अलविदा जब भी
अलविदा लिखने के लिए
लिखा ‘अ’
हाथ कँपने लगे
‘अ’ के अकेलेपन को हर बार बदलकर ‘आ’ किया
औऱ पूरा किया वाक्य ‘आ जाओ’
पर
तुम कभी नहीं आई
औऱ
मैं कभी नहीं लिख सका अलविदा।
***
2.
चुप्पी
{1.}
‘चुप्पी’ को मत पकाना
बहुत देर
‘अहं’ की आँच पर
किसी खास समय के इंतेजार से ठीक पहले
थोड़ी कोशिशों के सहारे
उतार लेना
हांडी…
जल जाती हैं रिश्तों की नाजुक उँगलियाँ,
ख्याल रखना।
‘थोड़ी-थोड़ी बात’ में फेंटकर
निगल जाना चुप्पी
भर देना खिलखिलाहट का पेट
दीवारें सुनने को मरी जा रही थीं
आवाज-
कि
‘क्या अब भी नाराज हो? बोलो न…
{2.}
अगर
उग आया है शिकायतों का पहाड़
तो किसी ज्वालामुखी की तरह उसे फट पड़ने की जगह दो
अगर बातों का बादल घुमड़ रहा है मन के ऊपर
तो बरस जाने दो
मैं था
मैं हूँ
मैं रहूँगा
पर चुप्प मत रहो, मेरी दोस्त
शिकायतों की आग जलाएगी मेरी चमड़ी
पर मैं तब भी जीवित रहूँगा
बातों की बारिश में भीग बीमार पड़ूँगा
पर हृदय धड़कता रहेगा
पर तुम्हारी चुप्पी,
तुम्हारी चुप्पी किसी नुकीले चाकू की तरह धँसती चली जाती है मन पर
रिसता रहता है खून धीमे धीमे
और मैं मर रहा होता हूँ
मेरी इस मृत्यु यात्रा को स्थगित करो, मेरी दोस्त
मुझे आवाज़ दो
चुप्प मत रहो।
***
3.
दो शहर एक रात
दिन में चमकते
दो अलग अलग शहरों को
एक काली घनी रात जोड़ती है
तुम्हारे न चाहने पर भी
मैं पहुँच जा सकता हूँ
तुम्हारे सख्त नींद के कमरे में
सपनों के धीमे पाँव से
रात दूरियाँ कम कर सकती है
अजनबी हुए जा रहे दो लोगों के बीच
सुना है, चाँद
साथ साथ देखने से
प्रेम बढ़ता है,
दो शहरों का चाँद
एक ही है
इसके लिए मैं ईश्वर से शुक्रगुजार हूँ
मैं टूटते तारों की खोज में
आसमाँ निहार रहा हूँ
‘रातें लंबी हो’ कि
मन्नतें होठ पर चिपकी पड़ी हैं
आँखें बंद होने की ताक में हैं
दाएँ हाथ की उँगलियाँ, बायें हाथ की उँगलियों से उलझी हुई हैं
दो अलग अलग छतों पर
क्या हम इस देर रात
साथ चाँद देखने की
आखिरी कोशिश नहीं कर सकते?
***
4.
उस रोज़
उस रोज
ढूँढा था कोई तरकीब कि
जाते जाते फँस जाए तुम्हारे आँचल का कोर
किसी कील में
और तुम रुक जाओ थोड़ी और देर मेरे पास
सोचा था
क्या लिखूँ कि तुम जाते जाते मुड़ जाओ
और छूट जाए तुम्हारी आखिरी ट्रेन
क्या कहूँ तुमसे
कि तुम लिपट जाओ मुझसे
और न रहे हमारे बीच हवा के गुजर जाने भर की रिक्तता
क्या गुनगुनाऊँ कि तुम ऊँघने लगो मेरे प्रेम में
और लो नींद मेरी बाहों में
पर तुम्हें जाना था,
कहाँ? मुझे नहीं मालूम
तुम्हें भी कहाँ मालूम था
तुमने बस इतना कहा- कि अब नहीं रुक सकती!
‘बहुत शिकायतें हैं तुमसे’
को लिखता हूँ ख़त में
और रख देता हूँ हर दिन सड़क किनारे टँगे पुराने, वीरान पड़े लेटरबॉक्स में
यह जानते हुए कि
कोई डाकिया नहीं आता अब वहाँ
तुम्हारा नया पता भी कहाँ मालूम!
