चलती
दुपहरी दौड़ती
साँझ फिर थककर बैठ जाती
दिन सप्ताह, महीने और वर्ष
कालचक्र की यह क्रिया
स्वयं ही लटक जाती
अलगनी पर सूखने
स्वाभिमान का कलफ अकड़ता
कि झाड़-फटकारकर
रख देती संदूक के एक कोने में
प्रेम के पड़ते सीले से पदचाप
वह माँझे में लिपटा पंछी होता
विरक्ति से उनमुख मुक्त करता
मैं उसमें और उलझ जाती
कौन समझाए उसे
सहना मात्र ही तो था
ज़िंदगी का शृंगार
विरह मुक्ति नहीं
इंतज़ार का सेतु चाहता था।
3.
नेमप्लेट
मुख्य द्वार पर लगी
नेमप्लेट पर उसका नाम है
परंतु वह उस घर में नहीं रहता
माँ-बाप, पत्नी; बच्चे रहते हैं
हाँ! रिश्तेदार भी आते-जाते हैं
कभी-कभार आता है वह भी
नेमप्लेट पर लिखा नाम देखता है
नाम उसे देखता है
दोनों एक-दूसरे को घूरते हैं
कुछ समय पश्चात् वह
मन की आँखों से नाम स्पर्श करता है
तब माँ कहती-
“तुम्हारा ही घर है, मैं तो बस रखवाली करती हूँ।“
पत्नी देखकर नज़रें चुरा लेती है
और कहती है-
“एक नाम ही तो है जो आते-जाते टोकता है।”
वह स्वयं को विश्वास दिलाता है
हाँ! घर मेरा ही है
बैग में भरा सामान जगह खोजता है
साथ ही फैलने के लिए आत्मविश्वास
ज्यों ही परायेपन की महक मिटती है
फिर निकल पड़ता है उसी राह पर
सिमट जाना है सामान को उसी बैग में
कोने, कोनों में सिमट जाते हैं
दीवारें खड़ी रहती हैं मौन
चप्पलें भी करती हैं प्रश्न
नेमप्लेट पूछती है कौन?
पहचानता क्यों नहीं कोई?
डाकिया न दूधवाला और न ही अख़बारवाला
कहते हैं- “सर मैम को बुला दीजिए।”
स्वयं को दिलाशा देता
“हाँ! मेरा नाम चलता है न।”
सभी नाम से पहचानते हैं मुझे
स्वयं पर व्यंग्य साधता
हल्की मुस्कान के साथ
कहता- ”घर तो मेरा ही है!
हाँ! मेरा ही है! परंतु मैं हूँ कहाँ?”
4.
ग्रामीण औरतें
ये कागद की लुगदी से
मटके पर नहीं गढ़ी जाती
और न ही
मिट्टी के लोथड़े-सी चाक पर
चलाई जाती हैं।
माताएँ होती हैं इनकी
ये ख़ुद भी माताएँ होती हैं किसी की
इनके भी परिवार होते हैं
परिवार की मुखिया होती हैं ये भी।
सुरक्षा की बाड़ इनके आँगन में भी होती है
सूरज पूर्व से पश्चिम में इनके लिए भी डूबता है
रात गोद में लेकर सुलाती
भोर माथा चूमकर इनको भी जगाती है।
गाती-गुनगुनाती प्रेम-विरह के गीत
पगडंडियों पर डग भरना इन्हें भी आता है
काजल लगाकर शर्मातीं
स्वयं की बलाएँ लेती हैं ये भी।
भावनाओं का ज्वार इनमें भी दौड़ता है
ये भी स्वाभिमान के लिए लड़ती हैं
काया के साथ थकती साँसें
उम्र के पड़ाव इन्हें भी सताते हैं।
छोटी-सी झोपड़ी में
चमेली के तेल से महकता दीपक
सपने पूरे होने के इंतज़ार में
इनकी भी चौखट से झाँकता है।
सावन-भादों इनके लिए भी बरसते हैं
ये भी धरती के जैसे सजती-सँवरती हैं
चाँद-तारों की उपमाएँ इन्हें भी दी जाती हैं
प्रेमी होते हैं इनके भी, ये भी प्रेम में होती हैं।
5.
