भारतीय साहित्य की अन्य देशों के साहित्य की तुलना में वे भारतीय साहित्य के उस क्षेत्र को सामने लाते हैं जो भारतीय अस्मिता एवं आत्मा का प्रकटीकरण करता है।
श्री भगवान सिंह ने जिन शीर्षकों पर चर्चा की है वह इस प्रकार से हैं- साहित्य की भारतीय परंपरा, साहित्य और राज्यसत्ता, साहित्य बनाम लोक साहित्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकधर्मी साहित्य दृष्टि, भारतीय साहित्य में स्त्री सशक्तीकरण की छवियां, कबीर या तुलसी: पूरक या विरोधी, हिंदी रचनाशीलता में स्त्री-मुक्ति की गांधीवादी अनुगूंज, कुबेरनाथ राय का गांधीभाष्य, निर्मल वर्मा का कथेतर गद्य : अहिंसक हिंसा का प्रत्याख्यान, हजारीप्रसाद द्विवेदी कुछ और भी हैं ‘कबीर’ के सिवा, रामविलास शर्मा और हिंदी नवजागरण की अवधारणा, आचार्य शिवपूजन सहाय और हिंदी नवजागरण, रामवृक्ष बेनीपुरी और हिंदी नवजागरण तथा कृष्णदत्त पालीवाल : आलोचना की तीसरी आंख।
उपर्युक्त शीर्षकों में विभाजित यह पुस्तक गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के उस कथन के साथ सामने आती है जिसमें वे कहते हैं, “सर्वप्रथम जब भारतीय सभ्यता का विकास हुआ, लोग एक दूसरे से बिल्कुल सटकर नहीं बैठे। उन्होंने भीड़ नहीं जमाई। यहां वृक्ष-नदी-सरोवर का मनुष्य के साथ सहयोग बना रहा। यहां मनुष्य भी था, निर्जन स्थान भी था, निर्धनता से भारत का चिंतन जड़ नहीं हुआ, वरन उसकी चेतना और भी उज्ज्वल हो उठी। हम कह सकते हैं कि शायद दुनिया में और कहीं न हुआ होगा।”
शायद रवींद्रनाथ टैगोर की इसी बात को प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक धर्मपालजी “भारतीय चिति एवं मानस” कहते हैं।
साहित्य और राजसत्ता की बात करते हुए लेखक कहते हैं- इनके बीच आपसी संबंध भारतीय दृष्टि को उजागर करता है। लोक साहित्य की जब भी बात होगी उसमें भारत की काव्यशास्त्रीय चिंतन परंपरा को उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
स्त्री विमर्श में लेखक का मानना है कि वह तब तक अधूरा है, जब तक इसे भारतीय दृष्टि से न देखा जाए। कबीर-तुलसी को जिस तरह से आज सगुण और निर्गुण के बीच खड़ा करके विमर्श चल रहा है, उसको भी अनुचित मानते हैं। उनका मानना है कि भारत की धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं के परिप्रेक्ष्य में दोनों को एक दूसरे का पूरक सिद्ध करने का तर्कसंगत प्रयास होना चाहिए।
पुस्तक में स्त्रीमुक्ति की गांधीवादी अनुगूंज और कामायनी तथा गांधी दर्शन जैसे लेखों के माध्यम से एक नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है।
लेखक ने कुबरनाथ राय जैसे ललित निबंधकार को स्मरण किया है तो वहीं पर निर्मल वर्मा जैसे कहानीकार को भी।
नवजागरण काल की चर्चा करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा, शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी पर सार्थक बात की है तो आलोचना साहित्य को तीसरी आंख से देखनेवाले आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल के लेखन पर दृष्टि डाला है।
कुल मिलाकर सार यह कि आज के साहित्यकारों, शिक्षकों तथा शोधकर्ताओं को यह पुस्तक पठनीय और दिशाबोधक है।
श्री भगवान सिंह ने बहुत मेहनत से इस पुस्तक को तैयार किया है।
यह पुस्तक सामयिक बुक्स, नई दिल्ली से प्रकाशित की गई है।