सदाबहार के फूल
नहीं बिछाए गए किसी स्वागतोत्सुक गलियारे में
गले के हार के हिस्से का धागा नहीं पिरोया गया उनके भीतर
कि वे दिखें सम्मान की योग्यता के पद पर कार्यरत
हल्के बैंजनी पंचदलीय फूल
किसी प्रणय सेज का सिंगार नहीं हुआ इनसे
मुझे लगता है कि मैं इतनी ही स्थानीय और औसत हूँ
कि सदाबहार का फूल हूँ
जिस से किसी नायिका की वेणी का धज नहीं हुआ है
जिस से मुझे प्यार हुआ, उसे मुझ से प्यार नहीं हुआ
और जिस जिस ने मुझसे प्यार किया
उस को अपने ऊपर अधिकार नहीं दिया.
सदाबहार की विभोरता को कोई देखे, न देखे
वह सूरज की गुम चोट का नील बनकर खिलता रहता है हर मौसम
इस बात की होड़ किए बग़ैर
कि कमलदल कब और कहाँ खिला है?
गुलाब के दुःख कहाँ हैं?
दोपहरी में कौन खिलेगा?
दिन भर के बाद कौन पंखुड़ियों में जीवित रहेगा? कौन मर जाएगा?
वह किसी देखी/अनदेखी दरार में उग आएगा।
अपने होने के अड़ियलपन के साथ
पतझड़ के बाद इस बसन्त में और चातुर्मास में
भी उतना ही निर्दोष जितना पूस में होगा विस्थापित
पानी, खून, पसीने, युद्ध और प्यार से बेफ़िक्र थोड़ी सी नमी पर इतराता
मुरझाने से निडर सदाबहार
मिलने आना मुझसे तुम फागुन में
चौराहों पर जलती आग की पहली लपट वाली पूनम के दिन आना
गेहूँ की बाली के साथ
गूँथना मेरी वेणी में एक लट भर सदाबहार
ताकि मेरे होने का रंग मुखर हो जाए
मैं कह पाऊँ कि मुझे
पानी की दुनिया के भित्तिचित्र को देखने का अनुभव हुआ है
मुझे मिट्टी की काया की हर स्मृति से प्यार हुआ है।
कह पाऊँ
कि मेरे और तुम्हारे बीच सदाबहार का मौसम खिला है।
कह पाऊँ कि मुझे एक अनूठा शृंगार मिला है।
2.
सहस्त्र मस्तक है प्रेम
मोह की कौन-सी अंगुली थामे है विदा
बोली नहीं जाती
न तुम से न मुझ से, न संसार में किसी से
मौन में विवश होकर तर्पण कर दी जाती है
फिर भी सम्पन्न नहीं होती
शिला में अग्नि-सी जीवित रहती है स्मृति में कामना
यहाँ ‘अश्वत्थामा’ नहीं- न सही
काष्ठ के किसी देव द्वारा मानव को अंजुरी भर जल लेकर दिया गया शाप है
अहैतुक
जो संसार की किसी नदी में पूरा नहीं बह पाता
बचा रहता है
अगम में काम्य भूमि की उपज बनकर।
टटोलती हूँ बहुत अंधकार में
विदा प्रेम के कौन से माथे पर लिखी है?
मुझे प्रेम ही प्रेम दिखाई पड़ता है
नफ़रत में भी प्रेम और लाड़ दुलार में भी
बहुत भोर में बालक अपनी माँ के पेट पर अपना पाँव पसार देता है-
माँ का तो वह
अपने में एक ही सच्चा प्रेमी है।
3.
बहुत वर्ष तक,
मेरी नींद, भूख, प्यास
मेरी हर गति, हर सक्रियता
मेरा गोत्र और उपनाम
मेरा किया उपवास, पूजा और पुण्य
सब कुछ मानो एक दोने में रख प्रवाहित किया हो
-समय के एक बहाव में, एक नाम के लिए
आँखों को उतार दिया हो
देह के सब से अधिक पहचाने गए स्थान से
इस देह की भाषा में अभिधा नहीं
लक्षणा में एक शब्द
स्पंदन की अनिवार्यता जैसा
नीली पड़ी कलाई की नस-सा उभर आया
अग्नि-कुण्ड से प्रकट हुई हो
जैसे ज्वाला नहीं- कोई दूसरी शब्दमाला
मेरे लिए हर पृष्ठ पर
एक ही शब्द नई शक्ल में मिलता हो
लिखा मिलता हो- इन्तज़ार.