दुछत्ती
मन दुछत्ती पर अक्सर छिपाती हूँ
अनगिनत ऊँघती उमंगों की चहचाहट
एहसास में भीगे सीले से कुछ भाव
उड़े-से रंगो में लिपटी अनछुई-सी
बेबसियों का अनकहा-सा ज़िक्र
व्यर्थ की उपमा पहने दीमक लगे
भाव विभोर अकुलाए-से कुछ प्रश्न
ढाढ़स के किवाड़ यवनिका का आवरण
कदाचित शालीनता के लिबास में
ठिठके-से प्रपंचों से दूर शांत दिखूँ
ऊँघते आत्मविश्वास का हाथ थामे
उत्साह की छोटी-छोटी सीढ़ियों के सहारे
अनायास ही झाँक लेती हूँ बेमन से
कभी-कभार मन दुछत्ती के उस छोर पर
उकसाए विचार चेतना के ज्वार की सनक में
स्वयं के अस्तित्त्व को टटोलने हेतु।
6.
सुराही पर
बहुत दिनों से बहुत ही दिनों से
सुराही पर मैं तुम्हारी यादों के
अक्षर से विरह को सजा रही हूँ
छन्द-बंद से नहीं बाँधे उधित भाव
कविता की कलियाँ पलकों से भिगो
कोहरे के शब्द नभ-सा उकेर रही हूँ।
उपमा मन की मीत मिट्टी-सी महकी
रुपक मौन ध्वनि सप्त रंगों-सा शृंगार
यति-गति सुर-लय चितवन का क़हर
अक्षर-अक्षर में उड़ेला मेघों का उद्गार
शीतल बयार स्मृतियों के पदचाप
मरु ललाट पर छाँव उकेर रही हूँ।
प्रीत पगे महावर संग मेहंदी का लेप
काँटों की पीड़ा कलियों से छिपाती
अनंत अनुराग भरा घट ग्रीवा तक
जगत उलाहना हँस-हँस लिखती
किसलय पथ उपहार जीवन का
वेदना उन्मन चाँद की उकेर रही हूँ।
7.
अबोलापन
अबोलापन
बाँधता है
संवाद से पहले
होनेवाली
भावनाओं की
उथल-पुथल को
साँसों की डोरी से।
मौन भी काढ़ता कसीदा
आदतन विराजित
एक कोने में
संवादहीनता ओढ़े
दर्शाता हृदय की गूढ़ता को।
भाव-भंगिमा का
बिखराव
एहसास के सेतु पर अकुलाहट
समयाभाव
अपेक्षा का ज्वार
गहरे
बहुत गहरे में
है डूबोता।
8.
समय दरिया
समय दरिया में डूब न जाऊँ माझी
पनाह पतवार में जीवन पार लगाना है
भावनाओं के ज्वार-भाटे से टकरा
अंधकार के आँगन में दीप जलाना है।
शांत लहरों पर तैरते पाखी के पंख
परमार्थ के अलौकिक तेज से बिखरे
चेतना की चमक से चमकती काया
उस पाहुन को घरौंदे में पहुँचाना है।
चराचर की गिरह से मुक्त हुए हैं स्वप्न
शून्य के पहलू में बैठ लाड़ लड़ाना है
अंतस छिपी इच्छाओं का हाथ बँटाते
आवरण श्वेत जलजात से करना है।
नदी के गहरे में बहुत गहरे में उतर
अनगढ़ पत्थरों पर कविता को गढ़ते
सीपी-से सत्कर्म कर्मों को पहनाकर
झरे मृदुल वाणी ऐसा वृक्ष लगाना है।