ऊँची दीवारों और
मोटे काले परदों से घिरी रही है
जहाँ न सूरज की किरणें आतीं
और न चाँद की चाँदनी
यहाँ तक कि उनकी आँखों
और मुँह पर भी बँधी रही हैं पट्टियाँ
न कुछ देखतीं, न बोलतीं
अंधेरों को अपनी नियति मान चुकी वो स्त्रियाँ
अंदर-ही-अंदर घुटती
गिरती-बजरती, चोटें खाती
अंधे कुएँ-सी जिंदगी में
चक्करें काटती-काटती दम तोड़ देतीं
दादी-नानी और उनकी अम्माओं जैसी
तमाम स्त्रियों का युग रहा होगा वह
तब उन्हें पता नहीं होगा शायद
कि उन काले परदों के पार
एक जगमगाती दुनिया है
खुला आसमान है
ताजा हवा है
बहती हुई नदियाँ हैं
बस परदे को खींचकर
हटा देने भर की देरी है
या शायद पता भी होगा तो
उन्हें परदे के बाहर
झाँकने की भी इजाजत न होगी
या इसे माना जाता होगा संगीन जुर्म
और उस जुर्म के लिए बनाया गया होगा कठोर दंड विधान
पर वो कहते हैं न कि रात की कालिमा
कितनी भी गहरी क्यों न हो
मिटती ज़रूर है
समय के साथ परदा थोड़ा नीचे सरका
सूरज की किरणें इतराने लगीं
उन स्त्रियों के मन-आँगन में
एक अलग ही ऊर्जा का संचार हुआ उनमें
थोड़ा नीचे खिसकाया उसने
आँखों की पट्टी को
और आगे बढ़कर
थोड़ा और सरका दिया नीचे
अपने चारों तरफ के परदे को
देखने लगीं वो ऊँची दीवारों के पार भी
अब बोलने की तीव्र इच्छा जगी उनमें
लेकिन न तो हिम्मत हुई उनकी
मुँह से पट्टी उतार फेंकने की
और न कोई शब्द था उनके पास
न कोई भाषा थी
कोसों रखा गया था उन्हें अब तक
भाषाओं की किताब से
तो सबसे पहले ढूँढ लाईं वे
भाषाओं की किताब
और रख दीं अपनी बेटियों के आगे
सीखने लगीं बेटियाँ
वर्णमाला के एक-एक अक्षर को
फैलने लगी ज्ञान की रोशनी
मिलने लगे बोलने को शब्द
ढहने लगीं दीवारें
हटने लगे परदे
खुलने लगीं धीरे-धीरे
मुँह पर लगी पट्टियाँ भी।
2. जंगल मेरी देह है
मुझे जंगली कहना सही नहीं होगा
सही होगा कि तुम मुझे
पूरी की पूरी जंगल ही कहो
क्योंकि जंगल मेरी देह है
और हरियाली मेरी आत्मा
कल-कल कर बहती हुईं नदियाँ
मेरी साँसें हैं
पत्थर-पहाड़, चट्टानें मेरा हौसला
और बलखाकर गिरते झरने
मेरी धड़कनें हैं
फूल-पत्तियाँ शृंगार है
रंग-बिरंगी तितलियाँ
मेरी आँखों की चमक है
चिड़ियों की चहक
खनकती हँसी है मेरी
पशु-पक्षी सभी हमराज हैं मेरे
या कहो तो
अभिन्न हिस्सा है मेरी देह का
आना चाहो कभी तो आना तुम
अतिथि बनकर जंगली बस्ती में
फूलों से सत्कार होगा तुम्हारा
जो आए बन कर तुम लुटेरे
साथ हथियार लिए
मेरी देह को नोचने खसोटने
उसे तहस-नहस करने तो…
तो खबरदार!
तुम तो मानते ही हो कि
मैं जंगली और जाहिल हूँ
तो यह भी जान लो कि
मैं तुमसे कहीं अधिक
खूंखार और खतरनाक भी हूँ
अपनी देह
अपनी आत्मा
अपनी साँसें बचाने के लिए
किसी भी हद तक जा सकती हूँ।
3. ज़हर पीकर पैदा हुईं हैं हम
अरे!
ज़हर पीकर पैदा हुई है
ज़हर पीकर…
इन्हें क्या कोई हारी-बीमारी होगी
ज़हर पचाकर
अम्मर हो गई है… अम्मर
देखो जरा!
सूखी रोटी नमक खाकर भी
कैसे छतनार हुई जा रही हैं छोरियाँ
न जाने क्या?
