धूप का कतरा
रेशा रेशा पिघलती हूं मैं
तेरे नशे में,
मानो एक कतरा धूप का मिला,
बरसों के अंधेरे के बाद।
रोशनी में नहाई परी जैसे
सिहर उठी रह-रह के आज।
जो दिखाई भी न दे
उस अहसास को देखा आज।
एक धूप का कतरा
कितना सुनहरा है
पर…
कितने रहस्य समेटे है
अपनी झीनी-सी रोशनी में आज।
आज, हाँ आज
एक धूप का कतरा
कह रहा मुझे,
पहचान मुझे
पहचान मुझे।
*
अंतराल
सन्नाटे-सी एक दोपहर में
अपने कमरे में थी मैं,
झर रही थी धूप जहाँ रोशनदान से
खामोश था सब कुछ।
पेड़, सब्ज़ पत्ते, हवा… सब।
बस, हलचल थी तो मन में
कि इस सन्नाटे मे क्यों छुपी है
जीवन की गूढ़ सच्चाई।
सुबह और शाम ही क्यों पूज्य है आखिरकार,
दोपहर का सन्नाटा क्यों नहीं?
दोपहर की वीरानी में है,
राज़ ख़ामोशी का,
ईश्वर की झलक ,
और आत्मीय शान्ति।
*
सड़क
भागती दौड़ती सड़क।
कितना कुछ दिखता है यहाँ
कितना कुछ बिकता है यहाँ
कितने ही मंज़र
शर्मनाक
दर्दनाक
इत्तेफ़ाक!
धूल, धुएँ, शोर
अज़नबीपन और बाज़ारूपन से
होकर गुज़रती ये सड़क
सिर्फ़ एक अजीब रास्ता ही है
जहाँ कुछ भी नहीं है
सिवाय एक अंधी दौड़ के…
सही मायनो में यहीं से जानती हूँ
घर का असल मूल्य।
*
रिश्ते
मेरी रग-रग में बहता खून
मेरी साँसों की रवानी
मेरी धड़कनों का सिलसिला
मेरे आंसुओं का सैलाब
मेरी हँसी की महक
मेरा छुपना
मेरा सोना
मेरा रोना
मेरा हँसना
मेरा हर एक रोम-रोम
मेरे मानस-पटल की शिराओं की रफ़्तार
यूँ ही अनवरत चाहती रहेंगी तुम को।
क्यूँकि ये सब जितना मेरा है,
उतना ही तुम्हारा…
ख़ून के रिश्ते सत्य हैं
जितना सत्य है ये नक्षत्र …।