औरतें
अब चार औरतें
एक साथ बैठ,
नहीं करती हैं
प्रपंच!
वे हो गयी हैं
कामकाजी!
भाने लगे हैं उन्हें
दफ़्तर!
लुभाने लगे हैं
मंच!
यह एक उड़ान!
छूने को आसमान!
बनाने को अपनी पहचान!
केवल बच भर जाएं,
वे कन्या भ्रूण हत्या से!
शेष वे समर्थ हैं,
सक्षम हैं उड़ने में।
उड़ने दो, उड़ने दो!
मत रोको, मत टोको!
अवसर दो उन्हें पंख पसारने के!
वे अतीत नहीं,
भविष्य हैं स्वर्णिम!
जीवंत वर्तमान हैं!
इस आधी आबादी में!
बसता पूरा जहान है।
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कर्म
एक बार
कृष्ण ने अर्जुन से कहा था
कौन्तेय कर्म तुम करो
फल मेरे पास है!
अपनी सफेद दाढ़ी
और टूटे हुए दांतों की दाढ़ों में
अस्सी वर्ष का अनुभव समेटे
जर्जर बदन वाले मेरे बाबा ने
एक बार आसमान की ओर
उंगली उठाते हुए कहा था
बेटी कर्म तुम किये जाओ
फल वह देगा!
तब से आज तक न जाने कितने बरस हो गए
कर्म की चक्की को
कोल्हू के बैल की तरह खींचते
मगर फल तो क्या
उसकी सूरत भी न देखी
अब सोचती हूँ बाबा ने
मुझे बहकाया था
माधव ने अर्जुन को झूठ बताया था
फल उसके पास नहीं
और जिसके पास है
सड़ भले ही जाये मुझे नहीं देगा
यदि देगा भी तो बदले में
कुछ न कुछ वसूल लेगा।
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कुछ यूं आये तुम मेरे जीवन में…
मुझे याद है,
जब मैं एक बूंद सी आकाश से गिर रही थी।
अपने अस्तित्व के हस्र से डर रही थी।
जाने कहाँ जाऊंगी मैं?
रेत में खो जाऊंगी कहीं या
सागर में समा जाऊंगी।
तभी,
मुझे ठोकर सी लगी और मैंने आंखें मूंद ली।
लो मैं न रही!
पर ये क्या!
तुम सीप आ गए और
मुझे आगोश में ले लिया।
फिर तुमने अधरों को बंद कर
मुझे नवजीवन दिया।
मुझे मालूम था ये मिलन,
बिछड़ने में बदल जायेगा।
जिसने संवारा था मुझको,
वही बिखर जाएगा।
तुमने मेरा अस्तित्व बनाया था,
तुम्हारा ही मुझ पर अधिकार था।
फिर क्यों दुनिया ने अपने शृंगार के लिए,
मुझे तुमसे छीन लिया?
उस वक़्त कहाँ थे वो?
जब मैं आकाश से गिर रही थी।
मिट जाने के भय से,
सूखे तिनके से बिखर रही थी मैं।
आज भले ही मुझे वो तराशे किसी नवयौवना की देह पर चमकने के लिए,
किंतु,
मुझपे तुम्हारा ही अंश चमकता है।
तुम ये न समझना कि साहिल पर तुम छूटे हो तो,
तुम्हारा प्यार भी छूट जाएगा।
मैं बूंद जो बन गयी मोती!
सदा तुम्हारी हूँ,
सदा,
सदा तुम्हारी हूँ।
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क्षणिका
मन क्या है?
एक यादों का लबालब भरा घड़ा!
जो जरा सा भी हिले तो
बस छलक छलक जाए।
अजब है खोने पाने का खेल
कभी कभी हम कुछ न पाकर भी
उसे उम्र भर खो नहीं पाते
कई कई ऐसे रंग
जो हमसे अपना नाम मांगते हैं
कई कई ऐसे क्षण
जो मन की बारह खड़ी बांचते हैं
चैन तो फुटपाथ पर भी मिल जाता है
और बेचैनी महलों को ललकारती है
फिर भी अतीत के अजायब घरों को हम
वर्तमान की छत पर ही खड़े हो कर देख पाते हैं।