कभी कभी राह गुज़रते लोग पढ़ लेते हैं उन खतों को।
***
5.
इस जीवन में
उजाले की कहानी,
अपर्याप्त रोशनी में भी लिखी गई है
रुककर, देखा गया है
रास्ते को जाते हुए
चुप्प होकर बातें की गईं
देर तक
दूर होकर भी बहा है
धमनियों में प्रेम का रक्त
स्पर्श का सुख तब भी था
जब गिरी याद की बूँद मन पर
जो दिखता है ठीक वैसा कभी कुछ भी नहीं रहा
जो गया उठकर, वही ठहरा रहा बहुत देर तक,
इस जीवन में।
***
6.
भ्रम
तुम कहीं नहीं थी
यह ठीक ठीक कहना कभी नहीं हुआ
जैसे गोधूलि की बेला,
दिन अब भी है या दिन अनुपस्थित हुआ
कह पाना संभव नहीं
जहाँ तुम नहीं थी
वहाँ तुम्हारे न होने की स्मृति थी
मेरे आसपास हर जगह को छेकती हुई
और स्मृति ऐसी गहरी कि
बीत गए जीवन के सबसे कठिन दिन
तुम्हारे साथ, तुम्हारे साथ के बिना
***
7.
मुझे कविताओं ने बचाया है
जब पीड़ा पहाड़ बन छाती पर जमने लगी
मैं लौटा कविताओं के पास
जब अकेलेपन का अँधेरा छाती में भरने लगा
मैं लौटा कविताओं के पास
जब इंतजार चुभने लगा आँखों में
मैं लौटा कविताओं के पास
जब नींद रूठ गई, करवटों में रात बीती
मैं लौटा कविताओं के पास
जब अपने होने का एहसास भूलने लगा
मैं लौटा कविताओं के पास
जब चिढ़ चेहरे पर दिखने लगी,
क्रूरता साँसों में चढ़ने उतरने लगी
मैं लौटा कविताओं के पास
जब खींचने लगा मृत्यु मुझे अपनी ओर
मैं लौटा कविताओं के पास
हर बार, बार बार कविताओं ने ही मुझे बचाया है।
***
8.
छूटना
मैं उदास इसलिए नहीं रहा कि
मुझे प्रेम नहीं मिला
मैं उदास इसलिए रहा कि मैंने
जिसको भी दिया प्रेम
लगा कम ही दिया
किसी का माथा चूमते वक़्त लगा कि
उसके होंठों को चूमना छूट गया
किसी के होंठ चूमते वक़्त लगा
शायद घड़ी भर औऱ वक़्त मिलता तो,
चूम लेता उसकी आँखें,
सोख लेता उसका दुःख
जो उसके आँखों के नीचे जमा बैठा था।
किसी से जब सब कुछ कहा
लगा कि चुप्प रहकर साथ चलना छूट गया
किसी के साथ घंटों चुप्प बैठा तो
उसके कांधे पर सिर रख
‘मैं तुम्हारे गहन प्रेम में हूँ’ कहना छूट गया।
इस तरह हर बार प्रेम करते वक़्त
कुछ न कुछ छूटता रहा
और हर बार उसके दूर चले जाने पर लगता रहा
जितना भी किया प्रेम, कम ही तो किया
जिसे भी दिया प्रेम, कम ही तो दिया।
***
9.