खुसुर-फुसुर करती हैं तीनों
बात-बात पर खिलखिलाती हैं
धस् मारती ये जंगल-झाड़ छोरियाँ
पता नहीं कभी उमजने भी देगी कि नहीं
खानदान के एकलौते चिराग को
कितनों दवा-दारू, टोनिक-विटामिन
खान-पान दो
इस कलकुसरे छोरे को
देह पर बारह ही बजा रहता है
एकलौते पोते के जरा सा खाँसने भर से
दादी तीनों पोतियों को
गालियों से बिछ लेती हैं
वैसे तो इस तरह गालियों से
असीसने की आदत
पुरानी है उनकी
लेकिन जब से तीन पोतियों के बाद
पोता जन्मा है
उनकी गालियाँ
और ज्यादा तीखी हो गई हैं
वहीं तीनों छोरियाँ गालियों को
हवा में उड़ाती और ज्यादा बेपरवाह
क्यों बुरा नहीं लगता
क्यों सह जाती हो हँस-हँसकर
इतनी जली-कटी तुम?
पूछने पर बतातीं हैं वो
उनकी इच्छाओं-अनिच्छाओं को ठेंगा दिखा
मारक गोलियों और इंजेक्शनों को
बेअसर कर जन्मी हैं हम
अब उनकी गालियों का
भला क्या असर होगा हम पर
सच कहती हैं वो
ज़हर पीकर पैदा हुईं हैं हम…
ज़हर पीकर…
4. माँ की डायरी
(1)
माँ के जाने के बाद
‘माँ की डायरी’ माँ जैसी लगती है
सुनाई देती है उसमें
माँ की चूड़ियों की खनक
और पदचाप भी
महक उठता है वजूद
पल भर के लिए
माँ की खुशबू से।
(2)
माँ की डायरी में
न उनके सुख की
रागिनियाँ लिखी मिलती हैं
न ही दुःख की हहराती नदियाँ
बस खर्चों का लेखा-जोखा
जरूरतों के जोड़-तंगड़ से
तारीखों के पन्ने भरे मिलते हैं।
(3)
माँ उसी तरह संभालकर रखती थीं
अपनी पुरानी डायरियों को
जैसे पिता अपने शैक्षणिक प्रमाणपत्रों
व नौकरी के कागजातों को
और दादा-बाबा जमीन-जायदाद के साक्ष्यों को।
(4)
माँ की डायरी बताती है कि
उसके सभी पन्ने
उनके पति और बच्चों के लिए थे
माँ के लिए एक भी पन्ना नहीं उसमें
फिर भी डायरी माँ की ही है।
(5)
माँ की डायरी माँ के बक्से में रखी है
भविष्य में जब
संपत्ति का बँटवारा होगा भाईयों में
तब भी माँ की डायरी वहीं पड़ी रहेगी
या फिर एक समय कचरे में जाएगी
क्योंकि माँ की डायरी कोई संपत्ति नहीं।
5. पिता छत होते हैं
बाहरी हवा-पानी आँधी-तूफान
ओले और वज्रपात सब सहते हैं
कटते हैं, छिलते हैं
ज़ख्म पर ज़ख्म खाते हैं
ज़ख्म टीसते भी हैं और चुभते भी
फिर भी वे
रोते हैं न सिसकते हैं
न किसी से कहते हैं
तमाम आफतों से लड़ते-भिड़ते, सहते
घर को बचाए रखनेवाले पिता
छत होते हैं
और छत का सबसे मजबूत सहारा
भरोसेमंद साथी
घर की दीवारें होती हैं… माँ
जो दुःख की अतिवृष्टि से
अंदर-ही-अंदर रिसते छत के आँसुओं को
सोख लेती हैं।
6. बचपन में लौटना
जहाँ लौटने से
लौट आता है बचपन
खिल जाता है जीवन
चहक उठता है मन
अरे!
अभी-अभी ही तो हम
घुड़कते थे
फुदकते थे
घोलटते थे
उड़ाते थे धूल-मिट्टी
खाते थे धूल-मिट्टी
यहीं…
हाँ ! यहीं इसी घर-आँगन
वहाँ मंड़वावाले ऊँचे जगह पर
बिछती थी बड़ी-सी चटाई
जिस पर गोल घेरे में बैठ
पढ़ते थे एक ही लालटेन से
अपने-चचेरे सभी भाई-बहन
लगते बिछौने छत पर हमारे
चंदा से बतियाते
तारों को गिनते
गर्मी की रात कटती मजे से
कभी उस सीढ़ी के नीचे
कभी इस दरवाजे के पीछे
कभी कोठी के बगल में
कभी छुप जाते
दादाजी के चौकी के नीचे
लुका-छिपी के खेल में
इसी सीढ़ी पर चढ़ती
ओसारे पर चलती
काम के पीछे आँगन में भागम-भाग करती माँ के पदचाप
उनकी चूड़ियों की खनक
सुनाई दे रही है आज भी साफ-साफ
अरे! ये आराम कुर्सी कोने में क्यों पड़ी है?
इसी पर बैठने के लिए तो
हो जाती थी कभी
कितनी ही लड़ाइयाँ भैया से
तब आखिर में भैया कहते-
अच्छा बैठ जाओ
ब्याही बेटियाँ
जब लौटती हैं जन्मडीह पर
तो हुलसती है माँ
बढ़ जाती है पिता के आँखों की चमक
उन दिनों
धीर-गंभीर, जिम्मेदार भाई भी
बहनों के संग लौट जाते हैं बचपन में।