1.
आख़िर कब तक
नहीं बिखेरना चाहता है अब सूरज
सुबह-शाम आसमान में सिंदूरी आभा
खिलते हुए गुलाब भी
दर्ज़ करवा रहे हैं प्रतिरोध ईश्वर से
अपनी पँखुड़ियों के लाल होने की
गाँव की गौरी को नहीं भा रहा है
अपने कपोलों पर रक्तिम रंग
सधवाओं के हाथ काँपने लगे हैं
अपनी माँग को सिंदूर से सजाते हुए
रसोई में माँ भरने लग जाती हैं सिसकियाँ
सब्जी के मसालों में देखकर सूखी सुर्ख़ मिर्च
लाल स्वयं हो गया लामबंद
अब अपने लालित्य पर
यह विरोध लिखते-लिखते
और शांति की अपील करते-करते भी
क़लम किए जा रहे हैं
निर्दोषों के सर भीषण युद्धोन्माद में,
इस रक्तपात के बीच
कलम से लाल स्याही की जगह
रिसने लग गया है अब रक्त
फिर भी अपनी हठधर्मिता पर अड़ा है
तानाशाही तख़्त
आखिर!
कब तक, गुमराह होते रहेंगे
और कब तक स्वीकारते रहेंगे कि
अस्वीकार्यता और प्रतिरोध का
अंतिम विकल्प युद्ध होता है।
★★★
2.
भाषायी भागीरथ आगे आएँ
जब देखता हूँ
मैं अपने चारों ओर
वैमनस्य का वातावरण,
घृणा की घिनौनी करतूतें,
हिंसा भरी हरकतें
द्वेष से उठती दीवारें
असंतोष से उपजी आसुरी प्रवृतियाँ
तब सोचता हूँ कि
अब भाषायी भागीरथ आगे आए
और तपस्या करें
पापनाशिनी की बजाय
जन-जन में
प्रेम-प्रस्फुटनी नव-मंदाकिनी के महि पर आह्वान हेतु।
अब लोगों के पाप से उन्मोचित होने से
ज्यादा आवश्यकता है
प्रेम, प्रीत, स्नेह से संपृक्त होने की
आत्मा की अमरता से ज्यादा
अनुराग से आसक्त होने की।
★★★
3.
समझौता
जीवन में व्यक्ति
कई बार कर लेता है
कुछ हठ और
जकड़ लेता है खुद को
जिद की बेड़ियों में
इस मूढ़ाग्रह-वश
नहीं रखना चाहता है
कोई संसक्ति किसी भी
तरह के समझौते से
वह खड़ा रहता है
अपने दुराग्रह के साथ
वह अड़ा रहता है
अपने अड़ियलपन के साथ
‘जीवन की अनिवार्यता है समझौता’
किंतु इसे अस्वीकारें
वह चलता रहता है
अपने इच्छित प्राप्य की
अभीप्सा लिये
समय-चक्र की गति संग
बीतते जाते हैं
दिन और रात
हठ नहीं त्यागने पर
अंततः करना ही होता है
उसे मनस्-प्रतिकूल मनोरथों
के साथ समझौता
इसलिए समय रहते
व्यक्ति को त्यागकर
अपनी हठधर्मिता
स्वीकार कर लेनी चाहिए
समझौते की अनिवार्यता
ताकि प्राप्तियाँ मनोनुकूल हो
और बचा जा सके
विमुख वांछा व
अन्यमनस्क आकांक्षा से
उपजी व्याकुल कुंठाओं से।