अजित कौर पंजाबी की जानी-मानी साहित्यकार हैं. अपनी आत्मकथा ‘खानाबदोश’ के लिए उन्हें वर्ष 1986 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है.
जो दायरों में न सिमट सके वो खानाबदोश होता है. मैं उन्हें सिर्फ इसी कथा के माध्यम से जानती हूं. और जानती हूं कि अजीत कौर यानी आवारा जंगली हवा. जिप्सी दरिया. धूप का फ़ाहा. अजीत कौर यानी अपनी रोटी खुद कमाती, ज़हीन, खुद्दार, अकेली औरत, इस देवताओं के मुल्क हिंदुस्तान में. अजीत कौर यानी एक खानाबदोश जो दायरों में न सिमट सके, फकीराना ठाठ वाली, फाकामस्ती नहीं बल्कि फाकाकशी के साथ जीवन को जीती हुई. अजीत कौर यानी जिसके साथ हादसों ने बड़ी गहरी साजिश की हो. विवाह जिसके लिए बहुत सख्त, खौफ़नाक, शोकमय विलाप जैसा था. अजीत कौर यानी आग में रोज़ नहाना जिसकी तकदीर है.
आत्मकथा लिखना यानी अपने जीवन का निचोड़ सामने रख देना होता है. प्रायः हम अपने बारे में कहते नहीं हैं. स्त्रियां तो और भी नहीं कहती. पर अजित कौर ने अपने होने को कहकर औरों के लिए इसे उपयोगी बना दिया है. अज्ञेय लिखते हैं– ”जो मेरा है, वही ममेतर है.” आत्म के सच को कहने का साहस भला कितनों के पास होता है? इसमें मैं पाती हूं, सामाजिक छद्म को तोड़ना साहसिक है. इस आत्मकथा में मानवीय अस्तित्व के जटिल प्रश्नों के उत्तर हैं.
जिंदगी सपाट नहीं होती. अजीत की भी नहीं थी. घटनाओं और हादसे से भरी हुई. जिसे वह टुकड़ों टुकड़ों में बयान करती हैं. वो कहती है—”जब मन का, रूह का और जिस्म का एक साबुत टुकड़ा भी काट दिया जाए, तो भी बाकी की लंगड़ी, लूली, कोढ़ खायी जिंदगी चलती ही चली जाती है. बेशर्म, बेहया, ढीठ यह जिंदगी!”
आत्मकथा उन्होंने टुकड़ों-टुकड़ों में लिखी है. संघर्ष को, दुःख को कुछ टुकड़ों में लिखा है फिर भी भीतर-भीतर इन अलग-अलग टुकड़ों की संगति बेमिसाल है.
‘वन जीरो वन’—थर्ड डिग्री बर्न की बड़ी मार्मिक और त्रासद घटना को पढ़कर मन रो पढ़ता है. भयानक हादसा जिसके बाद संभाला कितना मुश्किल होता है. उन्होंने जिन्दा रहने का मतलब अपनी बेटी के वजूद में ढूंढा था. उसी बेटी कैन्डी का दुःख, कैन्डी को लिखते हुए एक बेबस माँ को लिख दिया ऐसा दुःख कि कलेजा मुंह पर आ जाएं. दुःख भी कैसे-कैसे होते हैं. जिसे आप प्यार करते वो आपसे परे हो जाता है.
‘सफ़ेद और काली हवा की दास्तान’ में बलदेव से अपने पहले प्यार का जिक्र है प्यार जिसने खूब किताब पढ़वाई और दुनिया का देखने का नजरिया दिया. बलदेव कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे. बलदेव के लिए अजीत से प्रेम पूजा की वस्तु था. जबकि अजीत को कहना था उसे सजदे नहीं चाहिए. बलदेव अभी भी मुझे बच्ची समझते थे. और उन्हें बताने के लिए कि मैं बच्ची नहीं, मैंने पहली कहानी लिखी. इस प्रेम को न पा सकना भी हादसा था, जिसे खुद उन्होंने धरती की धुरी में डाइनामाइट लगा दिया और अपने को कहा बेवकूफ़ औरत!
लाहौर की पीर मक्की की गली के जिस कमरे में जन्म हुआ, पास एक दरिया था, उस खानाबदोशी दरिया की रवानी और आवारगी अजीत के लहू में मिल गयी. हिन्दुस्तान आजाद हो गया था और हम बेघर हो कर उजड़ गए. दारजी ने पटेल नगर में अपना घर बना लिया. अजीत ब्याह कर करनाल आ गई. ब्याह के बाद घर न मिला, यातना अपमान झेला, संयोजन की सारी कोशिश बेकार हुई और एक बार फिर नए सिरे से जीवन शुरू किया. वर्किंग हॉस्टल के कमरे को घर बनाया.
‘घोंघा और समंदर में’—जिन्दगी का एक टुकड़ा ओमा के साथ जिया. खूब घूमा. वो अपने पब्लिशिंग के सिलसिले में, तो ये अपनी पत्रिका के लिए. जमकर काम किया. ओमा जो शादीशुदा मोटा-ठुल्ला, खाने-पीने का शौकीन, पैसा कमाना ही जिसका मकसद था, अजीत के प्रेम में बदलता है. लावेल का कथन है—”ह्रदय की विशालता ही मनुष्य को महान बनाती है.” ओमा और अजीत एक-दूसरे से मिलकर दुनिया में अपनी जगह बनाते हैं. अपने काम को एक सौंदर्यबोध के साथ जीते हैं जिसके लिए दुनिया संकीर्ण थी. तर्जुमे किये, आर्टिकल लिखे, पत्रिका निकाली. एक जगह वह लिखती है—”मैं और सब कुछ ओमा के साथ साझा कर सकती हूं, अपनी ग़ुरबत नहीं सांझा कर सकती.” यह भी दुःख से भरा था जहां वे दूसरी औरत, नाजायज़ औरत के दर्द को सहन किया और लिखा— ”उसके साथ बावस्ता होकर इश्क भी अपनी पाकीज़गी और अज़मत गवां बैठता है.”
इसमें निश्छल मनुष्यता के कई अक्स हैं जिसमें हम अपने को देख सकते हैं.
पुस्तक: खानाबदोश
लेखक: अजित कौर
प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, 4855-56/24,अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली—110002
मूल्य: 80/-रुपये