शहर काफी बड़ा था। हर बड़े शहर की तरह यहॉं भी हर ओर लोग ही लोग थे। सब एक दूसरे को अनदेखा करके अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जाते। किसी की नजर किसी से जुड़ती नहीं थी। हालॉंकि चलते वक्त कभी-कभार जरूर टकरा जाते थे। ऐसा होने पर वे एक दूसरे से माफी मॉंगने के लिए रुकते नहीं थे।
लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए बसें, ऑटो, टैक्सी, प्राइवेट गाडि़यॉं बड़ी तादाद में थीं। सड़कें अजगर की तरह दूर तक पसरी रहतीं। कितना भी ट्रैफिक ऊपर से गुजर जाए उफ्फ तक नहीं करतीं।
हर वर्ग के लोग यहॉं रहते थे। शहर सभी को उनकी आमदनी और कार्य के हिसाब से जीने की सहूलियत देता था। इसलिए तो आलीशान कोठियों-बॅंगलों व आरामदायक फ्लैट के साथ अवैध कॉलोनियों की दुर्गंधयुक्त नालियों के किनारे बसेरे थे। झुग्गियों में मानवता का एक भाग पॉंव सिकोड़कर पनाह लेता। सड़क व बाजार में ये सभी नजर आते। इसका यह मतलब नहीं कि शहर समावेशी था। दरअसल प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग जी रहा था। सबसे अलग होकर।
मैं खुशकिस्मत था जो एक ठीक-ठाक नौकरी पा गया। शहर के केन्द्र से कोई दस-बारह किलोमीटर दूर रिहाइश भी सही थी। किराया वाजिब एवं जेब के अनुकूल था। बड़े शहरों के लिए दस-बारह किलोमीटर क्या चीज है। लोग दूसरे शहरों से रोज काम पर आते हैं। सड़क के दोनों ओर सजी-धजी दुकानें व शोरूम मन को ललचा रहे थे। वैसे बाहर फुटपाथ पर भी सामान बिछाकर लोग बेचने के लिए मौजूद थे। मैं दूर से ही अपनी हैसियत और जरुरत की चीजें भॉंपने की कोशिश कर रहा था। एक शोरूम के सामने खड़ा होकर शीशे के पीछे सजायी शर्ट और टाई निहारने लगा। देखने में कोई बुराई नहीं है। विंडो शॉपिंग हो जाएगी। हिम्मत करके कुछ देर बाद अन्दर चला गया। उस दिन अच्छे कपड़े धारण कर रखे थे। दूसरे ग्राहकों में व्यस्त होने के बावजूद सेल्समैन ने मेरी तरफ देखा। एक मुस्कान भी फेंकी। मैं उपेक्षा से जितना आहत होता हूॅं उतना ही स्वागत से भी घबराता था। पहले से तैयारी करके नहीं आया था कि क्या कहना है। फिर भी कुछेक शर्ट उलटे-पुलटे। यहॉं सेल्समैन की व्यंग्य भरी मुस्कान मन पर क्षणिक घाव लगाती है पर एअर कंडीशण्ड शोरूम से बाहर आकर हम पूर्ववत हो जाते हैं।
आज खाली होने के कारण मैं भरे बाजार से निकलकर अपेक्षाकृत खाली सड़क पर टहलने लगा। निरुद्देश्य नहीं बल्कि तफरीह के लिए। सहसा लगा कि एक आदमी मेरे पास चल रहा है। मैंने ध्यान नहीं दिया। आखिर मेरी ओर भी कौन ध्यान देता है। लेकिन जब यह लगा कि वह व्यक्ति अपनी निगाहें देर से मुझ पर गड़ाए भी हुए है तो जाहिर था कि मैं आशंकित हो उठा। पलटकर उसकी तरफ देखा तो पाया कि वह मुझे ताक रहा था। पूछने का मन हुआ कि कहिए क्या बात