भारतीय मनीषा अपने सांगोपांग समुच्चय के साथ कुबेरनाथ राय की रचनाओं में प्रतिफलित हुई है। उनके लिखे का पारायण भी पूर्वजन्मों के पुण्य सरीखा लगता है। उनके निबंध-संग्रहों के नाम भर ले लीजिए तो पुराणेतिहास और मिथकीय आभा से मन दीप्त हो उठता है। भारतीय संस्कृति में उनका मन कितना पगा था, उनके संग्रह इसका भरपूर बखान करते हैं। तनिक उनकी सुरुचि और रमणीयता की बानगी देखिए— गंधमादन, प्रिया नीलकंठी, विषद योग, रस आखेटक, कामधेनु, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि-अभिसार, मराल, पर्ण मुकुट, आगम की नाव, मन पवन की नौका, वाणी का क्षीर सागर, अंधकार में अग्निशिखा, निषाद बांसुरी, त्रेता का वृहत्साम।
कहने को ये बाह्य आवरण मात्र हैं, लेकिन भीतरी वास्तु, सज्जा और अर्थगर्भ में लोक-लोकोत्तर सब दमकता हुआ मिलेगा।
जीवन की धूप-छांह और आपाधापी में ढेर सा ऐसा छूट जाता है जिस पर कभी दृष्टि ही नहीं पड़ती। पड़ती भी है, तो उसे निरखने और कुरेदने का अवकाश नहीं रहता। और जब वही सब कुछ किसी समर्थ रचनाकर की दृष्टि से देखने का अवसर मिलता है, तो भीतर से एक आत्मधिक्कार उपजता है कि आखिर मुझे इतनी महत्वपूर्ण बात स्वतःस्फूर्त क्यों न दिखाई दी।
कुबेरनाथ राय चराचर सृष्टि को किसी प्रमेय की तरह देखते हैं। और बड़ी आसानी से वो प्रकृति के गर्भ तक पहुंचकर सारे रहस्यों की थाह ले लेते हैं। वो जिस लोक और प्रकृति का साक्षात्कार कराते हैं, वहां प्रकृति की लीलास्थली में कहीं कोई संघात नहीं, किसी जीवधारी में स्पर्धा और द्वंद्व नहीं, सब एक-दूसरे के पूरक हैं।
उनके लेखन का प्राणतत्व लोक है। वह लोक, जहां बहुत कुछ त्याज्य और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है।
अशिक्षा, कुरुचि और अपसंस्कृति का फैलाव यहां इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति विचलित हो उठता है। यह इतना नीरन्ध्र और परिवर्तनविरुद्ध है कि शिक्षित और कुलीन इस लोक की तरफ दृष्टि फेरकर देखना तक नहीं चाहते। लेकिन इसी लोक से कुबेरनाथ राय मानव जीवन का महत्तम उठा लेते हैं। उनकी पारखी दृष्टि, मनन और रमण करने की उनकी मेधा हतप्रभ करती है। प्रकृति के प्रांगण में मानव समेत नाना जीवधारियों के सहअस्तित्व के मेल-मिलाप से जो मूल्य उन्होंने सिरजे हैं, वो बड़े काम के हैं।
एक से एक अनगढ़ प्रसंग उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर प्राणवान हो जाते हैं। उनकी दृष्टि के अभिसार में सब के सब सहसा अपूर्व दृश्य रच देते हैं। कथाएं पुरानी और सबकी पढ़ी-सुनी होती हैं, लोक सबका देखा और भोगा हुआ, लेकिन नये कलेवर में उनकी अर्थवत्ता पाठक को दूसरे ही क्षितिज पर ले उड़ती है। लोक की भावभूमि यहां कभी नहीं मुरझाती, सदा-सदा लहलहाती रहती है। कहीं अनावृष्टि से सूखते ताल खंख हो रहे हैं, तो कभी धारसार बारिश पाकर बगुले की तरह उठते विहाग-गीत लोगों को विह्वल कर देते हैं। ज्वार, बाजरा, धान, गेहूं के साथ यहां मई-जून की तमतमाती लू भी आह्लादकारी लगती है। ज्वर से तपता शरीर दाहक लू के साथ कैसे एकाकार होता है, उन्होंने खूब लिखा है।
