मन की बात
आओ बैठो
कुछ देर,
बातें करें
मन की
कुछ ‘तुम’ कहो
कुछ ‘मैं’ भी
जो कहा नहीं अबतक किसी से
राह चलने की जल्दी में
मंज़िल को ही भूल बैठे
मंज़िल तो खुशियाँ थी
क्यों अपनी झोली में हम
ग़म को भर बैठे
आओ बैठो
कुछ देर,
बातें करें ख़ूब
मन की।
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ख़याल
कुटती है
पिसती है
फिर
सेंकती है रोटियाँ
जाने कितनी ही बार
झुलसते हैं हाथ
किंतु,
झुलसे नहीं एक भी रोटी
इसका हरदम रखती है ख़्याल।
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विनाश की ओर
यह मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है?
भूख की ओर
युद्ध की ओर
विनाश की ओर
किस ओर बढ़े चले आ रहे हैं?
हैं कितने लोग बचेंगे
इस भूख से
इस युद्ध से
इस विनाश से
बीज तो उसका ही है
रोको! रोको! रोको इसे कहीं
जीवन का अंत न हो जाए।
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पर्दा
बंद दरवाज़े के पीछे की
चरमराती, उदास ज़िंदगियाँ
छुपाने की हरेक कोशिश
नाकाम हो जाती है
जब हवा के इशारे पर
पर्दा हिल-हिलकर
खोल जाता है हर वो राज़
जिसपर पर्दा पड़ा था अबतक।
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भागते हुए लोग
भागते हुए लोग
जल्दी-जल्दी में
भर-भरकर रख रहे हैं
धूप को
हवा को
मिट्टी को
कल शायद कम न पड़ जाएँ
कल अकाल पड़ेगा
धूप
हवा और
मिट्टी का।
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