छोड़ ठिकाना द्वेष का, कर दें माया क्षार।।1।।
जोगी धर लें धारणा, राग- द्वेष को मार।
मद-मत्सर को त्याग दें, कर उसका दीदार।।2।।
जोगी आसन धार लें, आँखें कर ले बन्द।
अंतर्मन विलोड़ित कर, वाच मुक्तिमय छंद।।3।।
जोगी खड़ा इस तट पे, उस तट पर जग रीत।
जोगि न माने रीत को, जोगि न माने प्रीत।।4।।
जोगी मम-ता खा गया, पी गया मोह-मान।
देह काटकर फैंक दी, पाया आतम ज्ञान।।5।।
जोगी का पथ और है, जग का पथ है और।
जग के पथ पर रात है, जोगी के पथ भोर।।6।।
जग के पथ पर भूल है, जोगी के पथ धूल।
जग के पथ पर फूल है, जोगी के पथ शूल।।7।।
जोग की बैरि नींद है, वार करें परोक्ष।
भोग की बैरि भोर है, माया बैरि मोक्ष।।8।।
जोगि बाहर क्या देखें, अंतर्घट में देख।
बाहर बहुरुप भासता, भीतर उसे विलेख।।9।।
जोगी मत बन बावला, मत कर जग से प्रीत।
प्रीत दिया प्रीत न मिलें, यही जगत की रीत।।10।।
जोगी मत बन बावला, गले पहन लें नाद।
भव का भाषा तोड़कर, कर आत्म संवाद।।11।।
जोगी मत बन बावला, ये जग बड़ा ही ठग।
जगत कहानी त्याग दें, ईश सुमिरन में लग।।12।।
जोगी मत बन बावला, कर भजन व्यवहार।
तज दें कोमल भावना, हृदय वज्रता धार।।13।।
जोगी मत बन बावला, कर ले साधन सिद्ध।
साँसा-तीर-कमान से, इंद्रियन को बिद्ध।।14।।
जोगी मत बन बावला, तज काया की आस।
घर तेरा उस ठौर है, पवन नहीं प्रकाश।।15।।
जोगी मत बन बावला, राग न जग से जोड़।
राह तेरी विराग की, जगत राह पे होड़।।16।।
जोगी मत बन बावला, कर लें ऐसी युक्ति।
चित्त जोड़ करतार से, तन से होवे मुक्ति।।17।।
जोगी मत बन बावला, उनमुनि ऊपर चाल।
नजर गढ़ा निरंजन पर, ध्यान बना लें ढाल।।18।।
जटा बढ़ा दें जोगियाँ, ढक दें तम का ताप।
जीवन में आल्हाद भर, बरसा आतम आप।।19।।
जटा बढ़ा लें जोगियाँ, कर गोरख को याद।
अर्पित कर दें आत्मा, चख अमृत का स्वाद।।20।।
जटा बढ़ा लें जोगियाँ, तज शृंगारी भाव।
पाल ज्ञान का खींच लें, पार लगा दें नाव।।21।।
जटा बढ़ा लें जोगियाँ, मल दें तन पर राख।
समता उर में बाँध लें, खोल विवेकी आँख।।22।।
जटा बढ़ा लें जोगियाँ, जग में फैला ऐब।
द्वंद्व मचा है माया का, भूल गए सब गैब।।23।।