‘संपाती के बेटे’ पढ़कर लगता है, इस पक्षी पर अब आगे शायद लिखने को कुछ शेष नहीं रह गया। कौन नहीं जानता गिद्ध-प्रजाति को। पौराणिक चरित्र के औदात्य पक्ष से लेकर एक आधिभौतिक, अस्पृश्य, कुलीन समाज से बहिष्कृत, वीभत्स और उसके डरावने रूप को देखकर हर कोई सिहर उठता है। लेकिन कुबेरनाथ राय ने उसके भीतर एक कुशल गृहस्थ और काममोहित पुरूष का दर्शन किया। इस उपेक्षित किंतु महत्वपूर्ण प्रजाति को निवृत्ति की खाई से निकालकर मानव और मानवेतर प्राणियों के उच्च सोपान पर ले जाकर उन्होंने प्रतिष्ठित कर दिया। वो लिखते हैं—”हां, मेरी खिड़की के पास ही पुराना पीपल का पेड़ है जिस पर ये समय-कुसमय गृध्र-युग्मों के काम सीत्कार के घोर रव सुनाई पड़ते हैं। जहां की प्रकृति के हिस्से में ज्वार-बाजरे और ईख-जैसे एक लाठीनुमा कवित्वहीन और गद्याकृति पौधे मिले हों, वहां की किसी चीज में बंगाल की माया कैसे प्रवेश करें! रोज इन्हीं गृध्र-युग्मों का प्रणय देखने को मिलता है। प्रणय-पूर्व गृद्ध नायक दूर-दूर के दरख्तों से सूखी-अधसूखी टहनियाँ तोड़कर गृद्ध-स्वामिनी प्रिया को सौंपता है और वह नीड़ रचती है। प्रणय और नीड़ की माया दोनों का वितान साथ-साथ तनता जाता है। काल पाकर अंडे फूटते हैं। सघन पत्तों के बीच गृद्ध-शावक पलता है। शिशु के बड़े हो जाने पर गृह की माया बिखर जाती है। माया की अर्गला के एक बार टूटते ही शावक भी भूल जाता है और चिर कुमारिका गृद्धस्वामिनी फिर से उर्वशी बन जाती है। पत्नी नहीं, माता नहीं, सनातन प्रिया।”
अपनी संस्कृति और सभ्यता से प्रेम करने वाला भलामानस आखिर दुनिया की अन्य प्राचीन सभ्यताओं का निरादर कैसे कर सकता है। जैसे इसी प्रस्तावना के साथ वो यूनानी-रोमन सभ्यताओं को भी देखते हैं। पश्चिमी संस्कृति के अभिमुखीकरण की भी उनकी वही शैली है। लोक की शैली। लोक से ही वो उनके चरित्रों की भी पड़ताल करते हैं, और उनकी यह प्रविधि पूरी तरह वैध लगती है। यूनानी महाकाव्यों के चरित्रों को तो वो इतनी विश्वसनीयता और अधिकार से पकड़ते हैं जैसे लगता है, ये हजारों मील दूर बसे अन्य महाद्वीप के न होकर पूर्वांचल के किसी गांव-जवार के चिर-परिचित आख्यानों की बात हो। ये विजातीय तो कदाचित ही लग सकते हैं। और धीरे से ये चरित्र संक्रमित होते हमारे लोक में भी समा जाते हैं। लेखक उन्हें अपनी भावभूमि और देश-काल में उतारकर उनसे संवाद करने लगता है।
कुबेरनाथ राय का बहुत कुछ पठनीय और अनुकरण योग्य है।