है। वह व्यक्ति खुद बोला। “लगता है कि आपको पहले देखा है।” मैं चौंककर सावधान हो गया। यह क्या बला है? जेबकतरे वगैरह भीड़ में हाथ की सफाई दिखाकर अन्तर्धान हो जाते हैं। राहजनी करनेवाले इतनी देर में अपना काम करके निकल जाते। यह शख्स तो पीछे पड़ा हुआ है। जरूर कोई ठग होगा। खैर मैं कौन सा मूर्ख परदेशी हूॅं जो उल्लू बना देगा। फिर वह भी अकेला और मैं भी। उसका कोई दूसरा साथी नहीं दिख रहा था।
मैंने बेहद गंभीरतापूर्वक रुखाई से कहा, “जी नहीं आपको गलतफहमी हुई है। मैं आपको नहीं जानता।” मुसीबत सर पर पड़ने पर इंसान काफी साहसी हो जाता है। सहसा मैंने पाया कि शहर बिल्कुल सुनसान हो गया है। वक्त पर यहॉं कौन किसकी मदद करता है।
वह फिर भी साथ चलता रहा। मैंने गौर किया कि वह लगभग मेरी कद-काठी का था। शायद उन्नीस ही होगी। कपड़े थोड़े गन्दे थे। अगर इतना ही रसूख वाला होता तो क्या ऐसे किसी के पीछे पड़ता। देखा जाए तो वह कोई इतना बड़ा दादा टाइप नहीं दिखता था। लेकिन चार सौ बीस होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता था। मैं सतर्क था। शाम ढलकर रात का रुप ले रही थी। “इंसान इंसान पर भरोसा नहीं करता है।” उसी ने पुन: शुरुआत की।
“सो तो है।” मेरे मुॅंह से भी निकल गया। “लेकिन इसमें किसी का क्या दोष। वक्त ही ऐसा है। किसी का जान-माल सुरक्षित नहीं है।”
वह सहमति में सर हिलाने लगा। अंधेरे में मुझे वह ज्यादा जरूरतमंद लग रहा था। शक्ल ध्यान से देखने पर उसकी दाढ़ी दो दिन की बढ़ी हुई दिखी। आदमी उम्रदराज था। कनपटियों के बाल खिचड़ी हो चुके थे।
एक गली में घुसकर मैं चाय की दूकान पर खड़ा हो गया। वह भी रुक गया। बेंच पर बैठकर मैंने दूकानवाले से चाय को कहा। पेशोपेश में था कि उसे चाय के लिए पूछूॅं या नहीं। आखिर कौन सा उसे जानता हूॅं। वह खुद ही बेंच पर बैठ गया। दुकानदार ने हमें साथ देखकर बिना कहे एक नहीं दो कप थमा दी। “भाईसाहब!” वह शिष्ट लहजे में बोला। ”मेरा एक दोस्त बिलकुल आपके जैसा है। माफ कीजिएगा। शुरू में इसलिए पहचानने में गलती हुई। मुलाकात हुए काफी समय गुजर गया। हम लोग इकट्ठे काफी वक्त गुजारा करते थे।”
“वह क्या आपके साथ काम करता था?” मैंने यूॅं ही पूछ लिया। “अरे नहीं।” उसने चाय की चुस्की लेनी प्रारम्भ कर दी थी। “बस हम ऐसे ही मिलते थे। कोई कारोबारी बातें नहीं होती। अपने-अपने मन की बातें करते। घंटों। जी हॉं…। जो बातें इंसान पत्नी-बच्चों, मॉं-बाप से नहीं कर पाता वे सब हम एक-दूसरे से करते थे।” वह दूर कहीं नजर गड़ाकर मुस्करा रहा था।
“मन का मीत कहिए।” मैं यह सब सुनकर हठात बोल उठा। उसने चाय का कप नीचे रखकर तर्जनी हिलाते हुए कहा। “हॉं बिल्कुल सही कहा। ऐसा ही दोस्त था मेरा।” वह मानो उदास हो गया। “ऐसी न जाने कितने कप मैंने उसके साथ पी थी। समझिए कि चाय पीना एक बहाना था। साथ में कभी एकाध मठरी खा ली। बात साथ वक्त गुजारने की थी।” वह विगत को वर्तमान में जीने का प्रयास कर रहा था।
