1.
एक रंग अपना रखना
उसने अपनी मुट्ठी में
हजारों रंग समेटे थे
एक रंग मायके का
दुजा ससुराल का
तीजा रंग अपने सजीले घर का
चौथा रंग तमाम रिश्तों का
और अनगिनत रंग उसके अपने अरमानों के
भींचकर बाँध ली थी उसने अपनी मुट्ठी
ताकि कोई रंग छलककर बाहर न गिर जाए
सभी रंगों को संभालते संभालते
पहले उसके अपने अरमानों के रंग बिखर गए
फिर उसकी अपनी खुशियों के रंग
कहीं ढ़ुलक गए
वो ढूँढती है
सब ओर अपने हिस्से का रंग
कि अपने लिए कोई एक जरूर बचाकर रखना चाहिए
किसी सभी बेरंगी से दूर भागते हैं
2.
बूँदों से प्रेम
ये फूल और पत्ते कैसे निखर आते हैं
जब बारिश की बूँदों के संग मिल जाते हैं
इनकी खुशियाँ इनके तन की चमक ही बता जाते हैं
बयार भी जो संग मिल गई
तो हँसते हुए कुछ मोती झर जाते हैं
गर उस जलबिंदु को अपनी हथेली में धर लूँ
तो खिलखिलाते हुए पूरे के पूरे हिलडुल जाते हैं
जो सँभालने जाओ तो
उफ्फ!!!
ये कैसे नखरे दिखाते हैं
इधर से उधर बस नाच नचाते हैं
फिर भी नहीं पकड़ में आते हैं
हौले से अधरो से छू लो
तो झट से सिमट जाते हैं
इन नन्हीं बारिश बूँदों को तो देखो
कैसे निर्मल बच्चों सा प्यार जताते हैं
3.
मैं भी बुद्ध हो जाना चाहती हूँ
मैं भी अब बुद्ध हो जाना चाहती हूँ
छोड़ सारे किंतु-परंतु
बस स्वयं में लीन हो जाना चाहती हूँ
स्त्री चित्त ने बारंबार किया स्वंय से अनुरोध
चलो खुद पर किया जाय शोध
साक्षात् को बनाया जाय सुबोध
हे!!!! सिद्धार्थ
तुमने सहसा परित्याग किया संगिनी का
परिहार किया प्रिय तनुज का
क्यों? तुमने नहीं की ज़रा भी परिकल्पना
कि पत्नी को बेवजह ही दे रहे हो यातना
पुत्र का छीन रहे हो आसमाँ
रजनी की स्निग्ध पावनता में
लूट रहे हो उन दोनों का सारा जहाँ
हे!!! तथागत
तुमने उत्सर्ग किया निज धाम
तो महा मुनि महात्मा कहलाए
अपने सारगर्भित वचनों से
घर-घर में पुण्यात्मा कहलाए
तो सुनो न!!! बोधिसत्व
क्या मैं भी गृह त्याग करूँ
अपने ही अंतर्मन का शृंगार करूँ
बैठ बोधिवृक्ष की तरूछाया में गहन अंतर्ध्यान करूँ
मुझ में भी है वो आत्मज्ञान
नहीं रखना है दुनिया का संज्ञान
तोड़कर सारे मोह बंधन
भेदकर सारे अबोध अज्ञान
तुम सा हो जाना चाहती हूँ महान
बोलो न!!! शाक्य मुनि
गेह तज मैं भी महती कहलाऊँगी न?
कुलटा तो न पुकारी जाऊँगी?
मानव रूपी दानव द्वारा तो न डँसी जाऊंगी?
या प्रिय वत्स की अपने कुमाता तो न कहलाऊँगी?
