1. वृक्ष का धैर्य टूटता है
वृक्ष का धैर्य टूटता है,
हवा गिद्ध की तरह
झपटती है उस पर
वह उसके तने पर
बेहिसाब गिरा रही है आरियाँ;
मैं सूखे पत्तों पर चल रही हूँ
जिनकी चरमराहट में
अनुगूँज है गुजरे वक़्त की,
हवा अब थककर निढाल हो गई है
पर मेरे कानों में टूट रहा है
उसका स्वर…
शायद उसके टखनों में दर्द है।
2. पौ फट रही है
पौ फट रही है,
सूर्य अभी बैठेगा अंगार पर,
रंग जुटेंगे उसके रथ पर,
पाखी खीचेंगे धूप का कश,
फूल दहकेंगे
और
पृथ्वी सौंदर्य के मुक्ताकाश में,
ठीक करेगी अपनी धोती की चुन्नटें ।
3.
शश..शशश….
उम्र तो महज ऑंकड़ा है
उसके कंठ में उतर आया था
इच्छाओं का समुद्र,
वह डूबा था
उसके फेनिल झागों में,
उम्र उसकी जड़ों पर
छोड़ रही है हरापन
“कौन कमबख़्त
बुढ़ापे पर दे रहा है व्याख्यान?
शश..शशश…
उम्र तो महज ऑंकड़ा है”।
4. चादर में सिकुड़ी बैठी गरीबी
बड़े-बड़े फूलों वाली चादर में
सुराख़ हो गए हैं,
सुराख़ महीन है अभी,
सूजी आँखों वाली स्त्री के,
श्यामल बच्चे की उँगली
सुराख़ में घूम रही है
चादर में सिकुड़ी बैठी गरीबी
उँगली की तरेड़ से
संभाल रही है अपना तन,
स्त्री की रात भर
सूजी ऑंखों को सोना है…
बच्चे की उँगली चादर से
सुरक्षित निकलकर होठों के
मध्य में आ गई है
गरीबी इस समय स्त्री के गीले खर्राटों से टकरा रही है।
5. एक नई गर्वीली प्रतिभा का विस्फोट
वे बरसों की मशक़्क़त के बाद
एक दिन मुँह अँधेरे निकले,
खोजने ख़ुद को,
कंधे पर एक झोला,
झोले में थी-
ख़ुर्दबीन, स्मृतियों की पंजिका,
डगमगाता विश्वास, सुरक्षा चक्र से मुक्ति की कामना,
चौकस दृष्टि
और
बोनस में बेचारगी
झोले को संभाल, अपने कंधों को झाड़
वे बढ़ गए आगे
एक जगह
ज़हीनों के समूह को सुस्ताते देख
प्रविष्ट हो गए उसमें,
झोले से चमत्कार की तरह निकाला अपना सामान
ज़हीन चमत्कृत थे
चूँकि वे सभी कंधे थे,
आगे बढ़कर भर दिया
प्रशंसा से उनका झोला
मीठे शब्दों का जादू…
प्रशंसा का जादू…
ज़हीनों के घुटनों के कोटर में सुरक्षित थे अब वो
और उधर,
रचनात्मक संसार के उस्तादों के बीच,
एक नई गर्वीली प्रतिभा के विस्फोट की
सुगबुगाहटें होने लगी थीं।
6. सिर्फ़ सुनो
सिर्फ़ सुनो,
हमेशा कहना ही ठीक नहीं होता,
नहीं होती अच्छी,
इतनी एकाग्रता कि
बगल में खड़ी सिसकियाँ
लौट जाएँ
दबे हुए तकिए के उदास किनारे पर,
लौट जाएँ
अवसाद के गहरे अँधेरों में,
किसी के तकिये पर भी,
दौड़ा देना कभी एक नज़र
दौड़ा देना
शायद कोई आँसू
तुम्हारी तर्जनी का स्पर्श चाहता हो।
7. वो शायद एक दिन
वो तीसरी मंज़िल के फ्लैट पर थे.
अपनी बाल्कनी में अक्सर खड़े मिलते,
वो वहाँ बैठते कम थे,
अक्सर घंटों खड़े ही रहते
मैं ऐसी किसी संभावना पर सोचती
कि वह बाल्कनी से छलांग लगा गए तो…
क्योंकि वो प्रति इंच के हिसाब से
सड़क से बाल्कनी की दूरी को माप रहे होते,
यह मेरा वहम भी हो सकता है
मैं खिड़की के पल्लू को सरकाकर
कभी-कभी उन्हें सड़क पर चलते हुए लोगों के सिरों की गिनती करते हुए पकड़ लेती
तब मेरा वहम और पुख़्ता हो जाता,
वो शायद एक दिन छलांग लगा ही देंगे
पर उसके लिए
उन्हें अपने शरीर पर ध्यान देना होगा।
8. उसने अपने…
उसने अपने
अंतिम शब्दों को
आसमान के पश्चिमी छोर की
स्याही में डुबो दिया
अब वह जाएगा
शिथिल पैरों के साथ
किसी हुलसती नदी के पास
पर नदी सूख चुकी थी
समय की टूटी टहनी पर
बैठा वह
नदी की धँसी हुई पीठ से
कुरेदने लगा था रेत।