मैं बचा रहूँगा तुममें
तुम भले ही
दरवाज़ा बंद कर दो
खिड़कियों के काँच को पर्दे से ढंक दो
मेरे भेजे उपहार को म्युनिसिपालिटी के कूड़ादान में डाल आओ
चिट्ठियों को सर्दियों के अलाव में ताप जाओ
अपने शरीर से रगड़कर साफ कर दो मेरे चुंबन के निशान
इन सब के बावजूद मैं लौटता रहूँगा तुम तक
बार-बार
नींद का स्वप्न बन
सिवाए गहरी नींद से उठ जाने के तुम्हारे पास कोई तरक़ीब नहीं है मुझसे दूर चले जाने की
और तुम असहाय महसूस करोगी उस क्षण किसी स्लिप पैरालिसिस के रोगी की तरह
तुम्हारी जिंदगी में मेरी उपस्थिति के सभी निशान
मिटा देने के बाद भी
मैं बचा रहूँगा तुममें
जैसे बचा रह जाता है सड़कों पर, वहाँ गुजरे यात्रियों के पैरों के निशान
मेरे होंठों ने चखे है तुम्हारे आत्मा का स्वाद
वहाँ नहीं पहुँचता दुनिया के किसी साबुन का झाग
घंटों सावर के नीचे बिताने की कोशिशें तुम्हारी होंगी नाकाम
तुम भले ही
मेरी आवाजें व्हाट्सअप नोट्स से डिलीट कर दो
मेरी तस्वीरें फोन गैलेरी से खाली कर दो
तुम्हारी आँखें अब भी मेरी तस्वीरों को पहचानने से नहीं कर सकती इनकार
मैं गूँजता रहूँगा तुम्हारी उदासियों में,
तुम्हारी आत्मा ने सोखी है मेरी आवाजें
मैं पड़ा रहूँगा तुम्हारे मन के रिसाइकिल बीन में
रिस्टोर की इच्छा से लबालब।
मृत्यु सब कुछ खत्म कर सकता है सिवाए कहानियों के
और मैं वो कहानी हूँ
जिसे तुमने अपनी नींद में भी दोहराया है।
***
10.
दुःख
दुःख की नज़र पैनी है
ढूँढ़ लेता है हमें
वक़्त बेवक़्त
सबसे सुरक्षित स्थान पर भी
सुख के लिपटने भर के ख़्याल से
दुःख आ पहुँचता है
चौखट तक
जैसे
तुमसे अभी ठीक से मिला भी नहीं
और तुमने कहा :
मुझे जाना होगा…
दुःख
गोंद की तरह
चिपकना जानता है
मन पर
और सुख
उँगलियों के बीच से
***
11.
मुझसे बिछड़ने के बाद
संभावना है कि
मुझसे बिछड़ने के बाद
तुम किसी पुरुष के पास लौटो
जब ऐसा हो तो मैं चाहता हूँ
कि अँधेरी रात में उसके कंधे पर सिर रखते ही
तुम्हें मेरी याद आए :
किसी ऐसे स्वप्न की तरह
जिसमें हो गहरी ख़लिश
हमबिस्तर होओ तो
उसकी बाँहों में अथाह ख़ालीपन महसूस करो
और पूरी रात जागो खिड़की से ताकते हुए
सूनेपन से भरे चाँद को
ख़ूब शराब पियो और लड़खड़ाती ज़ुबाँ से
मेरा नाम लो उस रात
वाक़ई वह शहर का अमीर होगा
भीड़ होगी उसके आस-पास
उस भीड़ में अकेलापन चिपक जाए तुम्हारे मन से
तुम बेतहाशा दौड़ो समुद्र के किनारे
भरने को सुकून की हवा
याद आए तुम्हें हमारा साझा स्वप्न :
लकड़ी का वह छोटा घर
तुम्हारी बेख़ौफ़ खिलखिलाहट
किताबों से भरा मेरा कमरा
हमारे मिलन की रात बजती मधुर धुन
तुम्हारी पसंदीदा वोदका
तुम्हारे गीले बालों से टपकती बूँदें
मेरा भीगता चेहरा
आग-सा तपता हमारा पहला चुंबन
संभावना है कि
तुमसे बिछड़ने के बाद
मैं भी लौटूँगा
आस-पास जन्मे
किसी गहरे अँधेरे से लड़ता हुआ
पीली रौशनी में ढूँढ़ता काग़ज़ और क़लम
लिखूँगा कोई लंबी कविता
इस क्रूर समय के नाम
और सो जाऊँगा वहीं
दो पंक्तियों के अंतराल में
कविता के शीर्षक पर
सिर रखकर
तकिए की तरह
मैं चाहता हूँ कि
जब भी ऐसा हो तो
एक दिन तुम
भोर के साथ साथ आओ
सुबह की चाय के साथ
मुझे जगाओ और कहो :
‘गौरव, कविता पूरी नहीं करोगे?’
मैं हँसूँ लंबे अरसे के बाद
और मुझे मेरे इस स्वार्थ के लिए
माफ़ न करे मेरा ईश्वर
पर मैं ख़ुश हूँ कि
हम एक दूसरे की बाँहों में मरे
इक रोज़।
***