“दुनिया में एक भी अगर इस लायक मिल जाए जिससे मन की बात कह सके तो जिंदगी खाली-खाली नहीं लगती। वह भी आपकी तरह बिल्कुल फिलॉसफर था।” वह जोर देकर बोला।
“मैं और फिलॉसफर…?” मुझे ताज्जुब हुआ। “मतलब आप भी गहरी बात करते हैं।”
“स्कूल में भी आपका कोई साथी होगा?” मैंने पूछा।
“जी, ढेर सारे थे। बात यह है कि बचपन में पूरा स्कूल का कैम्पस, घर का अहाता, सड़कें ओर गलियॉं-पूरा माहौल मेरा साथी था। सच पूछिए तो बचपन में हम सबका आसपास के माहौल से अपनापन होता है। बाद में सब बदल जाता है।” चाय की दूकान की मंद रोशनी में वह अब किसी भी द्दष्टि से संदेहास्पद नहीं प्रतीत हो रहा था। उलटे मुझे उसमें अपना अक्स दिख रहा था।
“मेरा बचपन तकलीफ में बीता।” वह बिना पूछे अधिकारपूर्वक कहने लगा। “घर में गरीबी थी। आमदनी का जरिया बढ़ाने के लिए पढ़ाई के साथ मुझे काम पर भी लगना पड़ा। एक रोज की बात है पार्क में दोपहर को थक कर सो गया था। वहॉं ताश खेलनेवालों की मंडली बैठती थी। उन्होंने टॉंग खींचकर मुझे दूर कूड़े के ढ़ेर के पास कर दिया। मैं बेखबर सोया रहा। बाद में शाम को पुलिस वाला आया और दो डंडे जमाए। बड़ी मुश्किल से ईमान की दुहाई देकर मैं हवालात जाने से बचा। नहीं तो मॉं-बाप को जमानत कराने में एकाध बचे गहने बेचने पड़ जाते। जेब में पड़ी चने की पुडि़या तक वे ले गए।” सहसा वह मुझे बेहद गरीब लगने लगा।
उसने आगे सुनाना शुरू किया। “अपने उस दोस्त की संगत में मुझे पुरानी उदासी वाली यादों से छुटकारा मिलने में काफी मदद मिली।” मैंने चाय के पैसे अदा करने के लिए जेब में हाथ डाला। “नहीं।” उसने चाय वाले को हाथ से इशारा किया। “बाबूजी से पैसे मत लेना।” सचमुच में उसने मेरे पैसे नहीं लिए। उस आदमी के पकड़ाए नोट को रख लिया।
हम दोनों साथ उठे। वह अभी भी चल रहा था। पर अंदाज जुदा था। अब वह अपने रास्ते जाना चाहता था। सड़क के किनारे गलियॉं मिलनी शुरू हो गयी थीं। “आपका दोस्त अभी कहॉं है?” मेरे इस प्रश्न के उत्तर में वह हॅंसा। “पता नहीं बाबूजी कहॉं पर है…आज मुझे वह आप में दिखा।” वह एक गली में घुस रहा था। मैं उसे जाते देखता रहा।
उसने मुझमें अपने अतीत के दोस्त को देखा था। पर मैं उसे जाते वक्त उसमें स्वयं को देख रहा था। उसके चले जाने के बाद सड़क का सूनापन मन के रीतेपन का ही स्वाभाविक विस्तार लगा। नीरवता कह रही थी कि मानो वह कभी था ही नहीं। पर मन के किसी कोने में यह लग रहा था कि वह हमेशा ही था। शहर में उसके और मेरे जैसे बहुत से होंगे जो ऐसे ही किसी दोस्त को ढूढ़ रहे होगे या जिन्हें दोस्त की जरूरत है।