क्योंकि हे!!!मेघंकर
जिस अस्थि और माँस से
विधाता ने तुम्हें सँवारा है
उसी रक्त और लोथड़े से
मुझे भी सजाया है
वही विभाव, अनुभाव, संचारी भाव
मुझमें भी बहाया है
जिससे तुमने अपने जीवन में रस जगाया है
परंतु हाय रे !!! स्त्री का मन
तुम्हारा अंतर्द्वंद्व
तुम्हें न बनने देगा बुद्ध
तुम न उपेक्षित कर पाओगी अपना पुत्र
तुम न अवहेलित कर पाओगी अपना संगी
तुम न लाँघ पाओगी जीते जी घर की देहरी
तुम न रीत पाओगी अपना घर-परिवार
तुम न भूल पाओगी घर का कोई भीत
जिस पर तुम्हारी अँगुलियों ने लिखे हैं मधुर गीत
तुम्हें तो बस इतना सा है भान
जैसे तुमसे ही है घर में जान
बिन तुम्हारे अधूरे रहेंगे सबके प्रान
हे!!!!शणांकर
नारी की उदारता है
कि उन्हें नहीं चाहिए कोई बुद्धत्व
निरखती हैं पल-पल अपनत्व
वही है उनका अर्हत्व
4.
समय बदला
युग बदला
देश बदला
परिस्थितियाँ बदलीं
हमने इक्कीसवीं सदी में कदम रखा
तो मंगल ग्रह पर भी अपना अधिपत्य जमा लिया
अब, हमारे भाव, विचार, सोच बदलें
नित नित आधुनिक हुए
नवीनता की चादर ओढ़कर
हमने अपने रहन-सहन के तौर-तरीके बदलें
पर अफसोस
इस बदलाव की कवायद में
हमसे कुछ बदलना रह गया
वो है अपनी बेटियों की स्थिति
हमने समानता का नारा लिया
असमानता का विरोध किया
बेटा बेटी एकसमान का पुरजोर समर्थन किया
फिर भी इस भेदभाव के मकड़जाल से
निकल पाना संभव न हुआ
हमारी बच्चियों ने चाँद छुए
परंतु सूरज बनने से परहेज किया
विज्ञान को पंख दिए
परंतु एसिड के अनायास प्रयोग से दूर रखा खुद को
खेल जगत को तमाम रत्न दिए
परंतु इंसानों से खेलना कभी इनकी फितरत में न शामिल हुआ
साहित्य को अमूल्य निधि दी
परंतु खुद को अमूल्य न समझने की भूल कर बैठी
जीवन स्रष्टा होने के बावजूद
स्वयं के जीवन के लिए ताउम्र संघर्ष करती रहीं
कहीं नोची खसोटी गई, तो बेटियाँ
कहीं चीखी चिल्लाई, तो भी बेटियाँ
कोख में दफन की गई, तो बेटियाँ
बलात्कारियों के भेंट चढ़ी, तो बेटियाँ
नफरतों की बारिश झेलती रहीं, बेटियाँ
कच्ची उम्र में जलाई गईं, हमारी ही बेटियाँ
देखो!अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है
और नहीं सहेंगी हमारी शहजादियाँ
ईंट से ईंट बजाने का सामर्थ्य रखती हैं ये सुकुमारियाँ
इनके नरम दिल को इनकी कमजोरी मान लेने की भूल
बहुत कर चुके हो तुम
अब तो चित भी इनकी होगी और पट भी
तलवार भी इनकी अपनी होगी और म्यान भी
खडग की धार से खेलेंगी भी यही
दर्ज हो रहीं है ये
धरती से लेकर आकाश तलक
5.
नमक
बड़े नमकीन होते जा रहे हैं
पानी और इंसान दोनों
नमक के ढेर पर बैठा इंसान
जब अपनी जद्दोजहद में
पिघलकर पानी में तब्दील हो जाता है
तो दिल का छिलछिलापन और बढ़ जाता है
साथ ही बढ़ता जाता है सागर का खारापन
सब कहते हैं कि औरतें तो
सनी ही होती हैं नमकदानी में
जरा जरा सी बात पर पसीज जाती हैं
कौन समझाए लोगों को
कि जब उनके चेहरे का नमक लुढ़कर
आहिस्ता आहिस्ता
कलेजे पर इकट्ठा होता है न
तब बनती है एक अलग सी लवण्य नदी
जो विद्रोहनुमा घुमावदार लिये होती है
इसी में डूबते उतराते हैं वो लोग
जिनके सहयोग से निर्मित होती है
आंसू और पसीने से बनी प्रवाहिनी
खैर
नमक ही तो है
जो चलाती जा रही है दुनिया
इसमें डूबकर निकलो
तो ज़रा और भी निखर उठता है जीवन