■ मैं जीना चाहती थी तुम्हें
मैं जीना चाहती थी तुम्हें
मैं तुम्हारे उघड़े सीने की भीत पर
लिखना चाहती थी कुछ छोटी-छोटी कविताएं
उनमें भरना चाहती थी भाव
तरलता से उठते ज्वार में उब-डूब सकूं
जमा करना चाहती थी अंजुरी भर पानी
तुम्हारे संग कुछ पखवाड़े बिता सकूं
गढ़ना चाहती थी एक छप्पर
द्वार पर टांगना चाहती हूं वंदनवार
जीवन जो तमाम बातों पर खर्चती हूं
अब थोड़ा बचा लेना चाहती हूँ
सुनो!
तुम्हें जब फुर्सत मिले
तुम लौट आना
उसी गंध के साथ
जिस गंध से मैं आसक्त हुई थी।।
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■ अधर्मी
न कोई धर्म
न कोई जात
न मैं किसी की अनुयायी
मस्त आवारा हवा का झोंका
खुली खिड़की दरवाजे से
कहीं भी आऊं-जाऊं
बंद किवाड़ नहीं भाते मुझे
जरा सी भी फांक मेरा प्रवेश द्वार
सुकून ही देता है
दम घुटते हुए को प्राण
कर लो बंद खिड़की किवाड़
रहने देना बस थोड़ी सी फांक।
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■ चालीस पार की औरतें
चालीस पार की औरतें
जब बैठती हैं फुर्सत में
वह बुनती है उघड़ी स्वेटरें
गुनती हैं नई उम्मीदें
सुनती हैं लता-रफी के गाने
वे सुलझाती हैं
मेहंदी लगे बालों को
वह घरेलू नुस्खे खोजती हैं
झुर्रियां मिटाने को
वे लगाती हैं बोरोलीन
फटी-एड़ियों पर
वे लटकते स्तनों को
ब्रा के फीतों से कसती हैं
कम उम्र दिखने को
यदा-कदा पहनती हैं लाल चटक साड़ियाँ
वे आज भी ललचती हैं
चूड़ी-झुमकों की दुकान पे
चालीस पार की औरतें
हो जाती हैं बेडौल
कमर व घुटनों के दर्द से
रहती हैं परेशान
अड़ोस-पड़ोस की चटकीली बातों से
करती हैं मनोरंजन
बात-बात पर चिल्लाती
हो जाती हैं चिड़चिड़ी
मोनोपॉज के साथ ही
चालीस पार की औरतें।
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■ चुप रहना
आसान नहीं होता
बच्चियों के मामलात में
चुप्पी साधे रहना
खींचती है नसें
आत्मा पर हथौड़े का प्रहार है
ह्रदय छलनी
चुप्पी साधे रहने की तिलमिलाहट है
पीटते अपनी-अपनी पार्टी के ढोल
चचा के राज में हो रहा है क्या?
अपना तो राज भूले हैं जैसे
कैसे-कैसे और होंगे आसीन
अब तो
हर राज नोंची-खसोंटी जातीं हैं बेटियां
बहुत मुश्किल है
ऐसे आबोहवा में जिंदा रहना
सांस ले पाना
राजधानी है भूखी
राज्य है बलात्कारी
हमें दो देश निकाला
कि अब पूरब से उगना
मुनासिब नहीं!