दुआ
दरगाह के धागे में बंधती
मंदिर के दीये में जलती
गिरिजा की ख़ामोशी में बसती
ताबीजों में बंद सिसकती
दो हथेलियों में जुड़ती
सज़दे में झुकती
टोटकों में पलती
आहों से सजती
आंखों में उतरती
ख़्वाबों में लरज़ती
बातों में खनकती
मेरा हाथ पकड़ती
तेरे दिल से गुज़रती
इस दुआ का सफ़र
कितना लम्बा?
शायद …
थक कर इक रोज़
मेरे सीने में
सो जायेगी!
दर्द
कुछ लफ्जों की
आवाज नहीं होती
कुछ शक्लों की
पहचान नहीं होती
आहट नहीं होती है
कुछ जज्बातों की…
चुपचाप ही मर जाते हैं
कुछ लोग यहां
उनकी खामोशी में वह
आह नहीं होती!
आवारा हवाएं
जंगल की आवारा हवाएं
ठहरे तो
खामोशियों का गला चीर दे
बहके तो
तबाही के भी निशां ना बचें
मचले तो
रोम-रोम में सिरहन पसार दे
फिसले तो
बाढ़ों सी बह जाये
कुरेदे तो
धरती से जीवन निकले
सिमटे तो
घटा दे तन्हाइयों का फैलाव
हंस दे तो
बिखर जाये मौसमो में लाल रंग
कस ले
तो पिघल जाये रात का मंजर।
मनमौजी…
अल्हड़…
पागल और दीवानी
जंगल की आवारा हवाएं
बड़ी बदनाम होती हैं…
इश्क की बेल
तेरा इश्क़ बेल जैसा
लिपटता रहता है और
जकड़ता रहता है मुझे
बरस जाने पर
गुलाबी फूल खिलते हैं
और सूखने लगती हैं
ज़ियादा जुदाई वाली धूप में
छोटी-छोटी टहनियां
जिस्म में सुराग कर
चूसने लगती हैं
कतरा कतरा इश्क़
इश्क़ का रंग हरा तभी है शायद
पत्तियों पर ठहरी हुईं
ओस की बूंदें
तेरी जमा ख़्वाहिशों जैसी
सुबह होते ही
मेरी सतहों पर फ़ैल जाती हैं
ये पैदा फल शायद…
निशानी होगा उस रात की
जब चांद ने फेंककर मारा था
वो जादू का मंत्र…
कुम्लाये लम्हें
सूखी कलियां बनकर
छिटक के दफ़न हो जाती हैं
मेरे ही दायरे में
मग़र ख़ुश्बू कभी नहीं मरती
जड़ें पसरने लगी हैं और भी गहराई में
रोज़ सींचती जो हूं
रूमी की दिल फ़रेबी बातों से
मीरा के जुनून-ए-इश्क से
आबिदा के सूफ़ी कलामों से
जगजीत के दर्द तरानों से
इश्क़ की बेल को इश्क़ की ख़ुराक चाहिए!
सिलसिला
ना तुझसे मिलने की
बेकरारी
ना वो आंखों में पहले
सा नूर
ना बातों में है वो
खुमारी!
कुछ दिनों से ये
सिलसिला
कुछ
थम सा गया है
इस बार जब तू गया था
तूने मुड़ कर नहीं देखा था…