एक साहित्यकार की साधना समाज के विकास एवं कल्याण की साधना है। सामाजिक बदलाव में साहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। किसी भी युग का साहित्य उस समय के युग का आईना होता है। साहित्य सतत परिवर्तनीय है। साहित्यकार की दृष्टि बहुत तेज़ और दूर तक फैली रहती है। आज जिस तरह जातिवाद साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषाई संकीर्णता के कारण समाज पीछे लौटा है, उसका प्रभाव हम साहित्य में देखते हैं। नारीवाद, दलितवाद एवं आधुनिकतावाद की विचारधारा ने रागात्मक प्रभाव डाला है। ग्लोबल विलेज की अवधारणा में सुदृढ़ता आने के कारण जीवन पद्धतियों का विश्वव्यापी एकीकरण मुख्य कारण है और इस परिप्रेक्ष्य में निरंतर हो रहे परिवर्तन के पीछे वर्ग संघर्ष छिपा है।
कड़वे यथार्थ को अभिव्यक्ति देने में सक्षम भीष्म साहनी एक दीपक के समान हैं । जन सामान्य के प्रति समर्पित उनका लेखन यथार्थ के ठोस ज़मीन पर अवलम्बित है। साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता एवं संघर्ष के बंधनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वान करनेवाले युगपुरुष रहे हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी आम लोगों की आवाज़ उठाने और हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की जन-समस्याओं को उठाने की परंपरा को आगे बढ़ानेवाले साहित्यकार के तौर पर पहचाने जाते हैं।
जातीय सांस्कृतिक व्यवहारों में परिवर्तन का कारण आर्थिक सामाजिक राजनैतिक और सांस्कृतिक परिवेशगत स्थितियां ही होती हैं। यह लोक चेतन के धरातल से गुजरती है। कड़वे यथार्थ का अभिव्यक्ति देने में सक्षम होती है।
मार्क्स के वर्ग संघर्ष, जोला के प्रकृतिवाद, फ्रॉयड के मनोविज्ञान, डार्विन के विकासवादी सिद्धांतों का प्रभाव भारतीय समाज पर पड़ा। फलस्वरूप व्यक्ति स्वतंत्रता के नारों से उथल- पुथल हुआ| परिवेशगत वैषम्य के परिणाम और उससे उपजे दबाओं को समसामयिक आग्रहों के साथ भीष्म साहनी जी ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ के माध्यम से संवेदनशीलता के क्षरण एवं संरक्षण पर बल दिया। भीष्म साहनी एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने कथा साहित्य की जड़ता को तोड़कर सामाजिक आधार दिया है और आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणामों को गम्भीरता से अनुभव करते हैं। विभाजन की त्रासदी पर ‘तमस’ जैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले भीष्म साहनी को प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने भी प्रेमचंद की परंपरा के प्रमुख और अहम रचनाकार माना है। जिसकी अभिव्यक्ति ‘तमस’ के माध्यम से दिखाई देती है।
आज़ादी के ठीक पहले साम्प्रदायिकता की आड़ में पाशविकता का जो नंगा नाच हुआ, उसका आतंरिक चित्र प्रस्तुत किया है। वहशत के अंधेरे में डूबी यह कहानी मानवता को तार-तार करती है। भीष्म साहनी आज़ादी से ठीक पहले हुए सांप्रदायिक दंगों का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं। भुक्त भोगी होने के कारण, घटनाओं का जीवित चित्रण ‘तमस’ के माध्यम से रखते हैं। इस उपन्यास में उन मनोवृत्तियों को नंगा किया है जो अपनी विकृतियों के कारण जन साधारण को भोगने के लिए विवश करते हैं। एक भोक्ता की हैसियत से भीष्म जी ने विभाजन के दर्दनाक खूनी इतिहास को भोगा है।
आज़ादी से पहले विदेशी शासकों के हथकंडों को ही आज़ादी के बाद भी देश के राजनैतिक दलों की वही मानसिकता निराशाजनक है। यह मानसिक प्रक्रिया घातक है। भीष्म साहनी ने ‘तमस’ के अलावा ‘झरोखे’, ‘बसंती’, ‘मैय्या दास की माढी’, ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ जैसे चर्चित नाटकों की रचना की। भाग्यरेखा, निशाचर, मेरी प्रिय कहानियां उनकी कहानी संग्रह हैं। भारतीय नाट्य संघ इप्टा से भी जुड़े रहे। जन साधारण की आशा,पीड़ा, संघर्ष तथा विडंबनाओं को अपने उपन्यास में आत्मसात् किया है।
भीष्म साहनी की साहित्यिक सोच में नारी बराबर की हकदार है। उन्होंने सम्मानजनक स्थिति का सम्मान किया है। यहाँ प्रेमचंद और यशपाल की छाया प्रतिध्वनित होती है। इन्होंने राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचारी नेताओं की पाखण्ड प्रवृत्ति, चुनाव की भ्रष्ट प्रणाली, जातिवाद का दुरुपयोग, नैतिक मूल्यों का ह्रास, व्यापक स्तर पर आचरण भ्रष्टता आदि का चित्रण प्रमाणिकता और तटस्थता के साथ किया है। इनका सामाजिक बोध स्वंय अनुभूत है।
