सुनो प्रिय,
फिर एक कविता
उतर आई थी, सर्द
रातों की ठिठुरन
को चीरते हुए, ज़हन में,
जिसमें तुम अंगीठी
की आँच पर शकरकंद
सेंक रही थी, प्यार से,
इत्मीनान से और
मैं लिखना चाह रहा
था तुम्हारे, गुलाबी गाल पर
एक कविता, तभी अंगीठी
की तपिश कम होने लगी,
और तुम्हारे गाल की अधिक,
बस तभी मेरी कच्ची कविता
और शकरकंद, पककर सुर्ख
लाल और मुलायम हो गई,
तुम्हारे चेहरे सी…
2. धड़कन…
सुनो प्रिय,
तुमसे फोन
पर बात करते हुए,
अक्सर, मुझे तुम्हारे दिल
की तेज धड़कन
की आवाज़, तुम्हारे मुहल्ले
से निकल रही
ट्रेन के पहियों की
क़दमताल
के समानुपाती
लगती है,
हर बार मुझे,
और उस वक़्त,
पों पों का हॉर्न
मानों मेरा दिल ही
दे रहा हो, हर बार,
ये बताने को,
कि सब ठीक
चल रहा है,
बाकी अभी धड़कनों
पर सफर ज़ारी रहेगा,
यात्रा वृत्तांत पूरा
होने तक…
3. मैं चाहता हूँ…
सुनो प्रिय,
मैं
जाना चाहता हूंँ
वहाँ, जहाँ
तुमने आँखें
खोली थीं पहली
बार,
मैं
देखना चाहता हूँ
वो चीज़, जिसे
तुमने पहली
बार देखा होगा,
मैं
छूना चाहता हूँ
उन हाथों को,
जिसने इस दुनिया
में सबसे पहले छुआ
होगा तुम्हें,
मैं
लगना चाहता हूंँ
उस माँ के सीने से
जिसने तुम्हें जन्म दिया,
मैं
पौधा लगाना चाहता हूँ
उस आँगन में, जहाँ,
तुमने अपने नन्हें
कदम रखे होंगे
पहली बार,
ताकि उस पौधे
पर दुनिया का इकलौता
और अनोखा फूल खिल
सके,
एक मदहोश सुबह, और
मैं
नींद से जाग जाऊँ
इस तरह तुम्हें सोचते हुए…
4. तुम उस हाथ सी लगती हो…
सुनो प्रिय,
सुन रही हो ना,
हाँ, तुम बिल्कुल
उस हाथ जैसी हो
जिसकी थपकी से
मेरी आँखें बन्द हो
डूब जाती है, उम्मीदों
के सागर में हर रात,
तुम उस हाथ सी भी
होती हो कभी, जो जमीं
के सीने को ज़ोत, बो
देता है उम्मीद, अंकुरण
से सर्जन के सफ़र की,
तुम उस हाथ जैसी भी
लगती हो मुझे, जो मेरे
भीतर के गन्दे लिबास
को उतार, नया लिबास
खुद से सील कर
पहना रहा हो , तुम उस
हाथ जैसी भी होती हो
जो मेरे बालों को सँवार
रहा हो, और मस्ती में
बिगाड़ भी कभी, तुम उस
हाथ जैसी भी होती हो
मैं कुछ कहने लगूँ,
और शश्श्श् कहके
मुँह पर रखकर, ख़ामोश
कर दो, जिस्म के तूफां
को उठने से पहले…
5. कोई बूंद सा
आए जीवन में,
ज़रा ठहरे
और बस
भीतर समा
जाए, बिना
कुछ कहे, बिना
कुछ सुने…