मानो अंत में
मेरे लिए बस यही बचता हो
मेरे अनकिए अपराधों में
मिले दण्ड का मेरा भाग
कलम की नोंक तोड़ने के पहले
संदर्भ लिखे जाने,
प्रसंग पढ़कर सुनाए जाने
और यातना-गृह में भेजे जाने की व्याख्या का-
इन्तज़ार.
जिसे चखकर मुझे
सम्बन्धों के खोखलेपन पर हँसना आया हो
क्या हुआ जो ठीक से पूरा सच कहना
अब तक न आया हो!
4.
बहुत से लोग लम्बा जीते हैं
दूर के यात्री, बीच में सो भी जाते हैं
सपने से विहीन नींद में कोई खड़खड़ाती हुई खिड़की भी उन्हें झिंझोड़ने में विफल हो जाती है
वहीं कुछ लोग देर से आते हैं और कम जीते हैं
उनमें से भी आधों के पास बाधा-दौड़ जैसी कोई यांत्रिक प्रक्रिया होती है, जिसमें वे नट बोल्ट की तरह थामे रहते हैं अपने सिर पर पसेरी भर भार
उन लोगों को देरी याद रहती है
वे सजग रहते हैं अपने पास बचे कम जीवन के लिए
उन्हें सब याद रखना आता है
छोटे रास्तों पर लंबे डग से चलना, ठोकर खाकर गिरना
सँभलना
अपनी धूल झाड़ना
अपने बाल सँवारना
कपड़ों की सलवट उतारकर फिर चल देना
ऐसे, जैसे कुछ हुआ न हो।
5.
लंबी यात्रा से लौटने और यात्रा के भीतर छूट जाने के बीच
बँधे संयम और व्यवहार के धागों से मुक्त रखती है
वह ठोकर जो तुम्हें बचा लेती है
वह जड़ जो तुम्हें थामे रहती है
उसे कहो धन्यवाद
उसे नहीं जो दृश्य के फेंटे से बाँधकर रखे
साँस न आने के धुएँ से भरी स्मृति बनकर रुलाए
और खुलकर रोने भी न दे
पढ़ने, लिखने, देखने, सूँघने और घोलकर देह से लगाए फिरने में
नहीं ले रही उसका नाम
नाम लेने से यश-अपयश बराबरी में बढ़ता है
हमारे इधर कहते हैं
दिए की कालिख़-सा;
भोर होने तलक मंद-मंद तम बढ़ता है
तब कहीं भक् से जले का निशान छोड़
बुझ जाता है
वह जो मरता नहीं उसके
अवशेष के पास अजर पीड़ा है
उसके अवसाद की कोई मृत्यु नहीं है
तुम उसे सुख कहो, दुःख कहो, धर्म, मर्म कहो,
कला कहो साहित्य कहो
रंग कहो रोशनी कहो
उस में अंतरिक्ष खोज लो या उसे संभावनाशून्य कहो
अन्धकार में होकर भी, नहीं पुकारूँगी थामने
दूजे हाथ को
कह सकते हो अगर
तो इस कह सकने को कहो धन्यवाद
वह समय की परछाई है,
उम्र के ढलने के बाद
प्रेम की पीठ से उतर दूसरी दिशा में बढ़ रही है
तुम धरते हो पाँव इस अंधेरे में,
उतने मिट रहे हो
तुम्हारे मिटे भाग का कहो धन्यवाद
बलिवैश्वदेव यज्ञ में आहुतियों के साथ उतरे पुण्य-पिपासु देवताओं की तरह-
कहीं से आ ही जाते हो
झाँकने समय के एक द्वार से इस द्वार में
तुम से माँगे धन्यवाद के वस्त्र में रख रही हूँ,
रख रही हूँ नमक-हीन
अपने आप को।
एक साथ समय की कितनी तहों में पाई गई हूँ,
पर इस तरह, कहीं नहीं रही हूँ अपरिहार्य
रहने दो अब मुझसे अनुराग
एक शीर्षकहीन को आने दो
पढ़कर, जुड़कर जलकर इस लौ को बुझ जाने दो
अभी छुआ जिसने उस लहर को वापस चले जाने दो
बस कहो धन्यवाद।