इनके उपन्यासों में शोषणहीन समता मूलक प्रगतिशील समाज की रचना पारिवारिक स्तर पर, रूढ़ियों का विरोध तथा संयुक्त परिवार के विघटन के प्रति असंतोष प्रकट हुआ है। इनका सांस्कृतिक दृष्टिकोण नितांत, वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। जो निरन्तर परिशोधन और परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़रता है। प्रगतिशील दृष्टि समतामूलक समाज के निर्माण में सहयोग दे सकती है है। जाति तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान की आग जलानेवाले समर्थ रचनाकार भीष्म साहनी जी भारतीय साहित्य के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप विश्व साम्राज्यवाद देशी पूंजीवाद में व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं। वे शब्द-शिल्पी के रूप में सिद्धहस्त कलाकार थे।
‘बसंती’, ‘झरोखे’, ‘तमस’, ‘मैय्या दस की माढी’ व ‘कड़ियाँ’ उपन्यासों में आर्थिक विषमता और उसके दुखद परिणामों को बड़ी मार्मिकता से उद्घाटित किया है। इसके लिए दोषपूर्ण व्यवस्था उत्तरदायी है। आधुनिकता-बोध की विसंगतियों से लड़ते हैं तो रूढ़ियों अविश्वासोंवाली धार्मिक कुरीतियों पर भी प्रहार करते हैं। वस्तु एवं पात्र के अंतःसम्बन्धों में मुक्तकामी संघर्षों को रूपायित किया है ।
भीष्म साहनी की कालजयी रचनाएँ हिंदी साहित्य में युगांतरी उपन्यास के रूप में प्रसिद्ध है। वर्तमान युग प्रयोगों का युग एवं क्रांति का युग है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में व्यक्ति इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि अपने ही परिवार में अकेला और अजनबी हो रहा है। राजनीति चेहरा खो रही है, जन-संगठनों में जातिवादी और साम्प्रदायिक तत्व प्रवेश कर गए हैं। भारत जैसे विकासशील देश के आगे, एकता, अखंडता और सार्वभौमिकता की चुनौतियाँ हैं।
जहाँ तक प्रगतिवादी भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है तो इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नहीं है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। मार्क्सवाद ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा। इसी मार्क्सवादी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन-जन तक पहुंचानेवालों में एक नाम भीष्म साहनी जी का है। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति ‘भीष्म साहनी’ सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वंद्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। जनवादी चेतना के लेखक भीष्म साहनी की लेखकीय संवेदना का आधार जनता की पीड़ा है। जनसामान्य के प्रति समर्पित साहनी जी का लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर अवलम्बित है।
भीष्म जी एक ऐसे साहित्यकार थे जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वान करते हैं। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करूणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है।
उन्होने ‘हानूश’, ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, ‘माधवी मुआवजे’ जैसे लोकप्रिय नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत ‘मेरे भाई बलराज’, ‘अपनी बात’, ‘मेरे साक्षात्कार’ तथा बाल साहित्य के अन्तर्गत ‘वापसी’, ‘गुलेल का खेल’ का सृजन कर साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम आजमायी।
भीष्म साहनी हिन्दी और अंग्रेज़ी के अलावा उर्दू, संस्कृत, रूसी और पंजाबी भाषाओं के अच्छे जानकार थे। इन्होने सरस एवं व्यंगात्मक शैली का प्रयोग कर अपनी रचनाओं को जनमानस के निकट पहुँचा दिया।इनकी कहानियों की विशेषता यह है कि सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं तथा पूरी जीवन्तता और गतिमयता के साथ खुली और फैली हुई ज़िंदगी को अंकित किया है।
भीष्म साहनी जी मानवीय मूल्यों के बड़े हिमायती थे। इन्होंने विचारधारा को अपने साहित्य पर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी ओझल नहीं होने देते थे। इस बात का उदाहरण उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘तमस’ से लिया जा सकता है।
स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म साहनी गहन मानवीय संवेदना के सशक्त विचारक थे। उन्होंने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया है। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी। भीष्म जी की सबसे बड़ी विशेषता रही कि उन्होंने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षों को झेला, उसी का यथावत् चित्र अपनी रचनाओं में अंकित किया। इसी कारण उनके लिए रचना कर्म और जीवन धर्म में अभेद था। वह लेखन की सच्चाई को अपनी सच्चाई मानते थे।
भीष्म साहनी थिएटर की दुनिया से भी नज़दीक से जुड़े रहे और उन्होंने ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) में काम करना शुरू किया, जहाँ उन्हें बड़े भाई बलराज साहनी का सहयोग मिला था। भीष्म साहनी ने मशहूर नाटक ‘भूत गाड़ी’ का निर्देशन भी किया, जिसके मंचन की ज़िम्मेदारी ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ली थी।
तत्कालीन समाज के सहज मानवीय अनुभूति को उकेरा है। भीष्म साहनी जी की रचनाएँ व्यक्ति एवं समाज की सोच को हमारे सामने रखती हैं एवं एक नयी दिशा देने का प्रयास करती हैं।