सुनहरे कल की आंखों में सजाए ख्वाब को अपने,
चले आए शहर में छोड़ कर परिवार को अपने।
ये सोचा था कि इक दिन तो मेरे ये स्वप्न सच होंगे,
न था मालूम आंखों से झरेंगे स्वप्न यूं अपने।
संवर जाएगी किस्मत मेरे बच्चों की भी इक दिन तो,
फकत इस चाह में मेहनत बहुत दिन रात की हमने।
गिरे थे अश्क आंखों से मेरे मां-बाप के उस दिन,
थे रोए खूब बच्चे भी चला जब घर से मैं अपने।
ख़बर थी क्या मेरे मौला मुझे इस बात की लेकिन,
मेरी किस्मत डुबोएगी भंवर में ही मुझे अपने।
अजनबी शहर के ऊंचे मकानों में अंधेरा है बहुत,
चलो फिर लौट चलते हैं सभी अब गांव ही अपने।
फकत इस चाह में रूठी ‘कमल’ किस्मत मेरी मुझसे,
खुशी की चाह में क्यों छोड़ आया गांव को अपने।