गाँव
शहर की
बासी हवाओं में घिरकर
तरस जाता हूँ
लौट जाने को
उस अबोध गाँव में
जिसने, प्रकृति की गोदी में
अभी सीखा नहीं
छल-कपट का दाँव-पेंच,
जहाँ
आसमान का नीलापन
पर्वतों की हरियाली
सामान्य से थोड़े ज्यादा हैं
और जहाँ
मेहमानों को
घर से ज्यादा
दिलों में
पनाह दी जाती है।
तरस जाता हूँ
लौट जाने को
उस अबोध गाँव में
जहाँ
जीवन के आँगन में
काँटों का उगना
जहर का फैलना
आरम्भ नहीं हुआ।
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मैं हिन्दी हूँ
सौ-सौ बोलियों के विशाल उपवन में
एक मेरे नाम का भी फूल खिलाया
मुझ अतिथि को दिल में बसाया
मेरा आगमन सहर्ष स्वीकारा।
आई थी जब मैं आपके आँगन
बच्ची थी मैं, था लड़कपन
पर गया नहीं कहीं मेरा बचपन
कि ‘आपकी’ हिन्दी में है कच्चापन।
मेरा वही अर्द्धविकसित रूप
कर रही हूँ दौड़-धूप
तवांग से लेकर लोंग्दिङ तक
संसद से लेकर सड़क तक।
बचपन की दहलीज लाँघ जाऊँ
नव-यौवना सी पंख फैलाऊँ
पर आपकी जबान में यूँ अटकी हूँ
इसलिए हर मोड़ पर भूली-भटकी हूँ।
पर नहीं शिकायत मुझे किसी से
रहती हूँ ‘आप’ में, सन्तुष्ट हूँ उसी से
उस रूप में भी, उस ढंग में भी
‘ऐक्य-रंग’ भरती हूँ, अनेक रंगों में भी।
जहाँ आपकी बोलियों की जमीं
आसमाँ से कभी मिलती नहीं
खड़ी रहती हूँ मैं क्षितिज बनकर
दिलों के किनारों का सेतु बनकर।
अभिव्यक्ति के हर छोर पर
मौजूद हूँ मैं सिरमौर पर
कुछ टूटी-सी, कुछ फूटी सी हूँ
भाषाई जंगल की जड़ी-बूटी सी हूँ।
सात बहनों की सुन्दर टोली में
भरी हूँ सर्वाधिक आपकी झोली में
मुख्यधारा के सम्पर्क में आकर
‘नवीन हिन्दी’ बोलते आप बराबर।
अब आस जगी है मन में
उड़़ूँगी मैं भी प्रौढ़-गगन में
कुछ सितारे चमक रहे हैं
मेरा भी सूर्योदय हो रहा है।
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बन्धन के कुछ पल
खिड़की से झाँककर
जब देखता हूँ बाहर
सुस्त पड़े झुरमुट को
यूँ छेड़-छेड़
दीवानों सी बहती
नमकीन हवाएँ
भरती जातीं
चंचल मस्ती
पत्तों में, डालियों में
थोड़ी दूर, समन्दर के
अनन्त वक्षस्थल पर
हिलोरें लेतीं
लहरों की
मदमस्त पंक्तियाँ
विशाल आकाश
और असीम समन्दर के
मिलन-बिन्दुओं पर
निरंकुश परिन्दे
पंख फैलाए
हवाओं से बातें करते
भर रहे
गर्भित उड़ान।
इधर मैं
झरोखे के भीतर
चख रहा
क्षणिक बन्धन का
कड़वा स्वाद।
पस्त काया है,
आतुर चित्त है।
१३.०७.१८ (एच आर डी सी, गोवा विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित पुनश्चर्या पाठ्यक्रम के दौरान।)
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मित्र
न जाने तुम कहाँ-कहाँ नहीं हो
मेरी जरूरतों के हर छोर पर
हर रिक्त स्थान भरते मौजूद तुम हो।
मेरे जीवन के कोरे पन्नों पर
विविध रस-रंगों के अक्षरों में
कितने किस्से-कहानियों में दर्ज तुम हो।
मेरे पहाड़ चढ़ने में, सागर तरने में
फूल चुनने में, काँटों से भिड़ने में
संघर्षों के हर खण्ड में शरीक तुम हो।
मेरे बनने-सँवरने के नियमित प्रयासों में
व्यक्ति-चरित्र की निर्माण-प्रक्रियाओं में
प्रदेय तुम्हारा, जिससे अनभिज्ञ तुम हो।
हँसी की लहर और आँसुओं की बारिश
बहे-बरसे जहाँ कृत्रिम बाँध तोड़कर
हृदय का वह विशाल भाव-लोक तुम हो।
विधाता के परिचालित अनंत रंगमंच में
अपने हिस्से की भूमिका अदा करते
बेनकाब, मेरे दीर्घ सह-पात्र तुम हो।